मंगलवार, 4 अक्टूबर 2011

बी - अंतिम भाग

12345 और 6 से आगे ...
ज़िन्दगी के सबसे अच्छे और सुहाने दिन शुरू हुये थे। वह रात सुहाग की अलहदा सी रात थी। कमरे का द्वार खुला था – हम दोनों के अलावा था ही कौन? कारखाने की अपनी बिजली थी। आसमान खुली दलान के रास्ते ताल से आती ठंडी हवायें पंखे से घुमरी पा रही थीं। दो देहें चन्दन शीतल। बरनावाली विमला पहली बार बिजली के पंखे की हवा के अनुभव में थी और मैं क़यामत पर अटका। विमला ने पूछ ही लिया – तन्नी ने आखिर में वैसा क्यों कहा?
उठ कर मैंने बल्ब जला दिया और तन्नी का फोटो ला कर थमा दिया। जिस तन्नी को यदा कदा चर्चा से ही विमला जानती थी, उसके बारे में सब सुनने के बाद उसने गहरी साँस ली – आप नसीब वाले हैं ...लगता है कि तन्नी के साथ सब ठीक नहीं है। मैंने हँस दिया – अरे! उसके दो दो फूल से बेटे हैं। कल खुद देख लेना। बल्ब फिर से बुझ गया और शांति छा गई – ताल की गहराई जितनी।
सुबह हुई और तन्नी प्रकट हुई – जैसे कुछ हुआ ही न हो! हाथ पकड़ कर विमला को खींच ले गई। सखियारो की शुरुआत जान मैं मुस्कुराया। दूर से तन्नी की खिलखिलाहटें और बत्तखों की चें चें सुन मैंने प्रार्थना में हाथ जोड़ लिये - हे ईश्वर!... 
  
कुछ ही दिनों बाद तन्नी वापस चली गई लेकिन बी के आँगन में विमला के आने के बाद हो रही मेरी उपेक्षा बरकरार रही। शायद न तो बी को वैसी शिष्या मिली थी और न विमला को वैसी गुरु! सिंघाड़े की रोटी से लेकर चावल के पापड़ तक, मुर्गमसल्ल्म से लेकर दमपोख्त तक, डलिया बिनाई, सिलाई पुराई...और भी बहुत कुछ। जो कुछ विमला जानती वह भी दुबारा बताया जाता और वह सीखती भी। शाम को हँस हँस कर बताती।
 दिन उड़ चले। ताल पर सुनहरी चादरें बिछती रहीं, सिकुड़ती रहीं। राजरानी के केशों में कहीं कहीं मेंहदी से ढकी चाँदी दिखने लगी थी लेकिन उनका स्नेह दिन ब दिन युवा होता रहा...
उस दिन बी बहुत खुश हुईं जिस दिन अखबार में मेरे नाम के साथ रिजल्ट निकला – प्राइवेट पढ़ाई कर बी एच यू से अंग्रेजी विषय से एम ए करने वाला कस्बे का मैं पहला शख्स था। बी अंग्रेजी नहीं जानती थीं लेकिन असलम के लाये अखबार को लेकर कोठी तक दिखाने गईं जैसे मैंने आठवीं पास की हो। मैंने असलम को छेड़ा – बता दूँ उस दिन वाली बात जब तुम डिप्टी साहब के यहाँ मुझे पास कराने को पैरवी करने गये थे? असलम घबरा गया और मौके का फायदा उठाते हुये मैंने छुट्टी के दिन उसके खर्च पर मैटिनी शो देखने का प्लान पक्का कर लिया।

घर परिवार भूल हम दोनों दोस्त सिनेमा देखे। छूटने के बाद राजाराम हलवाई की दुकान पर बैठ कर सोहन हलवा खाये और यूँ ही एक दूसरे का हाथ पकड़ दूर तक रेल पटरियों के सहारे घूम आये। तिजहर के करीब साढ़े चार बजे हम लोग वापस आये। विमला खार खाये बैठी थी – बी के यहाँ हाल बेहाल है और आप को मटरगस्ती से फुरसत नहीं? मैंने भौंचक्का हो कर पूछा – क्या हुआ? असलम भी तो मेरे साथ ही था!
उसने जल्दी से बताया – तन्नीबहिना के पति को कुछ हुआ है, जल्दी जाइये। मैं बी के घर की ओर भागा। बहिना, बहिना, बहिना ... दिल अनहोनी की सोच तड़प रहा था।

बी चौखट पर पल्ले की आड़ लेकर बैठी थीं। गली में सुल्तान मियाँ, असलम और एक बीमारसूरत अनचीन्हे बुजुर्ग बैठे थे जिन्हें पहचानते मैं भटक रहा था। मैंने यूँ ही हाथ जोड़ लिये। अजनबी की बातें बन्द हो गईं। बी ने अन्दाजा लगा लिया। जैसे अजनबी को सम्बोधित कर बोलीं – घर का बच्चा है, आप मिले तो हैं। हम सभी दलान में आ गये लेकिन बी यह कह कर चौखट पर ही बैठी रहीं कि उन्हें भीतर जाते घबराहट हो रही थी।    
जब तक मुझे पता चला कि अनजान बुजुर्ग तन्नी के ससुर थे, उनकी इकलौती औलाद और तन्नी का शौहर जमाल साल भर से घर नहीं आया था और तन्नी की सास मरणसेज पर थी; तब तक ताल का पानी सुनहला हो चला था। असलम ने बताया कि उस दुष्ट ने अपनी अम्मी को याद करते हुये खत लिखा था। लिखा था कि याद आती है, मिलना है, आ जाओ, मैं नहीं आ सकता। खत में न तो तन्नी का जिक्र था और न बच्चों का।
साल भर से उसके ग़ायब होने की बात तन्नी के नैहर वालों से छिपाई गई थी, गाँव वालों से छिपाई गई थी कि बम्बई से अरब कमाने चला गया है लेकिन जब खत आया तो उसके ससुर ने तन्नी के भाइयों से मदद लेने की सोची। गाँव वाले तो रुपये उड़ा पड़ा कर खाली हाथ वापस आ जाते!  

