रविवार, 16 अक्टूबर 2011

मोलई माट्साब - अंत

पिछले भाग से जारी ...
क्षेपक:
(मोलई माट्साब की जिन्दगी जाने कितने क्षेपकों से भरी थी। एक नमूना यह है)।

बैसाख के महीने में स्थानीय चुनाव आ पहुँचे। कस्बे के लिये न तो चुनाव कोई नई बात थे और न उनमें खानदानी पार्टी का हमेशा जीतना लेकिन इस बार खास बात यह हुई कि लाल पार्टी ने सेंध लगाना तय किया। इस दिशा में जमीनी स्तर पर काम और श्रीमार्क्साय नम: करने के लिये बोधी कामरेड चुने गये और स्थानीय चुनाव में पार्टी प्रत्याशी बना दिये गये। पब्लिक ने इसे मजाक की तरह लिया – ऐसे चुनावों में दलगत बातें! बोधी कामरेड खुद विधानसभा से नीचे उतरने के पक्ष में नहीं थे लेकिन पलट बूरो को ज़मीनी समझ नहीं थी, किताबी हिसाब से कदम एकदम सही था और बोधी कामरेड अनुशासनबद्ध थे, लाल बिगुल बज उठा। पहली बार कस्बा पोस्टरों से लाल लहा हो उठा।

बोधी कामरेड किसी उपयुक्त अवसर की तलाश में थे जब कि लोहा लाल हो और हँसिया हथौड़ा बनाने को वार किये जायँ। दिन कम रह जाने पर उन्हों ने खुद कुछ करने का निर्णय लिया और जट्टा नट्टिन के सौजन्य से नट्टिन टोले में आग लग गई – बैसाखी आग में सब स्वाहा हो गया। बोधी कामरेड को सहायता कर वोट बटोरने की ललक नहीं थी। वे इतने मूर्ख नहीं थे। उन्हें तो नटों से बच रही पब्लिक को कुछ दिखाना था लेकिन इस चक्कर में वह एक महामूर्खता कर चुके थे। ऐसा सोचते और करते वे मोलई माट्साब को भूल गये थे।

आग दुपहर के पहले लगी थी। रस्मी सहानुभूतियों के समाप्त हो जाने के बाद अगले दिन नट्टिन टोले में बोधी कामरेड की सभा होनी थी लेकिन किसी भी हाल में वह साढ़े सात बजे से पहले नहीं हो सकती थी और साढ़े सात माने मोलई माट्साब का टोले में आगमन!
माट्साब को अपना अर्थ साम्राज्य ढहता नजर आया। बंजारा किस्म के नट जाने क्यों इतने वर्षों से यहाँ टिके हुए थे लेकिन अब? शिवस्थान के पीपल तले चबूतरे पर वह खड़े हो गये और नटों को बुलाने लगे – ए मकोदर! लछमिनिया रे! ए ढैंचिया! विपत्ति थी लेकिन माट्साब तो रोज की चीज थे! पब्लिक जमा हो गई। माट्साब ने सामने के जनसमूह को देखा और उन्हें ज्ञान की उपलब्धि हुई।

