... सब समाप्त हो चुका है।
आज मद्धिम प्रकाश में तुम्हारी स्मृति क्षुब्ध कर रही है। आँखों में किचमिच है, कक्ष की सीमायें किसी चित्रकार की तूलिका रेखाओं सी होने लगी हैं – धुँधली। छत में लगे प्रकाशदीपों को घेरे उड़ते कीट अक्षरों से हैं - निरर्थक। उनमें अर्थ भरने वाला रहा ही नहीं! उन अन्हार भरे प्रकाशी क्षणों में कैसे तुम वाक्यों से शब्द, शब्दों से अक्षर और अक्षरों से उनके रूप छीन कर नभ की ओर उछाल दिया करते थे! नभ और हमारे बीच की छत का अस्तित्त्व ही नहीं रह जाता था और मैं आँखें फाड़े शून्य में देखा करता था – तुम्हारे स्वर में शक्ति है कि उसके पीछे के आत्मविश्वास में कि उस अज्ञान में जो मौन को व्यर्थ समझता है? तुमसे जाना कि वाणी में शक्ति होती है और मौन बहुत बार स्वयं को अवगुंठन में घेरने का उपक्रम कि कहीं अबुद्धि नग्न न हो जाय!
तुम्हारे कारण ही जान पाया कि मुझमें भी शक्ति है। वे तीन दिन, जब अस्तित्त्व ही डगमगा उठा था और चौराहे की प्रतिमा बहुत पास जाने पर दिखती थी और जब वक्ष में निर्वात भर उठा था; तुम निराशा की उस गहराई तक जा पहुँचे थे जिससे नीचे बस मृत्यु होती है। कितना समय हुआ था चौथे दिन? रात थी। महानगर निद्रा में था, जिसके सपनों का अनुमान मैं ट्रैफिक ध्वनियों की यादृच्छ भटकन से लगा रहा था – ऐसे नगर सोते भी हैं? और तुम आये।
“सब समाप्त हो गया बन्धु! सब समाप्त हो गया।“
श्मशान के ऊपर बने भवन में दिन प्रतिदिन हो रही मृत्यु की धीमी, सुनिश्चित, प्रक्रियावादी घटनाओं की सोच मैं दहल उठा और अपनी डगमगाहट, अपनी धुँधलाती दीठ और अपना निर्वात सब भूल गया। ट्यूब को खट से जला दिया था।
“हाँ, मुझे प्रकाश चाहिये।“
प्रकाश! पहली बार तुमने प्रकाश की चाहना की थी वरना कक्ष में आते ही तुम्हारा पहला काम ट्यूब बुझा कर टेबल लैम्प जलाना होता था - इतने प्रकाश में राह भटक जाओगे बन्धु! सोच समझ ठीक रहे इसके लिये अन्धेरे का स्पर्श आवश्यक होता है।
मेरे भीतर की बुझन में एक लौ सी उठी थी – तुम्हें मेरे शब्दों की आवश्यकता थी। अभी सब समाप्त नहीं हुआ था। तुम अभी भी मुझे बन्धु कह रहे थे, न भाई और न यार! तुममें तुम्हारा तुम शेष था।
हाँ, यही कहा था मैंने। कह कर ट्यूब बुझा दिया था – बाहर का विसरित प्रकाश बहुत है...और शब्द बह चले। मुझे स्मृति नहीं कि मैं क्या क्या बोलता चला गया। अंत किया तो भीतर से निर्वात भी समाप्त हो चला था। एक सुख की अनुभूति थी – मृत्यु ऐसी होनी चाहिये न कि भवन के कक्षों में भटकती सी। मृत्यु भीतर पैठती जानी चाहिये, तब जीवनशक्ति पर छाया गँदलापन साफ होता जाता है।
“कुछ समाप्त नहीं हुआ मित्र! यह नया प्रारम्भ है। जाओ सो जाओ।“
पता नहीं तुम पहले ही जा चुके थे या मैं स्वयं सो चुका था लेकिन रात भर केशों में रेंगती अंगुलियों से जैसे शुभ्र तरंगे मस्तिष्क में प्रवेश करती रहीं। मैं जागते हुये भी सोया था और सोते हुये भी जागता।
प्रात: मैंने पूछा – इतनी लाल आँखें! सो नहीं पाये क्या?