साँझ के झुटपुटे में सब खामोश थे। चौखट पर छाया बैठी थी। मुझे तन्नी का अकेले ताल को निहारना याद आ गया- जाने उस पर क्या बीत रही थी! यहाँ भी सब उसकी सास को लेकर ही परेशाँ थे। लगा की इस बार बी का चौखट सेना अकारथ ही जायेगा और मैं सहम गया। ताल की लहरों में कारखाने की रोशनी के बल्ब जलने बुझने लगे। सिर में पटाखों की लड़ियाँ चटचटाने लगीं। जब सहा नहीं गया तो मैं असलम का हाथ थाम चिल्ला पड़ा – मुझे वह खत दो। चौखट छोड़ कर भागती हुई बी आईं और मेरे हाथ में खत पकड़ा दिया, जैसे उसी क्षण के इंतज़ार में थीं! बल्ब की रोशनी में पलट कर मैंने उस तुड़े मुड़े पसीज गये कागज पर बस भेजने वाले का पता पढ़ा – जमाल अली केयर ऑफ मदन सेठ, गणेश वुड मिल, इम्फाल। कमबख्त ने पता भी पूरा नहीं लिखा था। बम्बई से वहाँ कैसे पहुँच गया?

निर्णय की झोंक में मैं उठ खड़ा हुआ – असलम, कल... कल हमलोग इम्फाल जा रहे हैं। मैं लड़खड़ाता हुआ अपने क़्वार्टर की ओर चल पड़ा। अधिक दूर तक नहीं जा पाया था कि ठोकर लगी और गिर पड़ा। उठ कर वहीं जमीन पर बैठ गया और फिर ...जैसे आँखों के आगे रोशनी ही रोशनी थी। दिमाग से अन्धेरा गायब हो गया। आम मोजरों की गन्ध वाली एकांत दुपहर...तन्नी उस समय दुखी थी रंगीबाबू! तुमसे अपना दुख बाँटना चाहती थी और तुम समझ नहीं पाये! ... कुछ बातें छिपाये नहीं छिपतीं, सामने वाला अन्धा हो तो क्या कीजे?... आन्हर मनई क्या देखे? ...बात देखने की नहीं मन की होती है बाबूजान!... छोड़िये बाबूजान, फिर कभी...
सिर पर हथौड़े बज उठे थे...तन्नी, नौटांक! साफ साफ नहीं कह सकती थी?
...घर पहुँच कर विमला को सब सुनाया और अगले दिन ही निकलने का निर्णय भी बता दिया। मेरा सिर सहलाते हुये विमला बोली थी – बहुत खराब इलाका है। कलकत्ता वाले बाबू बताते हैं कि उधर आसाम कमख्खा में चुड़ैलें रहती हैं। जान को भी खतरा है।
मेरी त्यौरी चढ़ते देख वह उदास भाव से मुस्कुरा उठी – सही कहा था बहिना ने, आप को उनके साथ भाग जाना चाहिये था। ... कल जाना है न? अभी सो जाइये। मैंने याद से तन्नी का फोटो निकाल कर बैग में रखने को कहा और आँखें मूँद लीं लेकिन नींद का अता पता नहीं था ...

रुखसत की बेला साफ पता चल रहा था कि असलम अनमना था लेकिन मेरे तैयार होने से वह फँस गया था। बी ने बलैयाँ लीं, दोनों को एक दूसरे का खयाल रखने को कहा और फिर राजरानी का चेहरा पत्थर की तरह सख्त हो गया। सुल्तान मियाँ को बरजने वाली फुफकार थी – रंगीबाबू! असलम मियाँ!! खाली हाथ मत लौटना। मुझमें इतनी हिम्मत भर गई कि हाथ में रुपये थमाती राजरानी को ही मैंने बरज दिया – बेटे कमाऊ हैं बी! उनसे रुपये पैसे की बात भी नहीं करते।
शहर से दूसरे शहर, फिर पटना और फिर ट्रेन से दीमापुर। ज्यों ज्यों लोग और इलाका अनजान होते गये, असलम मियाँ का दिल बैठता गया। घर में बैठी जोरू और बच्चे याद आने लगे। तन्नी को कोसा जाने लगा और मैं खामोश बस सुनता रहा। भीतर लोहा सख्त होता रहा। बस दो आँखें चमकती रहतीं - बेटा! समझदारी इसी में होती है कि दूसरों की नासमझी समझी जाय। छल पक छक पक ...

