हर अदमी परेसान ह, हर अदमी त्रस्त ह
मार पटक के जे कहे पन्द्रह अगस्त ह।
आज स्वतंत्रता दिवस है। मुझे स्वयं को या किसी को बधाई देने का मन नहीं कर रहा। कल से ही चकाचक बनारसी की काशिका में रची उपर्युक्त पंक्तियाँ मस्तिष्क में घन मार रही हैं। इसे निराशा कहें, कुंठा कहें या चाहे जो कहें, वस्तुत: मैं निराश हूँ और जबरन दाँत चियारते किसी को शुभकामना सन्देश देना कष्टदायी लग रहा है। स्वतंत्र माने ‘अपना तंत्र’ – स्वाधीन जिसका कि पराधीन के उलट अर्थ ‘अपने अधीन’ होता है, इसके पासंग नहीं आता। 64 वर्ष हो गये हमें पराधीनता से मुक्त हुये और हम ‘स्वतंत्रता’ को लेकर कोई बहानेबाजी अब नहीं कर सकते। अर्थ यह कि जो भी स्थिति है, हम उसके लिये स्वयं उत्तरदायी हैं। सुराज तो छोड़ दें, स्वराज की स्थिति भी है?
(पाँचवी में पढ़ता था जब इस अवसर पर पहली बार स्टेज पर पिताजी द्वारा तैयार किया अंग्रेजी भाषण पढ़ा था। उसका अंत कुछ इस तरह का था – We, the children, shall be future units of the union which is India. In our strength will be strength of the nation and we shall strive for it. उस समय नहीं पता था कि संघ (union) और गणराज्य (republic) में क्या अंतर होता है? बस रटने के बाद उनकी समझावन से यह लगा था कि it स्वयं और देश दोनों की शक्ति के लिये प्रयुक्त हुआ था और 3-4 मिनट लम्बे भाषण के इसी अंतिम अंश पर मैं लड़खड़ाया था। आज लगता है कि हमारी पूरी पीढ़ी ही लड़खड़ा गई है)।
मुख पर कालिख पोते निर्लज्ज भंडों की टोलियाँ हमारे मुँह पर थूक रही हैं और हम हैं कि पोंछे कि न पोंछें, यही सोच रहे हैं। वे कह रही हैं कि उन कलमुहों के काले कारनामों पर अंकुश लगाने की बात तक करने वालों को मनुष्य नहीं निष्पाप देवदूत होना होगा। अण्णा हों या रामदेव, उनके चरित्रहनन में लगे चमचों और उनके मूक समर्थक सत्ताधीशों को न अपने किये पर लाज है और न इस चुनौती की परवाह कि ज़रा अपने दामन को भी तो देख कर बोलें। अण्णा और रामदेव तो फिर भी कुछ हैसियत रखते हैं, ज़रा सोचिये अगर कोई आम आदमी भ्रष्टाचार के प्रश्न उठाता तो ये क्या करते? तुमने हाउस टैक्स का मूल्यांकन ठीक से नहीं कराया, तुमने तीन साल पहले बिजली के मीटर में गड़बड़ी की थी ... आदि आदि जाने कितने ही घेरे घेर कर ये उसे चन्द घंटों में ही पस्त कर देते!
फिर भी हम उनके बेहूदे तर्कों को सुन रहे हैं और अब लोग कहने भी लगे हैं कि इसमें इन दोनों का स्वार्थ है – एक को एन जी ओ को बचाना है तो दूसरे को फ्रॉड से अर्जित सम्पत्ति साम्राज्य की चिंता है। जब तक इन लोगों ने मुहिम नहीं छेड़ी थी तब तक ये ठीक थे, अंगुली उठाते ही इन पर हाथ पड़ने लगे। कैसा ‘स्व-तंत्र’ है यह जो हर व्यक्ति को भ्रष्ट होने की पूरी स्वतंत्रता देता है ताकि बाद में वह बड़े घोटालों पर कुछ कहने लायक भी न रहे?
