मंगलवार, 15 नवंबर 2011

यू पी का एक भिखमंगा ठाकुर यानि कुहरे में कन्फ्यूजन

आज सीजन का पहला कुहरा है। मेरे मन की स्थिति भी कुहरीली है। कुहरा सदा से सम्मोहित करता रहा है लेकिन आज कुछ ठीक नहीं लग रहा। कारण कई हैं, सब खबरों से जुड़े जिन्हें सचाई भी कहा जाता है। विगत कुछ दिनों से कॉलोनी के पार्क की सफाई में हमलोग लगे हैं। मेरी चुप्पी रंग लाई और बरसात के बाद से ही लोगों को लगने लगा कि पार्क जंगल हो गया है और कुकर्म पुन: होने लगे हैं। मैं खुश हुआ कि शाम के अन्धेरे में झाड़ियों में सरकती जींस के साथ ‘लंच’ लेती बालाओं और ‘लंच’ को ठूँसते आनन्दवादी लौंडों के मुकाबले लोग चेतन हुये हैं। सुबह टहलती हुई मंडली को ‘प्रात के दुधिये’ प्रत्यक्ष न कह कर उन्हें सुनाते रहे, यह सोच कर कि बात सही जगह पहुँच ही जायेगी। परिणाम यह हुआ कि जब भिक्षाटन को उत्साही मंडली निकली तो अभूतपूर्व सहयोग के दर्शन हुये।

मन प्रसन्न रहा लेकिन ये खबरें! आज की बड़ी खबर हैं – राउल, जिन्हें अरसे बाद बालदिवस पर अपने पर(?)नाना का फूल याद आया और उनकी बचकानी सभा। अहिरमुसलमाँ पार्टी से जुड़े कथित कार्यकर्ताओं ने उसे काले झंडे दिखाये और परिणामत: केन्द्रीय मंत्री, महासचिव, सांसद, अध्यक्ष आदि के लात घूँसे सहने पड़े। मुझे यकीन हुआ कि खोल भले अलग अलग हों सब *षड़ी के एक ही टाइप के पशु हैं। रविवार को बाभन चेतना रैली में ठाकुर मुख्यमन्त्री का हौवा दिखाया गया जिसके बदले में दैवी शक्तिमयी न्याय की देवी उपाधि पाई गई। ‘ठाकुर बाभन बनिया चोर, बाकी हैं सब डी एस फोर’ और ‘तिलक, तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार’ की थीसिस एंटीथीसिस होते हुये सर्वजनवादी सिंथेसिस तो पाँच साल पहले गुपचुप हुई लेकिन अब मंच से दहाड़ते हुये विघटन की थीसिस का नगाड़ा पीट रही है। यू पी में बाभनों और बबुआनों की सनातन प्रतिद्वन्द्विता जगजाहिर है और मैं देखता हूँ कि अब मेरे ब्लॉगों पर अधिकतर पाँड़े, मिसरा, सरमाजी टाइप के लोग ही कमेंट करते हैं जब कि मैं ठाकुर हूँ। शायद मेरे भीतर ‘बन्दउँ प्रथम महीसुर चरना’ वाला ब्राह्मणवाद जीवित है, इसलिये! दलित की भाखा में कहूँ तो सब सबर्ण एक ही तार, इनको मारो ... कंफ्यूजन यथावत है लेकिन मुझे अभी भी मिसरा श्रेणी के उस ईमानदार नौकरशाह से सहानुभूति है जो एक घपले से पर्दा उठने के खतरे को भाँप प्रेस में बात बता कर ‘पगला’ गया। मुझे यकीन है कि वह बाभन भी है।
       
ठाकुर से याद आया कि एक पीढ़ी पहले तक सर्वहारा टाइप के ठाकुरों और अहिरों के बारे में एक उक्ति कही जाती थी – दोनों की बुद्धि घुटने में होती है। वह जमाना बाऊ और मुनेसर टाइप के लोगों का था जिनकी गोल बिना मिसिर के पूरी नहीं होती थी। आजकल तो एक ओर नामवर और रजेन्नर टाइप के तो दूसरी ओर अमार और दिगहगन टाइप के अहिर-ठाकुरों का जमाना है जब कि हिन्दी ब्लॉग जगत में आलसी की पंचम के साथ छनती है और उस पर न तो मिसरा को परेशानी होती है और न सरमा को। पाँड़े तो खैर सबको दू तीन शब्दों में निपटाते हुये समतामूलक समाज की छवि दिखाते ही रहते हैं। वैसे मुझे हमेशा से शक रहा है कि वे पढ़ने के बाद टीपते हैं या टीपने के बाद पढ़ते हैं। मैं इतना कन्फ्यूज हो गया हूँ कि तारतम्य में लिख भी नहीं पा रहा।