शनिवार का दिन था जब हमलोग दीमापुर पहुँचे – रेलमार्ग का अंतिम स्टेशन। आगे की यात्रा सड़क मार्ग से परमिट लेने के बाद होनी थी जो कि सोमवार को ही बन पाता और हम मंगल को आगे चल पाते। असलम अधीर असाध्य हो चला था और मैं मारे नफरत के वज्र खामोश। लोगों से टूटी फूटी बोल समझ कर काम चलता। सोमवार की भोर शुभ सन्देश ले कर आई। करीब चार बजे थे कि असलम ने मुझे झिंझोड़ कर जगाया। वह मुझे रंगीबाबू नहीं मास्टरबाबू कह रहा था – यह अपना ही देश है मास्टरबाबू! सुनिये अपनी ओर के लोग हैं यहाँ!! वह एक बच्चे की तरह मुझसे चिपट गया था। खुली खिड़की से सड़क पर चलते झाड़ू की आवाज आ रही थी और कोई भिनसहरी गा रहा था। मुझे सुर आज भी याद हैं – उठीं राम चहुँ दिसि चुचुही चहक राम, रैना बीतल...मैंने असलम के अल्ला को धन्यवाद दिया कि उसने उसे शायरी और गायन के फन से नवाजा वरना मास्टरसाहब तो ...

मंगल की सुबह सुबह सात बजे परमिटधारियों को लेकर चार बसें इम्फाल रवाना हुईं। एक के पीछे एक कर चार मिलिट्री जीपें भी साथ थीं। नागा विद्रोहियों के उत्पात जारी थे लेकिन असलम मियाँ तो जैसे जन्नत में थे। यात्रा के बारह घंटों में से दिन के समय में उन्हों ने जो मौज ली वह कहते नहीं बनती। असल में बसें खाने पीने को जहाँ भी रुकतीं, दुकानों पर सजी धजी बंगालनें और उधर की जवान लड़कियाँ दिखतीं। सामान मोलने के बाद फुटकर वापस करने की जगह मारक मुस्कान और यात्री कट कर रह जाते, न माँगते बनता और न लेते। सौन्दर्य भूमि थी वह! और असलम मियाँ के भीतर का शायर कुलाचें मार रहा था।

अगली सुबह इम्फाल में गणेश जी की खोज में खासी मसक्कत करनी पड़ी। शाम को मिलने पर जब हम लोग अधेड़ मदन सेठ के सामने अपने इरादे जाहिर कर चुके तो हमें गेस्ट हाउस में रुकने को बताया गया। बात अगले दिन होनी थी और जमाल मियाँ भी अगले ही दिन मिलने वाले थे। वैभव से दूसरी बार पाला पड़ा था लेकिन कोठी की बात और थी, यहाँ तो ग़जब का बेगानापन था। असलम का दिल फिर बैठने लगा...

जमाल मियाँ वही थे लेकिन दीमक लगे पेंड़ की तरह। सामने मदन सेठ और उसकी जवान बीवी बैठी थी जिसे देख कर मैं समझ गया कि कमख्खा की धरती क्यों प्रसिद्ध थी और चुड़ैलें कैसी होती होंगी! वह मूर्तिमान वासना थी जिसकी सुन्दरता से पहले उसकी आँखों की भूख पर ध्यान जाता था। जमाल मियाँ चलने से मना कर रहे थे जब कि उनके चेहरे की किताब कुछ और कहानी कह रही थी। सेठानी तो जैसे हमें निगलने को तैयार थी। बी की समझदारी वाली बात का ही आसरा ले मैं समझाता रहा, बीमार माँ बाप की बातें करता रहा। समझ ही थी कि तन्नी का न नाम लिया और न यह जाहिर होने दिया कि जमाल मियाँ शादीशुदा थे। 
घंटे भर की मसक्कत के बाद जमाल मियाँ से तनहाई में मिलने की अनुमति मिली तो असलम फूट पड़ने को तैयार था। उसका हाथ दबा कर मैंने जमाल मियाँ से जानकारियाँ लेनी शुरू कीं। बम्बई में वह सेठानी के बाप के यहाँ कारिन्दा थे जहाँ उन पर उसकी नज़र पड़ी तो उन्हें इम्फाल ले आई। वह दोनों के प्रिय थे – फैक्ट्री के मैनेजर सरीखे। दिन में सेठ का काम सँभालते और रात में सेठानी को। मीठा सोडा और अफीम उनकी देह को चला रहे थे। खत लिखने में माँ की याद नहीं, मुक्त होने की आस का जोर था। एक अजीब  दुविधा वाला इंसान – जाना भी चाहे और रहना भी। मैंने बीच की राह सुझाई – अभी चलो, स्वस्थ हो जाना तो फिर आ जाना।

शराबी सेठ मान गया लेकिन उसने सब कुछ सेठानी पर छोड़ दिया। सेठानी को समझाना मेरे लिये टेढ़ी खीर थी। वह पूछती – आप खुद ‘राजू’ से पूछिये कि क्या यह जाने को तैयार है? और जमाल मियाँ उर्फ राजू चुप हो जाते। फिर वही सत्कार। वैभव का बेगानापन। आजिज आ कर एक  दिन असलम ने कहा – बहुत हुआ। अब मुझे कुछ करने दीजिये।