पीपल मूलधन की तरह था और चबूतरा सूद। पीपल की सरपरस्त छाँव में और चबूतरे के ठोस मजबूत आधार पर उनका वजूद खड़ा हुआ था, जिन्हें चारो ओर से गरीबी, भूख, रोग और दुख की बाढ़ घेरे हुये थी। लहरें भयानक हुईं तो पहले चबूतरा बहेगा, फिर पीपल ढहेगा। बेसिक नियम याद आया – खूँटा न हो तो भैंसिया के हेराते देर नहीं लगती। उन्हें किसी उपन्यास का वाक्य याद आया – राम करुणा वरुणालय हैं। भीतर करुणा लहरा उठी। सामने संतप्त जनों की वरुणा थी। बस आलय की कमी थी। खूँटा मास्टर! खूँटा!! और मोलई माट्साब राम और बुद्ध की करुणा परम्परा से जुड़ गये – साल भर का सूद माफ। हर घर को झोंपड़ी के लिये चार बाँस और चार बोझा फूस मिलेगा (उनकी भरपाई के बारे में भविष्य देखते हुये वह चुप रहे)।
रही सही कसर परम चेले सुरेसवा उर्फ सेठ सुरेशराम ने पूरी कर दी। हर घर को एक एक बोरी चावल पहुँच गया। उस समय बोधी कामरेड कस्बे की दीवारों पर लिखने के लिये क्रांतिपाठ फाइनल कर रहे थे। दल बल के साथ लेट लटाव होते जब बोधी कामरेड नट्टिन टोले पहुँचे तो सभी वयस्क छान छाने में लगे हुये थे और बच्चे अपनी अपनी थरिया में भात चटनी का प्रसाद पा रहे थे। जैसे सब कुछ सामान्य था। स्थितप्रज्ञ मोलई माट्साब क्रांति के बीजगणित को पहले ही हल कर गये थे।

अगले दिन अखबार में बीच के पन्ने पर आग की घटना पर सिर्फ शोक जताया गया। अंतिम वाक्य में खानदानी पार्टी की ओर इशारा था। कहना न होगा कि जिसे जीतना था वही जीता। बैसाख महीने की इस घटना ने मोलई माट्साब और उनके चेले दामाद की साख बढ़ा दी।

चटनवा और भैंसिया:
चटनवा और भैंसिया में संतान और माता जैसा सम्बन्ध था। बस इस दृष्टि से उसे 'पाड़ा' कहा जा सकता था, वरना वह दिमाग से तेज था। यह सम्बन्ध इस तथ्य से और प्रगाढ़ हो जाता था कि एक विशेष जैविक सम्बन्ध के अलावा हर तरह से मोलई माट्साब भैंसिया को वैसे ही समझते और रखते थे जैसे कोई सद्गृहस्थ अपनी घरैतिन को। भैंसिया भी राँधने और घर सँभालने के अलावा घरैतिन की तरह ही रहती थी। जब दोनों बाप बेटे स्कूल चले जाते तो लम्बे पगहे से बँधी भैंसिया घर की रखवाली भी करती थी।

जगविदित है कि भैंसे बदलती रहती हैं जब कि गृहस्थ वही रहता है लेकिन माट्साब ने इस बावत इस नियम का पालन किया था कि नई भैंस में पुरानी वाली के जीन हमेशा रहें। इस तरह से किसी भी क्षण उनके दुआरे पाई जाने वाली भैंसिया मातृपक्ष की जीवंत परम्परा का सशक्त उदाहरण होती थी।
चटनवा भैंस का दूध दूहता था। अपने लिये कुछ बचा कर भी रखता था जिसे मुँह से सीधे धारोष्ण पी लिया करता, भले उस चक्कर में कभी कभार माता की लत्ती सहनी पड़ती थी।
एक दिन उससे किसी ने कह दिया कि दिमाग गाय के दूध से बली होता है, भैंस के दूध से तो...। होश सँभालने से ही डाक्टर बनने का सपना पाले चटनवा की चटक गई। सुनने में आया कि शाम को उसने गाय लाने की ज़िद की तो मोलई माट्साब ने गाय को गुहखइनी बताते हुये उसके दूध में भी खून का अंश और बदबू पाये जाने की बात बतला उसे विरत कर दिया।

उसके बाद जो घटित हुआ उससे चटनवा की अन्वेषी प्रतिभा का पता चलता है। चटनवा और भैंसिया दोनों हेरा गये। जैसा कि बचिया के मामले से सिद्ध ही है, माट्साब को कोई चिंता नहीं हुई। उन्हें अपने खूँटे और आश्रय पर पूरा भरोसा था सो अपनी दिनचर्या में लगे रहे। दूसरे ही दिन मुहल्ले में किसी ने माट्साब से पूछा तो उन्हों ने जवाब दिया कि चटनवा अपने ममहर गया है और भैंसिया को साथ ले गया है, आ जायेगा। जाने पूछने वाला इस अजीब भगिनाप्रस्थान से आतंकित हुआ था कि माट्साब के प्रशांत उत्तर से, वह आगे कुछ पूछ नहीं सका।

