मंगलवार, 20 सितंबर 2011

मातृ पितर और पुत्र पर्व - जिउतिया


आश्विन (क्वार, कुआर) माह का कृष्ण पक्ष पितृपक्ष कहलाता है। बहुत प्राचीन काल से ही भारत के आर्यगण इस दौरान अपने पितरों को श्रद्धा सुमन अर्पित करते रहे हैं, उनकी स्मृतियों को जीते रहे हैं। भारतीयों का यह पक्ष इतना प्रसिद्ध रहा कि अलेक्जेंडर (2004) फिल्म में वृद्ध टॉलमी से कहलवाया गया है कि भारतीयों का उनके पूर्वजों से जुड़ाव हानिकारक स्तर तक था।
पितृपक्ष में ही अष्टमी को जीवित्पुत्रिका ऐसी स्त्री जिसके जीवित पुत्र हों (जिउतिया, जितिया, जितीया आदि) व्रत का विधान है जिसमें पुत्रवती स्त्रियाँ एक दिन का निर्जला उपवास रखती हैं और नवमी के दिन स्त्री पक्ष के पितरों (मृत सास, सास की सास आदि) को अर्पण, तर्पण करने के पश्चात अन्न ग्रहण करती हैं। यह व्रत पूर्वी उत्तरप्रदेश, पश्चिम बिहार, मिथिला और नेपाल में प्रचलित है। कुछ अवध क्षेत्रों में भी इसका प्रचलन है।
लोग इसे पुत्रों की दीर्घायु की मंगल कामना का पर्व मानते रहे हैं। जैसा कि पहले के इस आलेख में मैंने बताया था कि कतिपय स्नेही विद्रोही मातायें पुत्रियों के लिये भी इसे रखती आई हैं। स्त्री के अस्वस्थ होने की स्थिति में यह व्रत पति रखता है। समय के साथ अब इस व्रत का तप पक्ष क्षीण हो चला है और स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुये कतिपय स्त्रियाँ अब इस दौरान फलादि ग्रहण कर लेती हैं।

लोककथा:
लोक की रूढ़ परम्परा के अनुसार ही इस व्रत की महात्म्य कथा है। चील और सियारन (चील्हो - सियारो) सखियाँ थीं। विशाल बरगद के ऊपर चील का घोंसला था और जड़ की माँद में सियारन रहती थी। एक दिन चील को व्रत की तैयारी करते देख सियारन ने भी व्रत रखने की ठानी। चील ने मना किया कि यह व्रत बहुत ही संयम नियम का है और तुम्हारी कच्छ भच्छ की प्रवृत्ति के कारण निर्वाह नहीं हो पायेगा लेकिन सियारन न मानी और उसने भी निर्जला व्रत रख लिया। दिन तो किसी तरह बीत गया लेकिन रात को उसे भूख सहन नहीं हुई। पास के गाँव से एक मेमने को ला कर खाने लगी। उसके चबाने का स्वर चील को सुनाई दिया तो उसने ऊपर से ही कहा - कर दिया न सत्यानाश! भूख नहीं सही गई तो इस समय हाड़ चबा रही हो? सियारन ने उत्तर दिया - नहीं सखी! मारे भूख के मेरी हड्डियाँ ही कड़कड़ा रही हैं। चील ने नीचे आकर सब देख लिया और सियारन को धिक्कारती उड़ गई।
 उस जन्म में सियारन की जितनी भी संतानें हुईं, उसके इस पाप के कारण असमय ही मरती गईं जब कि चील की वंशवरी बढ़ती गई। अगले जनम में दोनों मनुष्य हुईं। पूर्व सियारन का विवाह राजा से हुआ और चील का मंत्री से। पूर्वजन्म के पाप के कारण रानी की संतानें एक कर एक मरती गईं जब कि मंत्री के सात पुत्र हुये। मारे जलन के रानी ने सातों पुत्रों को मरवा कर उनकी देह फिंकवा दी और उनके सिर टोकरियों में बन्द करा मंत्री के यहाँ भिजवा दिये। जब टोकरियाँ खोली गईं तो सभी सोने और जवाहरात से भरी थीं। उसी समय मंत्री के सभी पुत्र भी अपने अपने घोड़ों पर सवार आ गये।
रानी ने सुना तो उसे बहुत आश्चर्य हुआ। वह स्वयं मंत्री के यहाँ गई और उसकी पत्नी से पूछा। पूर्वजन्म के तप के कारण मंत्री की स्त्री को सब याद था, उसने सारी कथा सुनाई और रानी को जिउतिया व्रत रखने को कहा। रानी ने संयम नियम के साथ व्रत रखा और उसके पुण्य स्वरूप उसे कई पुत्र हुये।

