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आज डायरी खँगालते यह कविता दिखी - विरोधाभास उलटबाँसी सी लिए। तेवर और लिखावट से लगा कि अपेक्षाकृत नई है।
कब रचा याद नहीं आ रहा। सन्दर्भ /प्रसंग भी नहीं याद आ रहे। चूँ कि पुरानी डायरी का सम कविताएँ और कवि भी . . पर
पूरा हो चुका था इसलिए यहाँ विषम प्रस्तुति करनी ही थी, सो कर रहा हूँ। एक संशोधन भी किया है।
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अधिकार ही नहीं यह कर्तव्य भी है
कि ऊँचाइयों में रहने वाले
दूसरों नीचों के आँगन में झाँकें।
ऊँचाइयाँ तभी बढ़ेंगी
और झाँकने की जरूरत समाप्त होगी।
पर कोई झाँकता नहीं।
ऊँचाई पर रहने वाला
एयरकण्डीसंड फ्लैट में बन्द है।
पुरुवा के झोंके भी तो
मशीन से आते हैं।
ऊँचाई कैसे खत्म होगी ?
इस ऊँचाई को समाप्त कर सब कुछ सम पर लाने के लिये ही तो द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद पढ़ने की ज़रूरत है । बधाई हो राव साहब .. आप ढूँढ कर बहुत अच्छी चीजें ला रहे हैं ।
जवाब देंहटाएंआपकी कविता पढ कर बचपन में दी हुई माँ की सीक याद आ गई । जिसके पास तुमसे कम है उसकी और देखो ।
जवाब देंहटाएंबहुते सुन्दर!
जवाब देंहटाएंगहरी बात .......
जवाब देंहटाएंआज उँचाइयों को कौन ख़त्म करना चाहता है ...........
सच को कहने का आपका अंदाजे बयां कुछ और है।
जवाब देंहटाएंऊँचाई पर रहने वालों को है परेशानी ...अपने पांव तो हमेशा जमीन पर ही रहे ...!!
जवाब देंहटाएंझाँकना नहीं चाहते हम. क्योंकि झांकेगे तो मेनेजर में भी झांकना होगा. हम चाहते हैं, घर सुंदर दिखे पर काम वाली ( मंजू ) आये, घर चकाचक करें और गायब हो जाये. सड़क बिल्कुल साफ हों पर सफाई वाला हमारे उठने से पहले आये और कहीं चला जाये. खिड़की कैसे ही खुल भी जाये तो सामने बस एक पार्क हो, फूलों भरा पर माली क्यारियां सजा कर ओझल हो जाये.
जवाब देंहटाएंकविता छोटी है पर प्रहार बड़ा, हमारी सोच पर भी और इस सोच से जनित व्यवस्था पर भी. अब सोचिये, प्राधिकरण एक हजार फ्लैट बनाता है, रिवर व्यू. पर इनमें जब लोग रहेंगे और इनमें काम करने वाले लोग कहाँ रहेंगे ? फ्लैट में जब लोग रहेंगे तो खाने के लिये सब्जी बालकनी में तो उगायेंगे नहीं पर क्या सड़क पर आपने कहीं सब्जी वालों के लिये "बे" देखी. फिर जब वे सड़क पर बैठिंगे तो हम सड़क पर कब्जे की चिल्ल्पों करते सब्जी खरीदेंगे. हमारा भी अपने आउटलेट्स पर रेस्टरूम जैसी चीज नहीं बनाते और चाहते हैं सैल्समैन कहीं बैठे लैटे दिखाई न दें. कुछ ज्यादा प्रवचन हो गया ?
भाई साहब !
जवाब देंहटाएंदुरुस्त फ़रमाया आपने ..
[अब तो ऊचाइयों से मोह-भंग होने लगा है]
माफ़ कीजियेगा मैं फिलासफी के बाद कविता पर आने में विश्वास नहीं
करता .. वह चाहे '' द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद '' ही क्यों न हो | जो
दिख रहा है , हम उसी से कविता पर आते है ..
आपने कहा --- '' पुरुवा के झोंके भी तो / मशीन से आते हैं। '' हमारे समय की
सच्चाई हो गयी है यह .. कुछ ऐसे ही प्रश्नों से मैं भी जूझ रहा था और अपनी पिछली पोस्ट
पर कवियाया भी , पर सही कह कहूँ - सुकून यहाँ पर मिला .. सुकून बोले तो ' विरेचन ' ..