तुमने उत्तर दिया – मेरे जीवन का पहला जागरण था बन्धु! अब किसी भी रण में मैं समाप्त नहीं होने वाला। मेरी आँखों में धुँधलापन नहीं था। नई किरणें चुभ रही थीं। तुमने हाथ दबा दिया था – बीती रात जीवन भर याद रहेगी।
“हाँ केशव! मेरे केश अभी भी आवेशित हैं।“
तुम मुस्कुराये – भूलोगे तो नहीं?
“अवश्य भूल जाऊँगा मित्र! वह अपने आप होगा। जो अपने आप हो उसे सायास मोड़ना ठीक नहीं।“
“तुममें बहुत उलझन है।“
“नहीं, आज तो नया जीवन है। चलो, आँखें दिखा आऊँ। सम्भवत: चश्मा लगेगा।“
चश्मे की बात पर तुम मुस्कुराये थे – अर्थपूर्ण।
“मैं समझ रहा हूँ जो तुम सोच रहे हो! सब समाप्त हो चुका है।“
उस दिन डस्टबिन में कागज के टुकड़े थे – किसी बहुत लम्बे पत्र से वाक्य, शब्द, अक्षर टुकड़े टुकड़े हो कूड़े के ढेर में बढ़ोत्तरी कर गये थे। मैं अवाक था।
“सचमुच सब समाप्त हो गया। अब नया प्रारम्भ है। सब कुछ मिल जाय तो भाग्य की बात ही न हो... हाँ तुम भूल नहीं पाओगे और मैं भी।“
... आज स्मृति है लेकिन वह आलोड़न नहीं है। मैं भूला नहीं पर सादी सी तटस्थता है। तुम्हारी स्मृति में आर्द्रता भी नहीं है लेकिन यह तटस्थता को भेदती स्वर देती क्षुब्ध स्थिति?
बस इसलिये कि तुम भूल गये। जानते हो? दीपावली आने वाली है। अक्षर अक्षर कीट रात भर टुकड़े टुकड़े प्रकाशों के चहुँओर नाचेंगे और प्रात: मृत्यु के ढेर बन जायेंगे। मैं नहीं जागूँगा। सनातनी श्मशान में दिया नहीं जलाते। राख के चिह्न बचते ही कहाँ हैं?
वही अक्षर हैं, वही शब्द और अपना वही एक वाक्य - मैं समझ रहा हूँ जो तुम सोच रहे हो! सब समाप्त हो चुका है।
...
जवाब देंहटाएंबहुत कुछ अमूर्त सा निर्वैयक्तिक रह गया है !
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जवाब देंहटाएंउलूकराज बहुत खूबसूरत हैं।
संकुल मनस्थितिे के यथार्थ का कुशल निरूपण - चित्रों में भी वही आभास मिल रहा है!
जवाब देंहटाएंनही, कुछ भी समाप्त नही हुआ है. हो भी कैसे सकता है? मूर्त या अमूर्त रूप में स्मृतियाँ शेष रह हीं जाती है भले ही छोटे-छोटे पत्रों के लंबे वाक्यांश टुकड़े-टुकड़े होकर कुड़ेपात्रों की शोभा बन जायें तब भी कुछ भी समाप्त नही होता है....
जवाब देंहटाएंआप जब यहाँ 'अन्हार' लिखते हैं तो जैसे सचमुच दूर गँगा पार सूरज निकलने को अकुलाया सा लगता है।
जवाब देंहटाएंलिखते वक़्त जैसा भी महसूस हो आपने, मैंने अभी शांति महसूस की शब्दों के नीचे।
पञ्च दिवसीय दीपोत्सव पर आप को हार्दिक शुभकामनाएं ! ईश्वर आपको और आपके कुटुंब को संपन्न व स्वस्थ रखें !
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"आइये प्रदुषण मुक्त दिवाली मनाएं, पटाखे ना चलायें"
तुम्हारी स्मृति में आर्द्रता भी नहीं है लेकिन यह तटस्थता को भेदती स्वर देती क्षुब्ध स्थिति?
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अनकहे अबूझ से समझे जाने वाले भावों को शब्द बहुत खूब दिए हैं.
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जब भी आप का लिखा पढ़ती हूँ तो नए शब्दों के ज्ञान में भी वृद्धि होती है.जैसे आज सीखे नए शब्द ..> यादृच्छ...अवगुंठन...
आभार.