बुधवार, 17 अगस्त 2011

आह्वान

समुद्र मंथन के समय देवताओं और दैत्यों से यदि चरित्र प्रमाण पत्र मांगे गए होते तो कभी नहीं हो पाता. यदि आप सहमत हैं कि भ्रष्टाचार समाप्त होना चाहिये तो आगे आइये. ऐसे मौके बार बार नहीं आते. यह राष्ट्र के समग्र जीवनस्तर का मसला है. व्यापक परिवर्तन के अपने तर्क होते हैं. क्षुद्र मानवीय तर्क वहां नहीं लगते. अमृत विष जो कुछ भी निकलेगा, संभाल लेंगे, मंथन तो हो.

कवि मित्रों! क्या केवल प्रेम कविता रचेंगे? इसमें इतने छंद  जोड़ें कि जन जन का आह्वान गीत बन जाय:


रत्न छिपाए बहुत दिनों तक भ्रांत रहा बदमाश समंदर

हो जाने दो जम कर मंथन वृद्ध रहा ललकार भयंकर

क्या होगा जो उफन बहेगा गरल हलाहल खार समंदर?

गले में धारण कर के जीना अमृत की लहकार कलंदर.

11 टिप्‍पणियां:

  1. जो तब नहीं माँगे गये थे, अब माँगे जा रहे हैं।

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  2. यही एक मौका है, इसे खो देंगे तो लुट ही जायेंगे. आपसे पूर्णतः सहमत. "हो जाने दो जम कर मंथन वृद्ध रहा ललकार भयंकर" साधुवाद.

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  3. ज्‍यादातर तो यही तमाशा देखने टीवी पर चिपके बैठे हैं.

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  4. जब धरती ने बीज छिपा लिए थे, तब राजा पृथु ने उसे मारने शास्त्र उठाया |

    धरती "स्त्री" भी, और "धरती माँ" भी - ऊपर से "गौ" रूप ले कर भागी कि धर्म रक्षक - स्त्री, ऊपर से माँ, ऊपर से गौ को नहीं मार सकते | पर पृथु ने कहा - कर्त्तव्य अंध धर्म से बढ़ कर है | मैं गौ ह्त्या ले सकता हूँ, स्त्री हत्या भी और मात्रु हत्या भी - परन्तु मैं तुझे मार कर अपनी प्रजा का पोषण करूंगा | फिर अपने योगबल से उनके रहने के लिए नयी धरती की रचना भी कर लूँगा |

    तब धरती ने अपने कारण गिनाए, और पृथु ने उनका उपाय किया | फिर जिस जिस चीज़ को धरती से पाया जाना था - उस उस तरह के बछड़े बन उस गौ रुपी धरती का दोहन किया गया |

    जब स्थितियां इस स्थिति तक आ गयी हों, तब समय हर पाप विरोधी को तोलने का नहीं होता, तब समय होता है मंथन का | आगे विष को न्यूट्रलाइज करने का उपाय भी खोज लिया जाएगा |

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  5. समंदर को मथो तो पहले -
    भ्रांतियों से भ्रमित होना छोडो अब
    बहुत हलाहल निकलेगा पहले
    विष से यूँ डरना छोडो अब

    अब कौनसा अमृत में जी रहे हो यह भी देखो तो
    भ्रष्टाचार के समुद्र ने कितने रत्न छुपाये - देखो तो
    जो तुम्हे सिखा रहे हैं विष से बचना - देखो तो
    रोज़ किस तरह तुम्हे ज़हर दे रहे - देखो तो ...

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  6. अब होने दो मैदान में रामलीला निरंतर |
    करो दहन लंका वह खुद को समझने लगा है दसकंदर ||

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  7. एक साधारण तुकबंदी, आपकी कविता से प्रभावित होकर आचार्य जी:
    पृथ्वी से बाहर तुम मुझको केवल एक टेक भर दे दो
    और पृथ्वी से बड़ी सी लाठी मेरे हाथों में तुम धर दो
    देखो मैं फिर कैसे इस धरती को उलट के रखता हूँ
    बहुत ही साधारण है करना जब चाहूँ कर सकता हूँ.
    आर्किमिदीस का यह कहना इक बूढ़े के मुँह से सुन लो,
    टेक बनाओ उसको और मिलकर तुम सब लाठी बुन लो!!

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  8. नहीं झुकेगे हम उनसे आये अब कोई धुरंधर,
    कर देंगे हम भ्रष्टों को बाहर बन के पुरंदर .

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  9. कवि मित्र आयें और यह कविता पूरी करें : )
    वैसे कविता की जरुरत ही अब नहीं रह गयी है ....

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  10. @... तो कभी नहीं हो पाता.

    कितने अवतार, पीर, पैग़म्बर, गुरू, विचारक, सुधारक, नबी, कॉमरेड आ आ कर चले गये, कभी कुछ हुआ क्या? हम करेंगे तभी होगा, तभी टिकेगा वरना नहीं। अपने प्रिय संत के शब्दों में कहूँ तो, "गुरु की करनी गुरु खायेगा, चेले की करनी चेला ..."

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