मालिकों ने जनता को पालतू कुत्तों जैसा बना दिया है। मतदान के रूप में लोकतंत्र का जो व्यवहार पक्ष सामने है वह अपने आप में इतना अधूरा और दोषयुक्त है कि उससे किसी ‘लगातार सार्थक परिवर्तन’ की प्रक्रिया के प्रारम्भ होने और उसके सतत जारी रहने की कोई आशा नहीं की जा सकती। सत्ता का नहीं, भ्रष्टाचार का विकेन्द्रीकरण हुआ है। सुनियोजित भ्रष्ट तंत्र की पैठ गाँवों तक हो चुकी है और आम आदमी की हालत वही है जो एक भद्दी कहावत में बयाँ होती है – मुँह में पान और _ड़ में बाँस माने मुँह भी लाल और _ड़ भी। लाली लाली के फर्क की और दर्द की मीमांसा आप करते रहिये और उधर लूट तंत्र चलता रहे।
कुछ लोग कहते हैं कि यह तो जनता का ही शासन है और जनता भ्रष्ट है। यह एक आदर्शवादी कथन है जो नमक में दाल पर आँख मूँदता है और दाल में नमक पर नाक भौं सिकोड़ता है – अरे कम है, अरे अधिक है। ये ठीक नहीं है। यह कथन सुनने में बड़ा लुभावना लगता है जिसकी तार्किक परिणति वही होती है कि हमारे ऊपर अंगुली भी उठाने के लिये तुम्हें आदर्शों का आदर्श सुपरमैन होना होगा (होने के बाद की तो तब देखेंगे, अभी तो तुम्हारा दामन ही दागदार है!)
एक वर्ग ऐसा भी है जो इसे मध्यवर्ग का सुरक्षात्मक आक्रमण मानता है ताकि उसके सुविधाजीवी स्वभाव और जीवनशैली पर कोई आँच न आये। एक वर्ग ऐसा भी है जिसे यह सब नाटक जंगलों में फल फूल रही ‘क्रांतिकारिता(?)’ के विरुद्ध सेफ्टी वाल्व जैसा लगता है माने कि अण्णा या रामदेव जैसे लोग सफल हो गये तो हो गई क्रांति की ऐसी तैसी! जितने दिमाग उतने तर्क, करने धरने को कुछ नहीं और सबकी _ड़ लाल (मुँह में क्रांति और पान की लाली तो है ही)।
इन सब बुद्धिभोजियों के पास कोई विकल्प नहीं लेकिन कोई कुछ करेगा तो दंड अवश्य पेलेंगे। पिछ्ले 64 वर्षों में इन सब ने बस व्यर्थ की बहसें की हैं और जब भी कोई अलग सी बयार बही हैं, पहली उबासी भी इन्हीं लोगों ने ली है।
ऐसे जन जाने अनजाने सत्ताधीशों के पैदल बन जाते हैं और उनकी चालों के आगे आगे ये चलते हैं। परिवर्तन की किसी भी चाल को ये लोग पाखंड या निहित स्वार्थ का खेल बताते हैं। यह सब कहते वे अपने ही उन तर्कों को भूल जाते हैं जिनके अनुसार पाखंड और स्वार्थ के खेल अधिक दिन नहीं चल पाते। भैया! अब तक आप खेलते खाते रहे (और खेलते खाते जा रहे हो), ज़रा उन्हें भी तो अवसर दो। लोकतंत्र है, इतना तो समझो।
भ्रष्टाचार के विरुद्ध आन्दोलनों का विरोध करने वालों या उसके घटकों पर प्रहार करने वाले निठल्ले बुद्धिभोजियों के लिये रोटी, कपड़ा और मकान की पूर्ति की चिंता में व्यस्त मैं, एक मध्यवर्गी, यही कहूँगा।
हाँ, हम एक साफ सुथरा वातावरण और समाज चाहते हैं। हम चाहते हैं कि हम जो टैक्स जमा करते हैं, उसका यहीं सदुपयोग हो न कि वह घूम घाम कर विदेशी बैंक खातों में पहुँचे। हो सकता है कि हमने छोटी टैक्स चोरियाँ की हों, उनका हिसाब तुम जब चाहे कर सकते हो लेकिन हमें तुम्हारी वे मोटी चोरियाँ एकदम बर्दाश्त नहीं हैं जिनका कि न कोई हिसाब था और न है, जो बस बेहिसाब हैं। हम पाखंडी हैं लेकिन हमसे अब बर्दाश्त नहीं होता। हम ऐसे ही हैं और वह शक्ति हैं जिसकी तुम उपेक्षा नहीं कर सकते। तुम्हें लफ्फाजी और खुरपेंची चालों को छोड़ कर कुछ न कुछ ठोस और सार्थक करना ही होगा। सँभल जाओ, बहुत हुआ (अब आपातकाल की न सोचने लग जाना!)
नेत्रोन्मीलन? देश की वर्तमान स्थिति/दृष्टि का सटीक विश्लेषण। लेओनार्डो ड विंची के नाम से याद किया जाने वाला एक कथन है:
जवाब देंहटाएं“अज्ञान का अन्धकार ही हमें भटकाता है. ऐ नश्वर जीव, अपनी आंखें खोलो!”
धूर्तों के हाथों आज होगा सरेआम राष्ट्रीय-ध्वज का अपमान... लालकिले पर..