अगली सुबह असलम मियाँ को लड़खड़ाते हुये मैंने गेस्ट हाउस में आते हुआ देखा तो हैरान हुआ। पता चला कि मेरे सो जाने के बाद असलम मियाँ ने जुगत लगाई थी। उन्हों ने रात भर में सेठानी को मना लिया था - इस शर्त पर कि राजू वापस आये या खुद असलम मियाँ...उस समय वह अफीम के नशे से उबर रहे थे। ज़िन्दगी का वह पहला और आखिरी अवसर था जब मैं न घृणा कर पा रहा था, न प्रेम। न प्रसन्न हो पा रहा था, न दुखी। विरक्त रहने की गुंजाइश ही नहीं थी। मैंने ईश्वर और अल्ला दोनों को कोसा और फिर बी की ‘समझदारी’ से स्वयं को संयत किया। नरक से गुजरना ऐसा ही होता होगा... मौका अच्छा देख मैंने अंतिम वार किया। जमाल को तन्नी का फोटो दिखाया और बताया कि वह पागल सी हो रही थी। जमाल ने मुँह छिपा लिया था। 
...वापसी में जमाल मियाँ दो बार भागे। एक बार तो हमें ट्रेन ही छोड़नी पड़ी। हम लोग उन्हें अपने बीच में बैठाने लगे। पटना के बाद जब ट्रेन अपने शहर रुकी तो मैंने सब कुछ भूल कर जमाल को धमकाया – अगर अब भागने की कोशिश किये तो पटक कर इतना पीटूँगा कि अकल ठिकाने आ जायेगी। यहाँ किसी बखेड़े का डर नहीं है। असलम ने सहमति में हामी भरी।
घर पहुँचने पर जो रोना धोना हुआ जिसमें बी शामिल नहीं हुईं। उन्हों ने कहा – बेटा, कोख के जाये नहीं हो और न पिलाया फिर भी आज दूध का कर्ज माफ किया। मेरे मुँह से बस इतना निकला – माई... और हम दोनों लिपट गये।

सुबह तन्नी जमाल के साथ मिलने आई। वह जा रही थी। मेरे पाँव के पास बैठ कर बोली – बाबूजान, धूल ले लेने दीजिये ... आँचल फैला कर उसने कहा – खाली नहीं है, देख लीजिये... उधारी दोनों ओर चढ़ गई है... क़यामत के बाद तो मिलना ही पड़ेगा। उसकी आँखें सूखी हुई थीं – एकदम!
बी, सुल्तान मियाँ, मैं और विमला असलम के साथ उन दोनों को जाते देखते रहे। मेरे हाथ प्रार्थना में जुड़ गये। आँखें विमला के स्पर्श से खुलीं – आज तो कॉलेज जायेंगे?...

...दिन गुजरते रहे। छ: साल बीत गये और बी उदास रहने लगीं। जैसे तैसे मैंने पी एच डी तो पूरी कर ली थी लेकिन ज़िन्दगी की एक अहम परीक्षा में पास नहीं हो सका था। विमला की कोख सूनी थी। ताल किनारे की राजरानी पीर, मजार, बाबा जाने कहाँ कहाँ जाती। चौखट सेना भी काम न आ रहा था और तसबीहें बेजान थीं। तन्नी कभी कभार आती तो खिलखिलाते हुये सहम सी जाती और गाँव तो बस!
कोई बाँझिन कहता, कोई ताल किनारे की मियाँइन को दोष देता तो कोई मेरी मर्दानगी पर शक करता। जितने मुँह उतनी बातें! 
जिस दिन बी ने कहा कि बेटा, मेरी बात का बुरा न मानना। मुझे लगता है कि इस जगह में ही दोष है। मेरी छाया ठीक नहीं है। कहीं और बसेरा कर लो; उस दिन मैं कट कर रह गया। न तो बी को रोक पाया और न बेहूदी बकवास के लिये झिड़क पाया। वह एकदम हिन्दू हो रही थीं। उस एकदम माँ को माफ करने की समझदारी तो मैंने दिखाई लेकिन तीन रातें सो नहीं पाया। उस जगह रहने से क्या फायदा था जब हम लोगों को देख देख बी तेजी से बूढ़ी होती जा रही थी? निर्णय लिया और दौड़ धूप कर शहर में डिग्री कॉलेज ज्वाइन कर लिया।

वहाँ से हमलोगों की विदाई बहुत साधारण रही। बी ने बस इतना कहा – आते रहना और अल्ला पर भरोसा रखना। विमला ने बाद में बताया – उस समय वह पेट से थी। मैं पहले उस पर खूब नाराज़ हुआ और बाद में थोड़ा सा खुश। कभी कभी ईश्वर की साक्षात कृपा पर भी विश्वास नहीं होता न! 
महीने भर बाद जिन्दगी में पहली बार मकानमालिक के हाथ में किराया सौंपते मैं खुद को रोक नहीं पाया, रो पड़ा था। वह हैरान से चले गये।
जमाल मियाँ की जूतों की दुकान उसी शहर में थी। जब तब तन्नी आ जाती और घर बच्चों की किलकारी से गुलजार हो उठता। विमला का मन लगा रहता। 
महीना भी नहीं बीता कि एक दिन लेक्चर खत्म कर के बाहर आया तो जमाल को इंतज़ार करते पाया। स्टेशन पर असलम और बी दोनों थे। ट्रेन पकड़ने के पहले मुझे मिलने को बुलाया गया था। वहाँ पहुँचा तो बी ने बलैया लीं और कहा कि तुमसे कुछ बात करनी है। प्लेटफॉर्म की भीड़ से किनारे आने को मैंने इशारा किया तो अड़ गईं -  नहीं, यहीं।
उनकी बातों से यही निकला कि जमाल मियाँ को दुकान फैलाने के लिये पैसों की ज़रूरत थी और बी उसके लिये शहर के किनारे की जमीन मुझे बेचना चाहती थीं। मैं हड़बड़ा गया। वह जगह तेजी से बस रही थी जब कि बी मुझसे सिर्फ तीन हजार माँग रही थीं। इतने से पैसों में दुकान बढ़ जायेगी?
मेरी आँखें भर आईं – बी, इस बात को यही जगह चुनी और यही मौका? बच्चों से कभी रुपये की इतनी सीधी बात करती हैं और कभी डाँट भी देती हैं। उस भीड़ भरे प्लेटफॉर्म पर बी ने मेरे दोनों हाथ अपने हाथों में दबा लिये – भविस्स बेटा, भविस्स! पतोहा का खयाल रखना और तन्नी से खूब काम लेना ... उन्हों ने बात अधूरी छोड़ दी। ट्रेन की तेज सीटी सुनाई दी और वह जल्दी जल्दी असलम का हाथ पकड़ डिब्बे की ओर चल दीं। मैं और जमाल तब तक ताकते रहे जब तक ट्रेन ओझल नहीं हो गई। मैंने जमाल से कहा – हम दोनों की ज़िन्दगियाँ बी के कारण चल रही हैं। वह खामोश मुस्कुरा दिया।