याद आया है कि जिस जमाने में कु-ग्रेस पार्टी बाभन और हरिजनों के सहजोग से यू पी में नई दिल्ली तिवारी टाइप के रसिया को गद्दी पर बिठाये रखती थी तब मेरे हरिजन हरवाहे ने बबुआनों के दूसरी ओर झुकाव पर एक बात कही थी – बाभन ठंडी जात होते हैं, उनसे परेशानी नहीं है। परेशानी अहिरों की उज्जडई, बबुआनों की लफंगई और बनिया की डाँड़मरई से है। चक्का घूम फिर कर वहीं आ गया है, बस सेंटर बदल गया है चुनांचे अगर मुझसे अधिक कोई कन्फ्यूज हुआ है तो वह है मुसलमान। गये हफ्ते राष्ट्रवादी पार्टी के एक नेता मेरे यहाँ पधारे थे। ठीकेदारी में अपने घपलों की लिस्ट को गर्व पूर्वक गिनाने के बाद उन्हों ने राज़  बताने जैसे अन्दाज में कहा – यू पी को चार भागों में बाँटना एक सोसेबाजी है, हमलोग इसे कभी नहीं होने देंगे। जिस दिन पूर्वांचल बन गया उसी दिन एक ‘मिनी पाकिस्तान’ की नींव पड़ जायेगी। जरा डेमोग्राफी देखिये... मैं उनकी राज़ की बात को राउल की यू पी के भिखमंगों से जोड़ कर देखने की असफल कोशिश कर रहा हूँ।
          
देर रात यू पी वाले भिखमंगे हैं या नहीं इस पर बहस को ऊँघते सुनते हुये सो गया। सुबह घना कुहरा देखा तो बिना श्रीमती जी की ‘व्यक्तिगत आलोचना’ की परवाह किये पार्क के राउंड पर निकल गया – हरामखोर बंगलादेसिये और झुग्गी वाले धुन्ध का फायदा उठा पार्क के किनारे हग न रहे हों! कोई नहीं मिला – सीजन का पहला कुहरा है, मौके का फायदा उठाने में समय लगेगा। सुकून के साथ आया और अखबार उठा लिया कि खुले में शौच की सनातनी भारतीय प्रवृत्ति पर जयरम्मी दृष्टि पर नज़र गई। खुले में हगने वालों में 60% भारतीय हैं (आधे भरे गिलास की तर्ज पर यह आप पर निर्भर है कि आप संतुष्ट हों - 40% और हैं या परेशाँ - एक अकेले देश में ही बाकी संसार से संख्या डेढ़ गुनी अधिक है)। ऐसे अनेक इलाके हैं जहाँ मोबाइल तो है लेकिन शौचालय नहीं हैं। अब मैं जयरम्मी को कैसे बताऊँ कि उपयुक्त जगह की तलाश में बाइक से निकले हासिल-ए-मंजिल जवान को मोबाइल से ‘जगह’ के बारे में बताते मैंने स्वयं सुना है? फिलहाल तो मुझे बस इस बात की खुशी है कि ‘बिकास की बास’ मेरे अलावा किसी और को भी लग रही है और वह सत्ता में है, मैं उसके आगे की सोच अपनी सोच का जायका नहीं बिगाड़ना चाहता...