जवाब देंहटाएंजमा होंगे पहली पंगत में... चोरों के सिरमोर... ठगों की टोली, चांडाल- चौकड़ी (सोनिया द्वारा नियुक्त सरकार खेवनहर)
ऐसा लगेगा जैसे किसी अबला का शील-भंग का प्रयास मिलकर हो रहा है...मतलब 'सामूहिक बलात्कार'
दुष्ट .. नीच... धूर्त.... मक्कार... पाजी.... इतनी ही गालियाँ दे सकता हूँ... बाक़ी के उच्चारण का अभ्यासी नहीं... जिसको अभ्यास है वह अपने आक्रोश का जरूर अभ्यास करें.
अन्ना जी ने अपने बाषणों में पीएम् 'मनमोहन' को एक नयी पदवी दी 'पंथ प्रधान' मतलब भ्रष्टाचारियों के पंथ के मुखिया ........ आज से उन्हें हम 'प्रधानमंत्री' नहीं 'पंथ प्रधान' ही कहेंगे.
क्योंकि उनसे 'प्रधानमंत्री' शब्द/पद की गरिमा समाप्त होती है.
जैसे 'नेता' शब्द की गरिमा आज के दुष्ट नेताओं ने समाप्त कर दी. आज 'नेता' का अर्थ चोर, मतलबी, मक्कार, चालाक और धूर्त हो गया है.
आपके इस क्षोभ में कहीं अपना भी कैथार्सिस हो जाता है। नपुंसकता का अहसास व्यथित करता है। खुद को विभीषण कहकर गाली दे लेते हैं और समझाने की कोशिश करते हैं कि "समय आने पर" राम के पाले में "खिसक" जायेंगे!
जवाब देंहटाएंइस बार क्या हम उस "Critical Mass" को पा गये हैं? क्या राम की सेना पुल बना रही है??
आचार्य ........ क्या इतनी बड़ी पोस्ट लिखने की इज़ाज़त ली थी... आपको अपनी पोस्ट मात्र ३ पैरो में ही समाप्त करनी थी..... आज पन्द्रह अगस्त है
जवाब देंहटाएंमार पटक के जे कहे पन्द्रह अगस्त ह।
सही और उत्तम | डरपोक मध्यम वर्ग बस डर के भागने के बहाने तलास रहा है कभी रोजी रोटी के नाम पार तो कभी मुहीम चलाने वालो से ही सवाल कर , अच्छा हुआ जो ये पीढ़ी आज हुई ६४ साल पहले पैदा होती तो आज भी हम गुलाम ही होते |
जवाब देंहटाएंदुर्भाग्य है, न जाने किसका?
जवाब देंहटाएंदेश है, न जाने किसका?
हर अदमी परेसान हौ, हर अदमी त्रस्त हौ
जवाब देंहटाएंमारा पटक के जे कहे पन्द्रह अगस्त हौ।
...स्व0 चकाचक बनारसी जिंदा होते तो आज के हालात पर क्या लिखते सोचकर की रूह कांप जाती है। ये पंक्तियां कम से कम 20-25 वर्ष पहले लिखी गई हैं। अब उनके जैसा स्वतंत्र, निर्भीक और बिंदास लिखने वाला कहाँ..! बनारस में लोग बाग उन्हीं की कविता की पैरोडी में अपने मन की बात चकाचक जोड़ कर कह देते थे। जैसे आपकी यह पोस्ट पढ़कर लिखने का मन हो रहा है...
हमरे मन कs बतिया लिखला हौवा तू विद्वान चकाचक
संभल के भैया संभल के बाबू हौवन सब हैवान चकाचक।
वर्तमान समय निश्चय ही दुख देता है...
जवाब देंहटाएंभाई गिरिजेश जी ! बिलकुल सहमत बानी राउर से . अब दाँत चियारे के समय नई खे. सुलगत अगिया के भक-भक जराए के अवसर आ गइल बा .
जवाब देंहटाएंकल टीवी पर जिस अंदाज में कंगरेसिहा छटंकू अन्ना हजारे के लिये तू तड़ाक से बोल रहे थे उस समय तो उन लोगों के लिये यही मन में आया था - मार पटक के।
जवाब देंहटाएंरक्त वर्षों से नसों में खौलता है,
जवाब देंहटाएंआप कहते हैं, क्षणिक उत्तेजना है...
नीति नियामक जब नीतिह्न्ता बन जाते हैं तो यही होता है. अब तो भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारी भी कहने लगे हैं--' सम्भवामी युगे-युगे'
बहुत सही कहा है, राम देव जी या अन्ना हजारे जैसे मजबूत लोग ही भ्रष्टाचार का विरोध कर पा रहे हैं नहीं तो सब कुछ महसूस करने के बाद भी आज आम लोंगो की हिम्मत नही थी की वे कोई विरोध इस व्यवस्था के खिलाफ कर सके .
जवाब देंहटाएंआपकी पोस्ट नें मन को छू लिया,आभार,.