...छोटा सा घर तैयार हो गया, शहर में मेरा अपना घर ‘सबरस’ - आगे बड़ी सी खुली दलान, बी के कुवाटर जैसा। मकान बनने के दौरान तन्नी ने बहुत मेहनत की। नहीं, मेहनत कम, ठेकेदार और मजदूरों से लड़ाइयाँ अधिक कीं, जिसके कारण काम सुन्दर तो नहीं, तेज जरूर हुआ।  घरभोज में बी को बुलावा भेजा तो स्वीकार के साथ यह अनुरोध भी आया कि शामियाना ज़रूर लगवाना। एक दिन पहले ही आ पहुँची बी ने अगले दिन कुर्सी पर बैठ कर संचालन कर आये सभी पट्टीदारों को हैरान कर दिया। सब सकुशल सम्पन्न हो जाने के बाद तन्नी ने मुझे किनारे बुलाया और जमाल के सामने ही आँखों से काजल निकाल कर मेरे माथे पर लगा दिया – बाबूजान! असल जश्न तो अभी बाकी है...
तेजस के जन्म में मैंने गाँव से किसी को नहीं बुलाया। तन्नी ने सब सँभाला और मुहल्ले की औरतों ने रीति रिवाज पूरे किये। बरही बीत जाने के हफ्ते भर बाद बी पधारीं।
आते ही बोलीं – बेटा, रंगीबाबू के घर में एक दिन और एक रात दोनों गुजारने हैं। उन्हों ने तन्नी को रोक लिया और शाम को दास्ताँ शुरू हुई। गेट नहीं मुख्य द्वार की चौखट पर मुँह में पान दबा कर और उगलदान पास रख कर बी बैठीं।
'आज मुझे सिर्फ सुनना बेटा, रोकना टोकना नहीं। भविस्स की आस पूरी हुई है। आज तुम्हें सब बताना चाहती हूँ।
तुम्हारे लाला को हम मियाँ बीवी अच्छी तरह से जानते थे। दोनों की अजीब दोस्ती की खबर तुम्हारे घर वालों को नहीं थी। पागल होकर बही खाता फूँकने के पहले हम लोगों पर उनका कर्ज था। बटाई देने के लिये पहली भैंस और बगीची का ठीका लेने के पहले की जमानत उन्हीं के रुपयों से खरीदे और भरे गये। जब वापस करने की औकात हुई तो तुम मिल गये। जानते हो? मैंने तुम्हारे लाला से एक दुल्हे की बात पक्की कर रखी थी। सुन्नरसिंघ के यहाँ से मेरे अब्बू की बड़ी पटरी थी।  
 तुमसे ट्यूशन पढ़वाने में कोठी वालों की गर्ज नहीं थी, हमारी गर्ज थी। मैंने उन्हें मनाया था। वहाँ से बदले में एक रुपया भी नहीं मिलता था। तुम्हारा कुआटर भी मुफ्त का नहीं था। उसका किराया छै रुपये महीना था। मैंने झूठ बोला क्यों कि मैं नहीं चाहती थी कि बेकार के अहसान भाव से तुम दबे रहो। मैं तुम्हें पहचानती थी बेटा!'
...मैं मुँह बाये सुनता रहा ...
'तुम नहीं समझ सकते कि मैं आज कितनी खुश हूँ! तन्नी समझ रही होगी... न तो वह, न असलम और न बाकी दोनों; कोई भी मेरे पेट जने नहीं हैं। मैं बाँझ हूँ बेटा! बाँझ। मियाँ से मेरी शादी तब हुई जब तन्नी की अम्मी का इंतकाल हुआ। उस समय तन्नी साल भर की थी...'
...मै अवाक था। कुछ बोलना चाहा तो बी ने रोक दिया।
'रंगीबाबू! यह न पूछियेगा कि कर्जे की रकम कितनी थी और अभी कितनी बाकी है...बेटा, तुमसे कहा था न कि मुझसे रुपये पैसों की बात न करना?...रंगीबाबू, मुझे सवा रुपये दे दीजिये। घर जाऊँगी तो उसका नमक मोल कर ताल में बोर दूँगी। हिसाब किताब सब खत्म! न नमकहलाली और न नमकहरामी! भविस्स को देखिये। आगे आगे देखिये...'
... बी ने झोले से नारंगी रंग का एक कुर्ता जैसा छोटा सा कपड़ा निकाला। विमला से बच्चे को लाने को कहा और उसे पहना दिया।...  
'साँझ है बेटा। इस बाँझ की असीस तुम लोगों को फलेगी, मुझे अब यकीन है। यह कुर्ता मेरे बुने सूत का, मेरा रंगा और सिला है। बबुना सौ साल जिये, बरक्कत हो, तरक्की करे।'
हम सबकी आँखें बही जा रही थीं लेकिन बी तो बस बी थीं।
राजरानी ने झोले से वही थाली, गिलास निकाले जिनमें मुझे खिलाया करती थी। गिलास पर अलकतरा निशान वैसे ही था। मैंने तन्नी की ओर देखा तो बी कह उठीं – मैं आज इसी थाली गिलास में जीमूँगी। अब ये यहीं रहेंगे। फिर से आने पर ...
मैंने बी को रोका लेकिन उन्हों ने यह कह कर चुप करा दिया – मुझे मेरे ईमान के साथ रहने दो।
अगली सुबह जाते हुये वह सवा रुपये माँगना नहीं भूलीं...