पुराण कथा:
नागवंश गरुड़ से त्रस्त था। वंश की रक्षा के लिए उन्हों ने गरुड़ से एक समझौता किया कि प्रतिदिन उसे एक नाग खाने को देंगे जिसके बदले गरुड़ नागों का उच्छृंखल आखेट नहीं करेंगे। समझौते के अनुसार व्यवस्था हो गई लेकिन प्रतिदिन किसी न किसी नाग घर में रोना पिटना मचता क्यों कि उस घर से एक पुत्र गरुड़ का आहार बनने को जा रहा होता। उसी काल में गन्धर्वराज जीमूतवाहन हुये। वे बड़े धर्मात्मा और त्यागी पुरुष थे। युवाकाल में ही राजपाट छोड़ वन को प्रस्थान किये। वन में उन्हें रोती हुई नागमाता मिली जिसका पुत्र शंखचूड़ अगले दिन गरुड़ के आहार के लिये भेजा जाने वाला था। दयालु जीमूतवाहन ने स्वयं को प्रस्तुत किया। वे लाल कपड़ा लपेट उस शिला पर लेट गये जिस पर से गरुड़ अपना आहार उठाता था। गरुड़ आया और उन्हें लेकर उड़ चला। उसे आश्चर्य हुआ कि वह नाग मृत्यु के भय से चिल्लाने रोने के बजाय एकदम शांत था। जब गरुड़ ने कपड़ा हटाने पर नाग के स्थान पर जीमूतवाहन को पाया तो कारण पूछा। उन्हों ने सब सच सच बता दिया। गरुड़ ने प्रभावित हो कर उन्हें छोड़ दिया और नागों को अभय आश्वासन दिया। तब से ही यह व्रत प्रारम्भ हुआ।