सामयिक कसक के साथ ही अपनी बात ख़त्म कर रहा हूँ ---
'' ... पर कोई झाँकता नहीं।
ऊँचाई पर रहने वाला
एयरकण्डीसंड फ्लैट में बन्द है। ''
.......... आभार ............
@ शरद कोकास जी
जवाब देंहटाएंद्वन्द्वात्मक भौतिकवाद। सही कहा आप ने। सम्भवत: उन दिनों communist manifesto पढ़ रहा होऊँगा।
@ पंकज जी
'मंजू' हा हा हा। आप अभी तक याद रखे हैं।
सुबह पोस्ट करते दुविधा थी.. विरोधाभास और उलटबाँसी सी... अर्थ गूढ़ लग रहे थे लेकिन स्पष्ट नहीं हो पा रहे थे। कितनी सरलता से आप ने स्पष्ट कर दिया ! वाह ।
सोच और सोच जनित व्यवस्था पर प्रहार - सही कहा आप ने। हमारी सोच कहीं संकुचित है - बहुत, इतनी कि न तो पूँजीवादी है और न समाजवादी। पता नहीं क्या है?
पर कोई झाँकता नहीं।
जवाब देंहटाएंऊँचाई पर रहने वाला
एयरकण्डीसंड फ्लैट में बन्द है। ''
गिरिजेश जी हम भी जमीन पर ही रहते हैं मगर उपर जरूर झाँक लेते हैं वहाँ की करूपता देख कर पाँव धरती से नहीं छोडते। अच्छी रचना के लिये बधाई
"पता नहीं क्या है?" - हर संतुलित आदमी यहीं उलझता है ..उत्तर आधुनिकता का यह मत संभवतः आपकी मदद करे "सत्य कई होते हैं और सबका सह अस्तित्व होता है"
जवाब देंहटाएंएक्सट्रीम न जाइए बंधू. ...शरद जी की सलाह का मैं समर्थन करती हूँ.
ऊँचाई कैसे खत्म होगी ?
जवाब देंहटाएंहम इतना आगे पहुँच चुके है कि नहीं खत्म हो सकती यह ऊँचाई अब ।
मेरे एक छोटे भाई ने कहा - नीचे देखने की पाबंदी है उसे । उसकी माँ ने कहा है, "दूसरों के आँगन में नहीं झाँकना चाहिये । न जाने कौन कैसे रहे ! ऊँचे होने का यह मतलब नहीं कि दूसरों के घर में झाँकते चलें !"
जवाब देंहटाएं(ऊँचाइयाँ तभी बढ़ेंगी)
जवाब देंहटाएं(ऊँचाई कैसे खत्म होगी) ?
समझ नहीं आ रहा(नीचे वालों को ,, नीचों को ) की ऊँचाई समाप्त होनी चाहिए या बढनी
ऊंचाइयों पर रहने वाला ये जानता है की झाँकने से ऊँचाइयों के ख़त्म होने का ख़तरा है इसी लिए वो नहीं झाँकता !
अच्छे विचार !!
तो आप कम्यून मेनिफेस्टो पढ रहे थे और इस तरह की कविता बनी।
जवाब देंहटाएंऔर मैं शायद उस समय 'मधु मुस्कान' और 'लोटपोट' पढ रहा था :)
@ लवली जी: आभार। वैसे मैं अमरेन्द्र जी के स्कूल वाला हूँ - दर्शन/वाद के बाद कविता आने में विश्वास नहीं रखते। पीड़ा/छटपटाहट की अभिव्यक्ति के बाद दर्शन आए मलहम लगाने। वैसे यह उत्तर आधुनिकता जैन स्यादवाद का ही बदला रूप है क्या ?
जवाब देंहटाएं@ सतीश भैया
बड़े बने हो नाथ ;) हम मेनिफेस्टो और आप मधु मुस्कान, लोटपोट - इत्ते बुढ़ऊ हम नाही हैं। अब भी लोटपोट मिल जाय तो पहले उसे पढ़ेंगे।
आनन्दम आनन्दम
चिकोटी क्यों काटते हो ?
थोड़ा बाबाई मुद्रा बनाए रहने दो न !