... सब चले गये। पहले बमड़ी गई। घर में झगड़ा हुआ और उसने सल्फास खा लिया। तन्नी की मौत सड़क हादसे में हुई। अस्पताल की बेड पर अंतिम साँस लेते उसने मुझे बुला कर अपना पसीजता हुआ हाथ थमा दिया था। चेहरे पर अपार शांति थी – बाबूजान, क़यामत का वादा याद रहेगा न? और उसने आँखें मूँद ली। बाकियों के तो नाम हैं लेकिन मेरी डायरियों में तन्नी का कहीं नाम तक नहीं है।
सुल्तान मियाँ, बी, काका, पहलवान, ब्रह्मचारी, असलम और आखिर में छोटे- सब गये ...बाकियों से अब मेरा कोई सम्पर्क ही नहीं है।
दुनिया के लिये रिटायर्ड डा. आर बी सिंह, गाँव का रँगबहादुर काका, बी का रंगीबाबू, तन्नी का बाबूजान गाँव में रहता है।
 ‘सबरस’ खाली है लेकिन उसकी रसोई में अलकतरा निशान लगे थाली गिलास आज भी हैं। आज नवरात्र के नवें दिन रंगीबाबू मौत की आहट से त्रस्त नहीं, ज़िन्दगी से लबालब है।  
... ये नौ दिन मैंने बी के साथ क्या गुजारे, लग रहा है कि माँ की कोख में नौ महीने गुजारे हैं। मेरा नया जन्म हुआ है। तन्नी! बी को बताना कि वह बाँझ न थीं और न हैं... हाँ, मुझे क़यामत की भी याद है!  (समाप्त)          

28 टिप्‍पणियां:

  1. घटनाक्रम जिस तेजी से निकला, लगा कोई बड़ा सा उपन्यास गाढ़ा ही पी गया। वास्तविकता के अंश की उपस्थिति जीवन्तता के लिये अनिवार्य थी पर आधुनिक समाज के घुटन भरे अध्यायों में एक शीतल बयार बहाती यह कहानी।

    पढ़कर बहुत अच्छा लगा।

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  2. बहुत सुन्दर!
    :(
    :)

    टिप्पणी करता अवश्य लेकिन आँख की नमी को टिप्पणी में तब्दील करना नहीं आता है मुझे।

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  3. दो दिन की छुट्टी के पश्चात, सुबह आते ही तमाम कार्यों को पेंडिंग कर 'बी' के पेंडिंग भागों को पढ़ने बैठ गया..

    बाकि टीप बाद में.. यानी शाम को फुर्सत में.

    आभार

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  4. सोचता हूँ - तन्नी और रंगी बाबू का परिवेश यदि यूरोप का कहीं होता तो भी क्या तन्नी का दूधधुला प्रेम अमरत्व की इस गहराई को स्पर्श कर पाता ?
    बी जैसे लोग आम आदमी की सीमाओं को बहुत पीछे छोड़ चुके होते हैं .......पर आसान नहीं है ऐसा कर पाना.
    शरद के नारी पात्र ह्रदय को स्पर्श करते हैं .....बी और तन्नी ने भी बड़ी शिद्दत से ह्रदय को स्पर्श किया है.......बी के ममत्व को प्रणाम .....तन्नी के दूध धुले प्रेम को नमन.
    भाषा उत्तरप्रदेश के गाँवों से होती हुयी ...अपने सोंधेपन के साथ जिस बुनावट से हो कर गुजरती है.......वहाँ अकृत्रिम ठेठपना मन को बरगद की शीतल और भरोसेमंद छाया सा अहसास कराती है.