विधि:
अष्टमी के दिन भोर में स्त्रियाँ उठ कर बिना नमक या लहसुन आदि के सतपुतिया (तरोई) की सब्जी और आटे के टिकरे बनाती हैं। चिउड़ा और दही के साथ इन्हें दिवंगत सास और चील्हो सियारो को चढ़ाया जाता है और सभी संतानों के साथ उसी का आहार लिया जाता है। इसे 'सरगही' कहते हैं। पानी पीने के साथ ही  निर्जला व्रत प्रारम्भ होता है।
तिजहर को बरियार की झाड़ी ढूँढ़ कर उसकी सफाई कर पूजा की जाती है और सन्देश भेजा जाता है। नवमी के दिन सूर्योदय के पश्चात हालाँकि व्रत का समापन अनुमन्य है लेकिन स्त्रियाँ व्रत को आगे बढ़ाती हैं। इसे 'खर करना' कहते हैं।  मान्यता है कि जो स्त्री जितना ही खर करेगी उसका पुत्र उतना ही सुरक्षित होगा, उसका उतना ही मंगल होगा।
व्रत समापन के पहले स्नानादि उपरांत नये वस्त्र धारण कर स्त्रियाँ 'जाई' तैयार करती हैं। यह दिवंगत सास, उनकी सास आदि पितरों के लिये अर्पण होता है। जाई बनाने में नये धान का चिउड़ा, साँवा (एक तरह का अन्न जो एक पीढ़ी पहले तक चावल की तरह खाया जाता था), मधु, गाय का दूध, तुलसी दल, उड़द और गंगा जल का प्रयोग होता है। इसे गाय के ऊष्ण दूध के साथ निगला जाता है। इससे मातृपक्ष के पितरों की आत्मायें तृप्त होती हैं और वंशरूप पुत्र के उत्थान, प्रगति और सुख समृद्धि के लिये आशीष देती हैं।
एक कथा एक स्त्री के बारे में बताती है जिसके पुत्र को अजगर ने निगल लिया था। उसने जिउतिया व्रत रखा और जैसे जैसे गर्म दूध के साथ जाई निगलती गई, अजगर के पेट में दाहा बढ़ता गया। अंतत: उसने पुत्र को जीवित उगल दिया। जाई को चबाया नहीं जाता जिसका कारण यह है कि मेमना चबाना भी सियारन के व्रत भंग का एक कारण था।
जिउतिया 
स्त्रियाँ रसोईघर की चौखट को अन्नपूर्णा और मातृपक्ष के पितरों की स्मृति में टीका देती हैं। स्त्रियाँ पुत्रवती होने के प्रतीक स्वरूप गले में धागे से बनी 'जिउतिया' पहनती हैं जिसमें पुत्रों की संख्या से एक अधिक गाँठ लगाई जाती हैं। अधिक वाली गाँठ जिउतबन्हन की गाँठ कहलाती है जिसे जीमूतवाहन नाम से समझा जा सकता है। स्वयं पहनने के पहले उसे कुछ देर पुत्र को पहना कर रखा जाता है। धनाढ्य स्त्रियाँ बहुमूल्य धातुओं से बनी जिउतिया भी पहनती हैं। उसके बाद विविध पकवानों के साथ पारण किया जाता है।
आज भी गाँव गिराम में रसोई की चौखट पर गृहस्वामिनी का बैठना निषिद्ध है क्यों कि उस चौखट को मातृपक्ष के पितरों का प्रतीक माना जाता है। कोई बैठी दिख जाय तो उलाहना दिया जाता है - सासु के कपारे बइठल बाड़ू!

एक और कथा मिलती है जिसमें परीक्षित पुत्र बरियार (?) का सन्दर्भ मिलता है। स्त्रियाँ व्रत के दिन बरियार नामक पौधे का पूजन करती हैं और राजा रामचन्द्र के पास अपने पुत्र की मंगल कामना हेतु सन्देश भेजती हैं। परीक्षित पुत्र जनमेजय का नाग यज्ञ प्रसिद्ध है। जीमूतवाहन की कथा भी नागों से सम्बन्धित है। एक प्रश्न मन में उठता है कि क्या परीक्षित का कोई दूसरा पुत्र भी था जिसने भाई जनमेजय द्वारा प्रतिशोध स्वरूप आयोजित नागों के सम्पूर्ण विनाश यज्ञ में नागों का पक्ष ले उन्हें बचाया था जिसकी स्मृति आज भी बरियार (बली) पुत्र के रूप में परम्परा में मिलती है?
 यह व्रत नाग परम्परा का बदला हुआ रूप है जिसके मूल में वंश संहार की त्रासदी का सामना करने और उससे उबरने के स्मृति चिह्न हैं। हो सकता है कि नागों ने वन में बरियार के झाड़ झंखाड़ो  की आड़ ले स्वयं को बचाया हो। वनवासी राम का जंगली जातियों से स्नेह सम्बन्ध जगप्रसिद्ध है। आज भी वर्ण व्यवस्था से बाहर की कितनी ही जनजातियों के लिये राम आराध्य हैं। 
नये धान, साँवा और उड़द का प्रयोग इस व्रत को कृषि परम्परा से भी जोड़ता है। धान्य के घर में आने पर गृहस्वामिनी का उत्सव! ऐसा उत्सव जो तप से आपूरित है ताकि वंश सुरक्षित रहे और पितर तृप्त। सांस्कृतिक रूप से समृद्ध पितृ समाज परम्परा के इस रूप को यह व्रत उत्सव अक्षुण्ण रखे हुये है।  

22 टिप्‍पणियां:

  1. दस्तावेजीकरण के लिए आप साधुवाद के पात्र हैं ...जल्दी में हूँ शायद फिर आऊँ तो कुछ जोडूं भी :)
    नवमी के दिन स्त्री पक्ष के पितरों (मृत सास, सास की सास आदि)
    स्त्री पक्ष के तो माँ पिता हुए ?

