भूमि से नीचे बहुत, कहीं बहुत गहरे है एक आसमान
कोर से उछलती दमकती बिजलियाँ हैं मेरुप्रभा का आसमान
उसके छाये में पलते घने दरख्त, मनुष्य, पशु, हैवान, फरिश्ते
बहती हैं नदियाँ जिनमें पानी नहीं काला शोणित अश्यान अप्राण।
दिन और रात नहीं होते वहाँ, घड़ी घड़ी हैं पुकारें दहाड़ सी
समय की बीत जताती ज्वालामुख जिह्वा करती रह रह फुफकार
कानों में घुसती है चुम्बकीय हवा के संग – बिन सूरज प्रकाशमान
करती स्तवन – तुम सब, तुममें सब रूप, तुम सर्वशक्तिमान।
मैं आ गया हूँ, पहुँच गया हूँ। चौथा या पाँचवाँ जाने कौन सा?
हाथ पाँव सही सलामत, कोई दर्द कहीं नहीं, न देह का पता
मैं स्वस्थ हूँ, सुरक्षित हूँ, बस मस्तिष्क की जगह कोई जड़ पिंड है
याद आता नहीं कि किसी उभरे शिलाखंड से टकराया सिर गिरते हुये
याद है भी, होती भी है? जड़ है फिर भी प्रश्न उठते हैं पिंड में
कहते हैं दिमाग को काटो तो दर्द नहीं होता, चोट लगी तो कहाँ लगी?
एक साथ ज्यों पीठ ठोंकी है हजार हाथों ने – सब ठीक है, ऐसिच है
पहली दफा ऐसा ही होता है, अब आ गये हो, सब ठीक होगा
इब क्या होगा, अब जीवन कैसा होगा? पहला सवाल है जो मैंने पूछा है
अट्टहास हैं समवेत – उन्नत आत्मा! यहाँ जीवन और मृत्यु नहीं होते
इस लोक में वैसी हवायें हैं ही नहीं जो उन्हें अलग अलग करें।
हवायें? मैंने दीठ फेरी है उन अनाम वृक्षों की पुतलियों पर
झँकोरे नहीं, किसी चित्रकार के ब्रश से निकले भगोड़े छागल हैं
इधर उधर कुँलाचते सब धुँधला करते उभारते नये नये लैंडस्केप
लहरा उठती हैं बहुरंगी साड़ियाँ मेरुप्रभा मुग्ध इठलाती है
बरस रहे हैं पत्ते गिरते चमक चन चन नदी के पानी में।
अश्यान फलक में तैर नहीं, उछलते हैं बार बार सरकते
अदृश्य में फिसलते चमकते रह रह खिलखिल झिलमिल।
अचानक पाता हूँ यहाँ कोई विसरित प्रकाश नहीं, अन्धकार नहीं
बस है जो कि होता है तब जब कोई होता है ढूँढ़ता उसे जो होता है
पुकार आई है सब ओर से (यहाँ दिशायें नहीं और न उनका बोध है)
आगंतुक! अपना प्रश्न पूछो! प्रश्न? कैसा प्रश्न? वह क्या था जो पूछा
पहला, जिसे उलझा दिया तुमने हवाओं के पल्लू में बाँध कर?
फिर से हैं अट्टहास समवेत – सिद्ध हुआ कि तुम पर्यटक नहीं
आगंतुक! तुम हम हो, अब नहीं जाना तुम्हें उस दिवालोक में
जहाँ अस्तित्त्व बस होते नहीं, नागरिक होते हैं और कुछ रह नहीं जाते।
माथे से द्रव रिस उठा है, आँखों से रिस उठा है, जाना अब नहीं हो पायेगा?
घेर लिया है मुझे अनेक रोशन श्यान जिह्वाओं ने, द्रव सूख गया है
साफ बेलार बिनटपकी चाट – मिलन की अभावी सहसा प्रथम छुअन सी।
कौन हो तुम लोग मुझे रोकने वाले? सामने क्यों नहीं आते, क्यों यूँ लजाते?
