रविवार, 6 नवंबर 2011

समय ओ धीरे चलोऽऽ


... गूँजता है एक गँवई स्वर,
पढ़े लिखे गँवई का जिसमें - 
मिट्टी की सोंधी गन्ध, बहती गंगा की कलकल, 
झरती पत्तियों की आहट, दूब को नहलाती ओस, 
झमाझम बरसते सावन की धुन, 
हवा में दूर खोते बाँसुरी के स्वर ...
सब, सब हैं, अपनी सारी सरल स्वाभाविकताओं के साथ, कहीं कोई दूषण नहीं।
समय किसका हुआ? देह को जाना था, गई; आत्मा को पिया से मिलना था, मिल गई
 हवाओं में रह गये रह रह गाते स्वर अमर हैं।
 उड़ती हवाओं वाले यहाँ हमेशा मिलेंगे...उन्हें सुनते समय रुक जाता है, वाकई।
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समय ओ! धीरे चलो 
बुझ गई राह से छाँव 
दूर हैऽऽ, दूर है पी का गाँव 
धीरे चलोऽऽ 

ये हवा ऽऽ सब ले गई,
कारवाँ के निशाँ भी उड़ा ले गई
उड़ती हवाओं वाले मिलेंगे कहाँऽऽ 
कोई बता दो मेरे पिया का निशाँऽऽ 
धीरे चलो
धीरे चलोऽऽ। 
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11 टिप्‍पणियां:

  1. एक कली दो पत्तियाँ, जैसे गीतों से चाय बगान में पत्तियाँ तोडती हुई स्त्रियों के चित्र आँखों के सामने खींच देने वाले विशेष प्रतिभावान कलाकार को सादर नमन एवं श्रद्धांजलि!

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  2. दुखद, गंगा से सभ्यता के बारे में प्रश्न पूछने वाला चला गया।

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  3. प्रश्न पूछते-पूछते आखिर थककर चिरनिंद्रा में सो ही गया माँ की गोद में..माँ का दुलारा।
    विनम्र श्रद्धांजलि।

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  4. कोई बता दो मेरे पिया का निशाँऽऽ



    @देवेन्द्र पाण्डेय जी के शब्द हैं ...
    प्रश्न पूछते-पूछते आखिर थककर चिरनिंद्रा में सो ही गया

    यही सत्य है.

    साथ ही पिता जी की यादें फिर ताजा हो उठीं, वो रुदाली फिल्म की औडियो कैस्सेट स्पेशल लाये थे... और तभी से हमने जाना था - धरती माँ के इस सपुत्र को.

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  5. नैसर्गिक मनुष्य, नैसर्गिक आवाज, नैसर्गिक कलाकार।
    हार्दिक श्रृद्धाँजलि.

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  6. श्रद्धांजलि..इश्वर इन्हें शांति प्रदान करें..

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