चौथे दिन हीन मलिन अवस्था में दोनों वापस आ गये। पता चला कि चटनवा सिर्फ इसलिये भैंसिया को ले फरार हुआ था कि भैंस के गुहखइनी यानि विष्ठा खाने वाली न होने को स्वयं प्रमाणित कर सके। वह खुश था कि वाकई वह गुहखइनी नहीं थी, भैंसिया घर वापस आ कर प्रसन्न थी जब कि माट्साब यथावत रहे।
एक घर में तीन प्राणी कैसे सुकून, स्वतंत्रता और साहचर्य की दिव्य भावना के साथ रह सकते हैं, माट्साब का घर उसका उदाहरण था।

चटनवा ने इंटर पास किया और साल भर रगड़घस्स करने के बाद मेडिकल की पढ़ाई करने बाहर चला गया। घर में सिर्फ भैंसिया और माट्साब बच गये...
...डा. सी सी प्रसाद की क्लिनिक कस्बे में खुली तो सबने स्वागत किया। बोधी कामरेड तक ने अपने अखबार में खबर छापी। रोगियों की भींड़ जुटने लगी और करुणा वरुणालय बना डगचटनवा मालदार होने लगा। उसके जीवन में दो दुख थे – एक परिचित लोगों द्वारा तब भी चटनवा पुकारा जाना और दूसरा खुद के और लभ मैरेज कर आई बहू के समझाने के बावजूद मोलई माट्साब का पुराना घर, भैंसिया और नट्टिन टोले के सूद व्यापार को छोड़ने को तैयार नहीं होना। एक दिन जब चैम्बर में ही एक परिचित से चटनवा ने यह सुना कि हम भी सोचे रहे कि ये कौन डा. सी सी प्रसाद हैं, ये तो अपना चटनवा है!, तो उसने कस्बे से क्लिनिक को उठा देने का निर्णय ले लिया।

जिस दिन डा. सी सी प्रसाद की क्लिनिक कस्बे से रुखसत हुई, उसके अगले दिन अखबार के इतवारी अंक में बोधी कामरेड की एक कालजयी कविता छपी – ‘माटी से गद्दारी’। उकसाने पर आज भी लोग उस कविता का सस्वर पाठ करते हैं। बोधी कामरेड के जीवन की यह पहली उपलब्धि थी।
उपसंहार:
बोधी कामरेड दुबारा चुनाव लड़ने का साहस नहीं कर सके लेकिन उन्हों ने नट्टिन टोले से सर्वहारा पर प्रयोगात्मक सीखें लेनी शुरू कर दीं। जट्टा उनकी सहायिका थी जिसे वह साहिकाय कहा करते थे। असल में सहायिका शब्द से नायिका की बुर्जुवा अवधारणा की गन्ध आती थी जब कि साहिकाय शब्द से कायाधारित आदिम सह-भावना का पता चलता था। इसलिये वह सहायिका को साहिकाय कहते थे और आम जन शायिका कह कर चुटकी लिया करते थे। कम से कम इस मामले में बोधी कामरेड भावना को अपसांस्कृतिक सोच का अंग नहीं मानते थे।

कहते हैं कि बारह वर्ष तक रस्सियों के घिसने से कुयें की जगत जैसी जड़ वस्तु पर भी निशान पड़ जाते हैं, नट तो चेतन जीव थे। उन्हें सूद की चक्रवृद्धि का चक्कर समझ में आने लगा लेकिन तमाम प्रकार के मूलों की तरह ही मूलधन बहुत जबर होता है। बोधी कामरेड के पास मूलधन नहीं था मतलब कि मूल ही ग़ायब था जिसके अभाव में शोषण की ठोस बातें भी हवा हवाई हो जातीं।