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  5. आंसूओं को शब्द कैसे देते हैं - बता दीजियेगा - तब टिप्पणी भी कर पाऊँगी | रोज़ पढ़ती आई - लिखा नहीं गया कुछ | आज आपने समापन कर दिया है - तो लिख रही हूँ | बहुत सुन्दर | बहुत - बी |

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  6. सचमुच बी तो बी ही थीं ...इत्ती बड़ी कहानी मैं अंतर्जाल पर पढता नहीं मगर इसके एक एक शब्द पूरी शिद्दत के साथ पढता ही नहीं गया दिमाग में भी पैबस्त करता गया हूँ -मैंने कई बार कहा है पात्रों ,परिवेश और यथार्थ को उकरते आपके कथानक फिल्मों /सीरिअल के लिए सर्वथा फिट बैठते हैं -खुद स्क्रिप्ट लिखिए या किसी स्क्रिप्ट राईटर को पकडिये -जल्दी कीजिये समय भाग रहा है नहीं तो आप भी मेरी तरह एक दिन बुढाये से भागते समय को देखते ही रह जायेगें ...
    आज नायक के ७० वर्ष होने की गुत्थी समझ आयी ....मगर नैरेशन में भी पीढी अंतराल कहीं नहीं दिखा -समय जैसे वहीं का वहीं रुका रहा -
    एक कालजयी कृति के लिए बधाई !

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  7. कई बार क्या होता है कि हम सोचते रह जाते है और शब्द नहीं मिलते सुबह कहानी पढ़ी थी, मन शांत हुआ, चलो पूरी कहानी तो पढ़ी... पर मन के प्रशन ले कर पूरा दिन घूमता रहा..


    अब दुबारा आ कर कौशलेन्द्र बाबू की टीप पढ़ी....

    सोचता हूँ - तन्नी और रंगी बाबू का परिवेश यदि यूरोप का कहीं होता तो भी क्या तन्नी का दूधधुला प्रेम अमरत्व की इस गहराई को स्पर्श कर पाता ?

    पता नहीं क्यों अमर मातृत्व प्रेम में प्रेम अमरतत्व की पंक्ति मुझे उत्लेदित कर रही है आचार्य.. पता नहीं क्यों... इस कहानी में तन्नी के प्रेम को कम नहीं आँका जा सकता.. बाकि उम्दा... बधाई स्वीकार करें... कि माँ को समर्पण किया है आपने अपने ढंग से बिना आलू की टिक्की और चिप्स खाए...

    बकिया आज आपका जीमेल का स्टेटस देखा था... कि इसके बाद बाऊ और फिर मन्नू-उर्मी प्रसंग .. आचार्य भगवान आपकी लेखनी को शक्ति दे ... आमीन.

    बाकी, हाँ इस कहानी के अंत की ये उम्मेद कभी नहीं थी.... काहानी को घुमाव और सार्थक अंत आप दे सकते है..

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  8. गिरजेश भाई, आज तक मैने ऐसी कहानी नहीं पढी। पढ कर समापन पर स्तब्ध हूँ, फ़िर कभी टिप्पणी दुंगा। आभार, नवरात्रि की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं

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  9. यूं तो पूरी कहानी शुरू से आखिर तक सरपट भागती नज़र आई पर अंत में बहुत कुछ कह गुज़री ! मैं इसे ही कथा का सौंदर्य मान रहा हूं !

    ना जाने क्यों , मुझे संस्मरणात्मक आनुभाविकता और कल्पनालोक का घापल्य एक अलग किस्म की अनुभूति कराता है ,खास कर तब जबकि इसे गिरिजेश राव ने शब्दों के महीन सुनहले धागों से बुन रखा हो फिलहाल साधुवाद से काम चलाइये !

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  10. अंतिम किश्त ने खोले तिलस्म के सभी दरवाजे।
    बी..के रूप में आपने साक्षात माई के दर्शन करा दिये नवरात्रि में। यह कहानी मन में जमी मैली काई को धो डालने में सक्षम है। आज के व्यस्त माहौल में कहानी पढ़ना, वह भी ब्लॉग में, कठिन है लेकिन कहानी ही ऐसी है कि पढ़े बिना रहा नहीं जा सकता। अंत की दोनो किश्तों के लिए मैने आज छुट्टी का दिन चुना। पढ़कर लगा कि अच्छा किया। जल्दी में डूब नहीं पाता कहानी के साथ।
    इस कहानी के लिए आपको ढेर सारी बधाई। माँ की कृपा की उन्होने हमे भी पढ़ने का अवसर दिया।
    प्रवीण जी के टीप की लम्बाई पर और कौशलेंद्र जी की रोशनाई पर मुग्ध हूँ..।

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  11. कहानी की कसावट लुभाती है ...
    आप हैं तो इसी लोक के प्राणी ना !!!
    इसे पढ़ते हुए मनोहर कहानियों वाले सुरजीत जी याद आते रहे , बहुत कुछ एक जैसा ही लेखन !

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  12. तीन बार पूरी कहानी पढ़ डाली और यकीन मानिए तीनो बार आँखे नम हुई बी ,तन्नी रंगी बाबू ,जमाल और यहाँ तक रंगी बाबु का पूरा परिवार मेरे आस पास ही घूम रहा है,ये कहानी मैंने पढ़ी नहीं जी है .... पर बहुत जल्दी ख़त्म कर दी आपने

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  13. @ वाणी जी ,
    आपने मनोहर कहानियों से क्यों जोड़ा ? :)

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  14. मनोहर कहानियाँ का स्तर आजकल इतना ऊँचा हो चुका है..!!

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  15. मैं मनोहर कहानी के पूरे कांसेप्ट की बात नहीं कर रही हूँ . इसके नाम पर मत जाएँ . इनमे भी कुछ अच्छी सधी हुई कहानिया मिल जाती थी, और ऐसी कहानियों के लेखक सुरजीत हुआ करते थे .
    पढने का शौक रखने वाला तो पढने लायक अच्छा साहित्य कही भी ढूंढ लेता है!