एक बार एक पंडी जी से मैंने शौच के सही तरीके के बारे में पूछा तो उन्हों ने नाक सिकोड़ दिये। मैंने कहा कि यह एक महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है, इतनी है कि ‘सकल सौच करि राम नहावा’ जैसी बात तुलसी तक ने लिखी है। वाल्मीकि और मनु ने भी उस ओर संकेत किये हैं। उनकी नाक ठीक हुई और आँखों में वही अविश्वास सा दिखा जो किसी अद्विज जाति के प्रतिभाशाली व्यक्ति से पाला पड़ने पर ‘नस्ल सुधारने’ जैसी प्रतिक्रिया में अभिव्यक्त होता है। अब मैं तो तथाकथित द्विज ठहरा सो उन्हों ने कुछ कहा नहीं (ये बात अलग है कि ‘काशी का अस्सी’ पढ़ने के बाद से द्विज मीमांसा की मेरी सोच में विस्तार हुआ है) और बताया कि ‘शास्त्रीय’ तरीका यह है कि हमेशा गोंयड़े से दूर जाया जाय। पूरब दिशा की ओर गुह्यद्वार न हों माने कि उत्तर दक्षिण दिशा में बैठा जाय। पहली किरण आप को नग्न न देखे माने कि सूर्योदय के पहले ही निपट लिया जाय। पोंछा न जाय माने कि भर लोटा पानी ले कर जायें; अंतिम बात जो उन्हों ने बताई और जो कोई नहीं करता – खुरपा ले कर निपटने जायँ। पहले गढ्ढा करें, उसमें मल त्याग करें (पेट खराब हो तो बड़ा गढ्ढा करें) और बाद में उसे खुदी मिट्टी से ढक दें। मैं उन्हें आज तक पंडित मानता हूँ, उस सर्वहारा बाभन की श्रेणी में रखता हूँ जिसने सूअर की आँखों से टपकते आँसू देख मल का स्वाद कसैला बता कर पुरस्कार जीत लिया था (यह कहानी मैंने बचपन में चन्दामामा में पढ़ी थी)।
      
... वैसे भीख वाली बात पर मुझे इस बात का भी यकीन हो गया है कि लोगों को शब्दशक्तियों की समझ नहीं है। अभिधा, लक्षणा और व्यंजना की समझ वाकई ऐतिहासिक हो चुकी है। मुझे राउल को यह सीख देने को भी मन कर रहा है कि किसी को ऊँचा उठाना हो तो कोई जरूरी नहीं कि हमेशा उसके ‘उस’ में बाँस करके टाँगा जाय, दूसरे रास्ते तलाशो। तुम्हारे नाना, दादी, पप्पा, अम्मा और न जाने क्या क्या ये काम बहुत पहले ही कर चुके हैं। मुकाबले में मौलिकता इस बात से आयेगी कि भिन्न भिन्न योनिजों को कैसे सोसल इंजीनियरिंग द्वारा इकठ्ठा कर अपना गधा साधा जाय (मैं उल्लू नहीं लिख रहा, उसे बुद्धिमान मानता हूँ)। मतलब ये कि बात को अब ‘उस’ से ‘इस’ पर लाना पड़ेगा।
लेकिन चाहे दारूबाज हवा मलाई हों या राउल, हम जैसे नखादों की सीख उन तक पहुँच नहीं पाती। जब पेट्रोल में एथेनॉल मिलाना शुरू हुआ तो एक दारूबाज सेठ जी ने कहा था,”पहले ड्राइवर ही पीकर चलाते थे, अब गाड़ियाँ भी पी कर चलेंगी। बेड़ा गर्क हो इस देश का!”
देश का तो होइये रहा है, राजामच्छीमार-हवालाइन का भी हो गया। हमरे एक कक्का कहा करते थे कि अगर बेवकूफ के पास धन हो तो होशियार के बच्चे ऐश करते हैं। मलाई बिजै यही मान उधारी पर चलते रहे, गर्मागर्म कैलेंडर निकालते रहे और उमस को द्राक्षा से दहकाते रहे लेकिन अंतत: सब हवा हवाई हो गया। बेड़ा गर्क हो गया। हवाई जहाज दारू पी कर नहीं चलते सो संकट की घड़ी आ गई है। जिस शख्स के मुँह में स्कॉच और ‘उस’ में बाँस डाल कर ठोस ईंधन आधारित रॉकेट से अनंत की ओर रवाना कर दिया जाना चाहिये, उसे उबारने की बात की जा रही है। लोग भूल गये हैं कि दारूबाज कभी नहीं उबरता, यह भिखमंगा तो दूजे और कई नशों की गिरफ्फ में है।

मुझे लग रहा है कि मैं इस देश में एलियन हूँ। कुछ कर नहीं पा रहा इसलिये आलोचना ही कर के संतोष कर ले रहा हूँ। शोषक समाज से जुड़े (और उस पर कभी न लजा कर यह गर्वोक्ति करने वाले कि वास्तविक दुनिया लेखन की दुनिया से अलग होती है) एक शख्स की बात से बात समाप्त करता हूँ:


मत कहो आकाश में कुहरा घना है
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है।

मैं अपनी दुनिया में सिमटना चाहता हूँ लेकिन भीतर की बेचैनी का क्या करूँ? 
                                 