हताश होकर बोधी कामरेड ने सशस्त्र क्रांति को आजमाने का निर्णय लिया। अपनी स्थितप्रज्ञता के कारण अनजाने ही वर्षों पहले जो घाव मोलई माट्साब बोधी कामरेड को दे चुके थे, वह अभी भी टभकता था। सशस्त्र क्रांति के आगे आभासी सम्बन्धों को दर्शाती हवाई गालियाँ नहीं रुक सकती थीं। नटों और नट्टिनों ने माट्साब से हिसाब माँगना और रुपये वापस करने से मना करना शुरू कर दिया। माट्साब की गालियाँ कमजोर पड़ने लगीं लेकिन रिटायरमेंट के बाद भी वह डटे रहे।

एक दिन ऐसी ही किसी झँवझोर में सशस्त्र क्रांति हुई। एक नट ने माट्साब को छूरा भोंक दिया। उस दिन संयोग से डगचटनवा उर्फ डा. सी सी प्रसाद घर आये हुये थे। आँगन में मोलई माट्साब को लिटाया गया तो माट्साब ने सबको बाहर जाने का इशारा किया – बचिया और चेले सुरेसवा को भी। उनके बाहर जाने के बाद उन्हों ने पुत्र से दरवाजा बन्द करने को कहा और बोल पड़े (इस बात का आज तक पता नहीं चल पाया कि किस तीसरे ने सुना और इसे पब्लिक कर दिया! ):
“बेटे! अस्पताल जाने का कोई लाभ नहीं। धन की हानि होगी। आत्मा तो जानी ही है ...
मूल और सूद धनी बनाते हैं लेकिन आदमी को चूस कर खोखला करते जाते हैं। जिन्दगी में खूब कमाना और खूब मौज मनाना। संग्रह में दुख होता है...
नट्टिन टोले से कभी कोई सम्पर्क न रखना। वहाँ तुम्हारे कई भाई बहन हो सकते हैं। तुम बहुत छोटे थे जब तुम्हारी माँ गुजर गई, तुम्हीं बताओ क्या करता? तुम दो संतानों के सिर न तो मैभा महतारी बैठाना था और न क्षणजीवी जीवन को प्यासे रह कर जीना था...
पुलिस के चक्कर में न पड़ना। आगे भी पुलिस और पत्रकार से बच कर रहना। जीवन सुख से कटेगा...
हमलावर को मैंने क्षमा कर दिया है, तुम भी उस हत्यारे को क्षमा कर देना...
खिंचड़ी और दूध के आहार का पुण्य रसोईघर से लगी जो कोठरी है, उसमें रखी बड़ी सन्दूक के नीचे दफन है। उसका उपयोग और उपभोग करना। बाढ़ै पूत पिता के धरमे तो मैंने सिद्ध किया ही सम्पति बाढ़े अपने करमे को झुठलाते हुये जा रहा हूँ। उस पुण्य को अगर ठीक से सँभाले रहे तो तुम्हें और कुछ करने की जरूरत नहीं।...
बैदिक गणित की पुस्तक अनामी छपवा देना। गोलघर में जो पन्ना प्रकाशन है, उसका मालिक मेरा शिष्य है। वह बिक्री सँभाल लेगा।
भैंसिया तुम्हारे लिये मातावत है। आजन्म उसकी सही देखभाल करना। उसकी नस्ल सुरक्षित रहनी चाहिये। बटाई से काम चला लेना, तुमसे नहीं निभ पायेगा। “...
...और माट्साब ने आँखें मूँद लीं। बोधी कामरेड के जीवन की यह दूसरी उपलब्धि थी जिसके सुखमय शोक को उन्हों ने अखबार के उसी भीतरी पन्ने के उसी चौथाई भाग को अगले दिन काला कोरा छाप कर मनाया।
चटनवा ने भैंसिया को बटाई पर उठा दिया। शर्त केवल यह थी कि उसका या उसकी बेटी, पोती .. का ताजा दूध उसके यहाँ पहुँचता रहे। पिता के पुण्य से डा. सी सी प्रसाद की क्लिनिक सीसीएनएच यानि कि सी सी नर्सिंग होम में तब्दील हो गई जिसकी एक शाखा श्रीमोलईप्रसाद स्मृति धर्मार्थ अस्पताल के रूप में कस्बे में खुली। उसकी ओ पी डी का शुल्क आज भी सिर्फ पाँच रुपये है और अधिकतर दवायें मुफ्त हैं।