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  2. धन्यवाद। जब स्त्री विवाहित हो ससुराल आ जाती है तो ससुराल के सम्बन्ध उसके हो जाते हैं। स्त्री पक्ष के पितर से अर्थ ससुराल की स्त्रियों से है न कि मायके के।

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  3. @कतिपय स्नेही विद्रोही मातायें पुत्रियों के लिये भी इसे रखती आई हैं
    विद्रोही माताये नहीं कहिये ये वो माताये है जो सारे पितरो की की गई गलतियों को सुधार रही है :) कोई भी व्रत और पूजा संतानों के लिए होनी चाहिए ना कि केवल पुत्रो के लिए | जहा तक मेरी जानकारी है कि सभी महिलाए ये व्रत नहीं रखती है घर कि सबसे बड़ी महिला अक्सर सास लोग ही इस व्रत को रहती है घर के सभी पुत्रो के लिए ( पता नहीं मेरे घर तो ऐसा ही होता है व्रत तो आज भी बस दादी ही रहती है )

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  4. एफवायआई: फेमिनिस्ट जनता ऐसे व्रतों के खिलाफ है !

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  5. कई भूल चुकी बातों को याद दिलाने के लिये धन्यवाद ..

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  6. डॉ.पांडुरंग वामन काणे के अनुसार ,'यह शालिवाहन राजा के पुत्र जीमूतवाहन की पूजा है -नारियों द्वारा पुत्रों और सौभाग्य की प्राप्ति के लिए किया जाता है ...

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  7. @ Abhishek Ojha
    This is an 'ist'less post.:)
    As rightly said by Arvind ji, just a documentation. And some hypotheses regarding linking the unsaid, rather forgotten facts of antiquity.

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  8. माँ रखती आयीं है हमेशा से ये व्रत।
    कोई ४ बार इस कथा का पाठ व पूजा करने का अवसर भी मिला है बहुत बचपन में।

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  9. व्रत किया, कथा भी पढी,पर इतने विस्तार से सब जानने का सुअवसर आपके कारण मिला .... सो ह्रदय से आभार...

    कथा में द्रौपदी के संतानों के वध का भी उल्लेख है, यदि इसे भी इसमें समाहित करें तो,बड़ा अच्छा हो...

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  10. जानकर अच्छा लगा! बदलते समय के साथ बहुत से पारम्परिक त्योहार शायद इसी तरह चिट्ठे के पन्नों में मिला करेंगे।

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  11. इस लेख के लिए हार्दिक आभार .....ऐसी और पोस्ट्स की प्रतीक्षा रहेगी

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  12. maa se suni huii kathaa yaad hai
    patniya to itana vistar se katha nahi sunati aaj kal ke putro ko is aalekh ke liye aabhaar aapko va maatripaksh ke is kathin tap ko bhi naman

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  13. परम्पराओं पर खोजी पोस्ट के लिए आभार !

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  14. एक असीम आस्था के साथ मैं यह व्रत बेटा और बेटियों के लिए करती हूँ … कथा का विस्तार बहुत रोचक और ज्ञानवर्धक है

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  15. 6 saal se vrat kar rahi hu, kisi kar an ye vrat agar nahi continue kar payi to kya hoga

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  16. 6 saal se vrat kar rahi hu, kisi kar an ye vrat agar nahi continue kar payi to kya hoga

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    1. माता संतान हेतु आशीर्वाद होती है, उनके कल्याण हेतु जाने कितने व्रत उपवास करती है। ऐसी माँ से यदि किसी कारण वश व्रत छूट भी जाये तो संतान को कोई अनिष्ट नहीं होना । निश्चिंत रहें।

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  17. किसी पुस्तक में कथा इतने विस्तार से उद्धृत नहीं है।अतः प्रतिवर्ष यही पढ़ने चली आती हूँ।

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