30 टिप्‍पणियां:

  1. वे पढ़ते भी हैं?
    बाकी तो आपने गागर में सागर भरा है आज ...
    पढ़कर पत्नी जी को पूरा शब्दशः सुनाया है ,समवेत ठहाके लगाये हैं ....
    विश्वास न हो तो फोनिया के पूछ लें ...मिसरा पर भरोसा अगर न हो तो ...

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  2. सबके लिये कई बार पढ़ने योग्य पोस्ट।

    ऊपर से दिखने वाले अतिसतही अन्तरों में अपनी राजनीति का चीरा ठूँस कर नित्य स्वार्थों की चोटों से यह वटवृक्ष काटने के प्रयास चल रहे हैं।

    कई जगह यह तथ्य लोगों को समझ में आ गया है, कई जगह आना है।

    ठूँस लो, जो ठूँस सकते हो। पर जिस दिन यह छल खुल गया, सूद समेत सब वापस ठूँसा जायेगा, न पूछना तब, कहाँ कहाँ।

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  3. पढ़ कर मन्द मन्द मुस्काये जा रहा हूँ और सोच रहा हूँ कि 'उसके' 'उसमें' औ भिखैती के 'तिसमें' से कैसे पार पाया जाय :)

    वैसे मन तो मेरा भी बहुत उचाट हो गया जब कल राउला की बात सुना। सिरीमान जी ने जो अब तक किसी ने न कहा था वह माइक से भरी सभा में कहा और तमाम खंभेबाज बुद्धिजीवी 'लंणचट्ट' बने 'बकार' बूंकते रह गये :(

    वो एक कहा जाता है न - 'गढ़त गढ़त एकदम से गढ़ डारेन'.....वही हाल राउला की इस एक बचकाने बोल ने कर दिया।

    सुबह जब लिहाफ ओढ़े टांगों में टांगे हिलोरे राजाफिसर जैसे दारूबाज देर तक बिस्तर में पड़े होते हैं उस वक्त यहां मुम्बई के वही मेहनतकश सब्जीवाले सुबह चार बजे सब्जी मण्डी पहुंच कर उनके लिये ताजी सब्जीयां ढोते हैं, लेकिन कहां.....वो सब्जीयां तो उनके लिये हैं जो उन्हें खाते हैं....इस जैसे जमात के लिये वे गार्निशिंग मटेरियल होते हैं....ककड़ी खीरे की गोल चकत्ती आंखों पर रख ठंडक पाई जाती है, नींबू संतरे की गोल चकत्ती गिलास के कोर में फंसा डेकोरेटिव शेक्स पिया पिलाया जाता है.....मन तो बहुत है लिखने का लेकिन....

    जाण दो...मूड बनाकर लिखना होगा....वरना अल्ल्म गल्लम कुछ भी निकल सकता है.....आहत हुए मन की 'हूक' जो न कराये :(

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  4. सबके लिये कई बार पढ़ने योग्य पोस्ट।

    ham sahmat hai.....


    jai baba banaras...

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  5. उनके परनाना इटली के हैं, भारतीय नहीं !!!

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  6. ऐसा लग रहा है कि ब्लॉगर और जनता सब एलियन हो चली है तबही ना केवल आलोचना कर रही है, और जो कर सकती है वह तो मत के समय बतायेंगे। और जब ठेस लगे तबही मन की गहराई से शब्दों में गर्मी आती है, खैर आज दुई बार पढ़े आपकी पोस्ट और बहुत दिमाग पर जोर डालना पड़ा, हमें भी चोट लगी थी कल रात को जो दिमाग के द्वार से आज पोस्ट पर निकल चुकी है।

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  7. apne shabd-sastra se jo vaichark-sandhan kiye........ad-bhut.....

    rachiye.....rachte rahiye jab-tak vichron ko bhed dene ka shabd-sastra
    bacha hai......


    pranam.