कम्यूनिस्ट मैनिफेस्टो पर चलने वालों ने जब क्रान्ति के बाद ऊँचाइयां पा लीं तो इस किताब के पन्नों पर चूरन और चिखना रखकर अपने विजयोन्माद का जश्न मनाया। हवाईजहाज से उड़कर और ऊँचाई पर चलने लगे। नीचे देखने पर असुविधा होने लगी तो दरवाजे बन्द कर लेने पड़े।
जवाब देंहटाएंआप इतना पहले यह सब सोचने लगे थे यह देख जानकर हैरत होती है। अब तो ये समाजवादी अमर सिंह के गुणग्राही हो चले हैं।
दूसरों के आँगन में झाकने की हमको तो मनाही थी ?
जवाब देंहटाएंशायद यही कोई द्वन्द होगा?
प्रस्तुति - वह भी विषम!!
मधुर असत्य !!!
:-)हमारे कथन पर ध्यान दिया जाए ... हर विचारधारा से सिर्फ वही लीजिए जिसकी जरुरत हो ..शेष मस्तिष्क तो है ही manipulate करने के लिए.
जवाब देंहटाएं:)
जवाब देंहटाएंक्या बतायें मित्र - ऊपर, और ऊपर चढ़ना चाहते हैं हम। पर नीचे देखते समय झांई छूटती है।
जवाब देंहटाएंतब ऊंचाई का भय लगता है।
भावार्थ ये कि ..दुनिया बस इन्हीं दो ..भौतिक उपमानों के बीच कहीं अटकी या कहें कि लटकी हुई है ....ईको गद्द में कहते तो जाने कितना जोर पडता ..मुदा आलसी हैं न ..कविताई में ही अजबे लंठई कर जाते हैं और हम उसके ही कायल हैं
जवाब देंहटाएंपुरुवा के झोंके भी तो
जवाब देंहटाएंमशीन से आते हैं।
वाह!और पछुआ हवा?
@
जवाब देंहटाएंपुरुवा और पछुवा की तासीर में फर्क होता है।
दोनों की दिशाएँ अलग होती हैं।
उलटबाँसी उल्टे पाँव सीधी राह चलती है।
वाद
विवाद
सम्वाद
पछुवा की कोई गुंजाइश यहाँ नहीं बनती। इति सिद्धम ;)
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जवाब देंहटाएं.
.
आदरणीय गिरिजेश जी,
"ऊँचाई कैसे खत्म होगी ? "
अच्छा, पर दुरूह सवाल है...
क्या ऊँचाई तब खत्म होगी जब सबके घर पुरवा के झोंके मशीन से आयेंगे, या फिर तब, जब किसी के भी घर पुरवा के झोंके मशीन से नहीं आयेगे।
आइये मिलकर सोचते हैं...
बेहतरीन!
"द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद" की सही कही. यह ऐसा वास्तुशिल्प है जिसमें सीढ़ी की बचत करने के लिए आग लगाकर छत और फर्श समतल कर दिए जाते हैं. [समतल करने का विचार सिर्फ प्रोपेगंडा है, ध्येय तो भस्मीकरण है. विरोधाभास?] ऐसा करने के बाद अगर जगह कम पड़े तो जन और जगह में साम्य लाने के लिए फालतू बोझ [धार्मिक अफीमची इसे मानव मात्र पढ़ सकते हैं, प्रगतिशील कामरेड इसे पूंजीपति पढ़ें] को मौत की सज़ा देकर उनके शारीरिक अंग बेच दिए जाते हैं और समाज में समदृष्टि लाने के लिए चश्मे वालों को [इसे शिक्षक पढ़ें] गोली मार दी जाती है.
जवाब देंहटाएंकविता अच्छी है, फलसफा (दर्शन=vision नहीं कहूंगा) भी. उलटबांसी हमें ख़ास पसंद है मगर विरोधाभास उतना नहीं, वह तो साम्यवाद, माओवाद, जिहादवाद, मुर्दाबाद, इस्लामाबाद आदि का "मिडल नेम" है. ज़्यादा बोल गया होऊं तो भाई समझकर इग्नोर कर देना (कर सकोगे, इसलिए कह रहा हूँ - कुछ बड़े भाई नहीं कर सकते हैं इसलिए उनसे कभी कुछ कहा भी नहीं)
@ स्मार्ट इंडियन
जवाब देंहटाएंभैया, इतनी बढ़िया बातें बताईं आप ने
। अब ऐसी मुद्रा बना काहे हमें बोर रहे हैं? आप के दिए दोनों लिंक देख लिए हैं। दिल दहल गया। .. बस यही कहूँगा कि वाद मानव कल्याण की कसौटी पर खरे उतरने चाहिए, तब तक ही उनका स्वीकार है। मनुष्य वाद के लिए नहीं है, वाद मनुष्य के लिए हैं।
आभार।
सत्य वचन! शुक्रिया!