सेठ सुरेशराम की सद् इच्छा से नट्टिन टोले में एक बार और आग लगी। पहली लुत्ती लगाने वाले का कभी पता नहीं चल पाया और रहस्यमय परिस्थितियों में नट बस्ती छोड़ कहीं और चले गये। अगले महीने थाने में बैठा सेठ सुरेशराम ताजे लगवाये सोने के अपने दो दाँतों के बारे में पुलिस वालों के साथ हँसी ठठ्ठा करते पाया गया। उसने चेलाधर्म का निर्वाह पूर्ण कर दिया था। आगे चल कर धर्मार्थ चिकित्सालय का सारा प्रबन्धन बचिया ने अपने हाथों में ले लिया। बोधी कामरेड की आगे की कथा फिर कभी।

आज भी अगर फूलपुर रेलवे स्टेशन के सामने उस पार चमकते सीसीएनएच की जलपा हो चली बूढ़ी आया से कोई मोलई माट्साब के बारे में पूछ देता है तो वह सारी कथा बिना रुके सुनाती है। आखिर में अपना नाम बताना नहीं भूलती – लछमिनिया। (समाप्त)
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डिस्क्लेमर: इस कहानी में वर्णित किसी पात्र, घटना, स्थानादि का वास्तविकता से कोई सम्बन्ध नहीं है। अगर ऐसा कुछ लगता है तो वह पूर्णत: सांयोगिक है। 

8 टिप्‍पणियां:

  1. इस तरह चुनाव लड़ना पैटेन्टेड करवा लिया जाये।

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  2. गज़ब!
    कहानी, उपन्यास पढ़ने का अभ्यास फिर से बन जायेगा लगता है।

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  3. लछ्मिनियाँ उवाच! वहीं से मिली क्या यह ..कुछ अपना भी भोगा हुआ रहा ..मजेदार !

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  4. मोलई प्रसाद गुप्ता उर्फ़ मोलई माट्साब से मैने भी सातवीं कक्षा में हिंदी पढ़ी थी। रामकोला के उसी स्कूल से जहाँ से आपने उनसे गणित पढ़ा होगा। क्या ये कहानी उन्हीं की है?

    प्रारंभिक विवरण तो उन्हीं की याद दिलाता है, लेकिन आगे के कांडों से मैं प्रायः अनभिज्ञ ही था। सत्यकथा और कल्पना का अद्भुत मेल जान पड़ता है यह।

    आपकी रचनाशीलता को प्रणाम।

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  5. @ सिद्धार्थ
    लो भाई डिस्क्लेमर लगा दिया :)
    आज एक और मित्र ने फोन कर यही बात दुहराई। ... ऐसा नहीं है।
    अपने गुरुओं को इस तरह से कथा कहानी का पात्र नहीं बना सकता भाई!
    हाँ, समानता तो है ही - बस शारीरिक। उसमें भी मूँछ में भिन्नता है। असल में अपने आस पास थोड़ा भी ध्यान से देखो तो कई कैरेक्टर नज़र आते हैं। अगल बगल की और परिचितों की बातों में भी कहानियों का कच्चा माल निकल आता है। मैं तो लोगों के चेहरों और देहों में भी बहुत कुछ तलाशता रहता हूँ - ज्यामिति, अनुपात, फिबोनासी अंकों का खेल आदि आदि। कोई ग़लत इरादा नहीं होता,बस एक जिज्ञासा सी होती है। शायद इस कारण ही ऐसे ऐसे दुर्लभ संयोगों से पाला पड़ता रहा कि साथियों को मेरी बातें अविश्वसनीय भी लगती रहीं। कॉलेज जमाने में तो एक मित्र मुझे 'दोधू' कहता था माने 'गप्पी'!
    :)

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