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  8. जो सत्य की बात करेगा, अन्याय का विरोध करेगा, क्रान्ति की बात करेगा ....हम तो भाई पीटेंगे उसे ......हमारी यही संस्कृति बन गयी है. अब आप चाहें तो हमें असुर कह सकते हैं. हम उसमें भी खुश हैं......क्योंकि आपके कितने भी तडफड़ाने पर भी सरकार आपकी नहीं बनाने देंगे. हम असुर जो ठहरे .......और आप एलियन जो ठहरे...... राउल डी विंची अमर रहे ...इटली जिंदाबाद ! भारत भाड़ में जाए. (अगली बार राउल के घर के कुत्तों बिल्लियों को भी चुनाव में खड़ा करेंगे ताकि वे भी महान की श्रेणी में आ जाएँ )

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  9. एक सदी पहले कश्मीरी बाभन भी आये थे इलाहाबाद। काटजू, नेहरू, सप्रू --- पता नहीं गंगा के कछार में कोहरे का कितना लाभ मिला उन्हे।

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  10. घनश्याम पाण्डेय जी ने सर्वोत्तम टिप्पणी की है और सतीश पंचम ने सबसे निकृष्ट !

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  11. बेनामी जी,

    इस तरह की टिप्पणी वही कर सकता है जिसकी आपस में खूब छनती हो या जिससे कोई बहुत बड़ी कटुता हो। पोस्ट धयान से पढ़ेंगे तो मेरी बात समझ जायेंगे :)

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    1. सही कहा सतीश जी....!!!
      -शक्ति प्रताप सिंह विशेन

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  12. * इस तरह की टिप्पणी से तात्पर्य मेरी पहली वाली निकृष्ट टिप्पणी :)

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  13. कोई टिप्पणी नहीं सूझ रही है...
    बस पढ़ पढ़ के आनंद ले रहा हूँ...

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  14. फ़िल्म का नाम ध्यान नहीं आ रहा, खलनायक ने जब हीरो को ब्लैकमेल करने के लिये बंधक बनाये उसके भतीजे\भतीजी से फ़ोन पर बात करवानी चाही तो दूसरी तरफ़ से हीरो ने खलनायक के बच्चे की आवाज सुनवा दी।
    ये आपकी पोस्ट की बेचैनी वाली पंक्ति के संदर्भ में है। जनता के अंदर स्वाभिमान और आत्मसम्मान क्यों नहीं कायम रह पाता?

    उससे पहले तो जिसे कन्फ़्यूज़न कहा है वो प्योर फ़्यूज़न है आचार्य।

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  15. भाई जी..... एक एक शब्द ...ओह क्या कहें...

    ऊ सतीश जी कहे न कि " आहत हुए मन की हूक "....

    हम सबके उस प्राणघाती हूक जो शब्द आपने दिया हैं न ..... आत्मा तिरपित हो गया...

    साधु वाद है आपका..

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  16. मैं भी अपनी दुनिया में सिमटना चाहता हूँ लेकिन भीतर की बेचैनी का क्या करूँ?

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  17. भाई जी घुरिया घुरिया के मन आपके इस पोस्ट पर पहुँच जा रहा है...

    केवल विषय ही नहीं लेखन शैली के भी इस्कूल हैं आप...

    जदि , इजाजत दें तो इसको हम फेसबुकवा पर नथिया दें...

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  18. पोस्ट के रूप में उभरी भीतर की बैचेनी 'चक्रवात' समान लगी.

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  19. ई ठाकुर त कोहराम मचाये हैं इहाँ..! टी0वी0 मा रामायण देख्या रहा। जेहमा एक तीर निकसे तs अस निकसे कि अकाश में जाई के तीरन कs बर्षा हुई जाये। बिछ जाये लहास पे लहास। सही कहेन ओझा जी..गदर।

    पाण्डे कs टीप लम्बी हुई गई..! पढ़ि के कमेंट किये हैं..पक्का जानो।

    पंचम टिपियायेन तs एक जने घबराई के बेनामी हुई गएन! का जानि का समझेन का नाहीं। लागत आ कि हमहीं नाहीं समझे ठीक से। फेरि पढ़े के पड़ी एहका।

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