    कहानी दुबारा पढने नहीं आती तो इस वाद-विवाद का पता ही नहीं चलता . ये ब्लॉगर इतने शंकालु क्यों होते हैं :)

    और ये आजकल की बात भी नहीं है ! आजकल तो ब्रांडेड उच्च साहित्य में भी फूहड़ता मिल जाती है !

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  16. ’लघु उपन्यास या लंबी कहानी’ जो भी कहें, है सहेजने लायक। प्रिंट करवा कर रखना होगा।
    अली साहब ने जो घापल्य की बात की है, हमारा भी समर्थन है उसे। वाणी जी को ’सुरजीत’ का लेखन याद आया और मुझे मेरे प्रिय लेखक ’आशुतोष मुखर्जी’ का स्टाईल दिखा।
    आचार्य, मातृपूजा का यह रंग बहुत अनूठा रहा।

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  17. इस कहानी के पहले भाग को फेसबुक पर शेयर किया था तो यह लिखा था - 'आसान लिखने की एक कोशिश' :) लेकिन बाद में कोशिश नहीं करनी पड़ी, प्रवाह पा गया तो लिख गया।

    आप सबने अपनी बहुमूल्य टिप्पणियों से इस कहानी को नवाजा, इसके लिये आभार और बहुत बहुत धन्यवाद।

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  18. विलम्ब से टिप्पणी के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ आर्य!

    पूरी कहानी एक ही सांस में पढ़ गया .....

    इस कहानी की सबसे आकर्षक बात इसकी सरल भाषा और शब्द चित्रों का प्रभावशाली प्रस्तुतीकरण रहा .....

    सच कहूँ कि इस कहानी को पढ़ने के बाद कई दिनों तक नींद ठीक से न आई .....
    आँखों में तन्नी और बी घूमते रहे .

    इस कहानी में ये दोनों चरित्र बहुत सशक्त दिखे हैं ...

    ऐसी कहानी काल्पनिक हो ही नहीं सकती ......
    क्यों कि बार बार कहानी आत्मकथा के रस से नहाई हुई लगी .....
    साधुवाद!

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  19. २ घंटे से सोच रहा हूँ कि टिप्पणी नहीं करूँगा इस पर।
    इतने योग्य नहीं हूँ, ये तो सीधी बात हुई, लेकिन समय रुक गया।
    नहीं! रुका नहीं, पीछे लौटा।
    मैं एक अनदेखा पर शायद चीन्हा युग देख आया। यह चित्रण, यह सम्प्रेषण, या शब्दावली!
    आर्य! गदगद हूँ।
    आभार छोटा शब्द है, कभी अधिक योग्यता हुई तो कुछ और कहूँगा। अभी के लिए, साधु!

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  20. उत्तर
    1. आभी एक सांस मे पडते हुए अाखिरी किश्त पूरी की, लगा कि मातर् नवमी का अनुष्टान करके बी की शक्ति अपने मे ला पाने का वर मांगू

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  21. रंगी बाबू तो बहुत होते हैं, बी, कोई कोई ही होती है... बी को नमन्।

    मुझे डर था बी का संबंध कहीं विमला के गांव से न निकल आए, ऐसा होता तो कहानी और उलझ जाती, दूसरा पोर संभालना मुश्किल हो जाता, संभवत: कहानी जितनी आगे बढ़ी है, उतनी ही पीछे की ओर लौटती, खैर कर्ज और सवा रुपए के नमक पर बी जिंदा रही, कहानी कुछ जल्‍दी खत्‍म हो गई।
    इस प्रकार के आक्षेप के लिए माफी चाहता हूं, लेकिन बी की गहराई कर्ज तक सिमटी नहीं हो सकती... बांझ बी और विमला के गांव का संबंधी जरूर होना चाहिए।

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    उत्तर
    1. क्या बात है! विमला और बी के गँवई संबंध का उल्लेख और बुजुर्गों की मित्रता का संकेत भर कर के आगे बढ़ना उपयुक्त था वरना उपन्यास लिखना पड़ता। अच्छा होता। बारीक पढ़ाई और इस टिप्पणी के लिये आभार।

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  22. सांस रोके-रोके एक के बाद एक सातों किश्तें लगातार पढ़ गया. सभी पात्र और उनका परिवेश आँखों के सामने सजीव चलचित्र की तरह चलता रहा. अद्भुत, मार्मिक. बहुत लम्बे समय बाद इतनी सुन्दर कथा पढ़ने को मिली. आप कलम के जादूगर हैं. कभी आपके लेखन में रेणु जी दिखते हैं और कभी प्रेमचंद. इस कथा में शरतचंद्र की ऊंचाई और गहराई है. लेकिन आप तो आप ही हैं. जिस तरह आपने तीनो नारी पात्रों -- बी, तन्नी और विमला के मन की गहराई को नापा और प्रस्तुत किया वह परानुभूति और सहनुभूति की आपकी गहरी अंतर्दृष्टि को आलोकित करता है. आप कृपया मेरी टिप्पणी के उत्तर में कुछ न लिखिए. हिंदी जगत एक महान कथाकार की बाट जोह रहा है. उसे छिपाए न रखिये. छापिये. मैंने एक चलचित्र-निर्देशक फेसबुक मित्र को इस कथा का लिंक भेजा है. जय जय.

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