हाथ घुमाओ यूँ जैसे कि किसी पास खड़े को लग न जाय, हम दिखेंगे
हुई है हाथों में जुम्बिश और मुझे घेरे खड़े हैं हजारों दमकते स्याह से –
यहाँ कोई काल नहीं सब वर्तमान है, फिकर करोगे तो सब दिखेंगे
जिन्हें तुम कहोगे भूत से, ऊपर वहाँ कोई भविष्य नहीं, तुम्हारा नहीं।
मैं चल पड़ा हूँ उनके साथ साथ, चन्द कदम जोर साँस, पानी पी, चल
यह है हमारा आहार विहार। हम हवाखोर बस होते हैं, जीते मरते नहीं।
यहाँ आओ, हमें दिखलाओ, मुंड में क्या है? घिर गये हैं प्रभाओं के वलय
मैं मुग्ध हूँ। नाच रही है नायिका। मेरुप्रभा। आयत नेत्र अक्षितिज अबूझ
लघुत्तम केन्द्रक परिक्रमा इलेक्ट्रॉन, महत्तम निहारिकायें, कितने प्रकाशवर्ष!
तुम अद्भुत हो, जगा दी याद हमें हमारी विस्मृति की, पहले हम ऐसे ही थे
तुम क्यों आये? मैं आया नहीं खुद से, गिरा हूँ मृत्युलोक से, जहाँ जीवन है।
-झूठ है सब - तुम भी क्या खूब गिरे! हममें से कोई नहीं पतित यहाँ, हम हैं
शाश्वत, बदलते नित नवीन। इस लोक बार्धक्य का क्षरण नहीं, खुश रहो।
यहाँ विस्मृति है, तुममें दोष है कि तुम्हारे म्ंड में स्मृतियाँ हैं, शेष हैं और
यहाँ की भी हो रही रिकॉर्डिंग। एक प्रश्न, एक वृत्त, एक केन्द्र, एक प्रमेय
फिर मुझे क्यों कहा गया – पहली दफा, पहली दफा ऐसा ही होता है?
ज्यों पूछ दिया हो कोई सनातन अनसुलझा प्रश्न – सब ओर सन्नाटा
फुफकार, दहाड़ चुप। रुक गई हैं मेरुप्रभायें। साटिका साटिन बिजलियाँ
थम! आहट। हाँ, इस लोक में आहट भी है! किसी बवंडर की अकस्मात
अट्टहास – वह तुम्हें बहलाने को था। हम भुलक्कड़ों की मज्जा में है यह!
बहलाना, फुसलाना, दुलराना, समझाना – पतन की चोट गहरी है होती
उन्नत! नहीं बहलोगे, नहीं फुसलोगे, नहीं दुलरोगे तो कैसे समझोगे? कैसे?
कैसे होगे हममें से एक, तब जब कि तुममें हैं हजार दोष! पतित!! (जारी)
गिरिजेश भाई, अपने प्रति पक्की ईमानदारी हो तभी ऐसी छवियां-पंक्तियां निकल सकती हैं। अभी ध्यान से नहीं पढ़ा। लेकिन यूं ही सरसरी तौर पर पढ़ते हुए बरबस मुझे मुक्तिबोध की 'अंधेरे में' याद आ गई। यकीनन आपसे बहुत ज्यादा उम्मीदें हैं।
जवाब देंहटाएंपढ़ने में एक नयापन, आगे की प्रतीक्षा..
जवाब देंहटाएंदिन और रात नहीं होते वहाँ, घड़ी घड़ी हैं पुकारें दहाड़ सी समय की ...
जवाब देंहटाएंनाहीं शूर्जो नाहीं ज्योती, नाहीं शशांको ...
न तद्भासयते सूर्यो न शशांको न पावकः
यद्गत्वा न निवर्तंते तद्धामम परमं ममः
बहुत गहन, अति तीव्र! एकदम गिरिजेश स्टाइल!
शब्दों का ऐसा प्रयोग मानो रेखाचित्र खींच दिया है आपने.... अरसे बाद तत्सम, तद्भव, देशज और विदेशज शब्दों का एकसाथ प्रयोग देखने और पढ़ने को मिला है....
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इतना गूढ़, इतना दुरूह क्यों लिखते हो कवि ? हालांकि अपनी समझ से बाहर है यह, फिर भी अच्छा लग रहा है इसे पढ़ना, अगले की प्रतीक्षा में...
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