जवाब देंहटाएंसापेक्षता और संतुलन जरुरी है यह मैं पहले की कह चुकी ..पर जो बात ऐसे भी कही जा सकती थी उसे ऐसे चित्रों से जोड़ कर क्यों देखना जो Shock value लिए हुए हो ?..कारन समझाना बहुत कठिन नही है.
जवाब देंहटाएंकविता तो खैर रोचक {?} है ही, टिप्पणियों का संवाद भी कम दिलचस्प नहीं। कुछ ऐसी टिप्पणियों के लिये तरसता रहता हूँ अपनी पोस्टों पर। हा हा, ये अच्छी कही मैंने, बेशक आप जैसा लिखने का शऊर न हो लेकिन आप जैसी टिप्पणी पाने की आकांक्षा तो रख ही सकता हूँ।
जवाब देंहटाएं"ऊँचाइयाँ तभी बढ़ेंगी"...सच तो!
कम्युनिस्ट मेनिफेस्टॊ..!
जवाब देंहटाएंकिसी से सुना था, जो युवा अठारह में कम्युनिस्ट नहीं हुआ, उसके यौवन में संदेह है। और तीस का होते होते जिसका कम्युनिज्म से मोहभंग नहीं हुआ, समझो उसकी बुद्धि का विकास नहीं हुआ।
यानि आपकी भी अकल दाढ़ आ चुकी है... गुरुजी बुढ़ाय गये।.. निकलिये हम लोगों की जमात से। :)
भई आपके ही शब्दों में, विरोधाभास उलटबाँसी सी लिए...
जवाब देंहटाएंसही शब्द दिये आपने इसे...
हालांकि इस पर चर्चा और विचार मंथन-प्रदर्शन गजब का हुआ है...
अभिव्यंजना भी कमाल चीज़ है...
कई चीज़ें सामने आईं...
च..च..च..लोगों को रंगीन चश्मे की इतनी आदत पड़ गयी है कि खुली आँखों का सच सीधे-सीधे महसूस ही नहीं होता. कविता स्वीकार कर रही है यहाँ कि "अधिकार ही नहीं कर्तव्य भी है.."
जवाब देंहटाएंयह कविता विरोधाभासों पर है और बहुत ही सरल शिल्प में...!
मुझे चिढ मचती है जब कविता को केवल politically correct or incorrect के लेबल से देखा जाने लगता है..पर आदत भी कोई चीज होती है..
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंगहरी बात प्रेरण देती हुयी। मगर आज कौन सोचता है अपने से छोटे व्यक्ति के लिये। धन्यवाद्
जवाब देंहटाएंसुंदर विचार।
जवाब देंहटाएं------------------
शानदार रही लखनऊ की ब्लॉगर्स मीट
नारी मुक्ति, अंध विश्वास, धर्म और विज्ञान।
लवली जी,
जवाब देंहटाएंआपकी बात अपेक्षित भी है और समझ में भी आ गयी है. [वैसे मेरे ज़्यादा बोलने को भाई समझकर इग्नोर कर देने का विनम्र निवेदन आपके लिए भी था.]
पुरुवा के झोंके भी तो
जवाब देंहटाएंमशीन से आते हैं।
मशीनी पुरवाई के झोंको के बीच सोये हम लोगों के सपने भी मशीनी से लगते है... मशीनी सपने देख कर डर लगता है कभी कभी.
कविता ,द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद ,उत्तर आधुनिकता ,स्यादवाद ,उम्र और कम्युनिज्म का अंतर्सबंध !
जवाब देंहटाएंक्या कहने ! एक ही ब्लॉग पोस्ट में इतना कुछ -बड़ों के बीच हम तो सहसा ही बौने हुए !