भूपेन हजारिका लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
भूपेन हजारिका लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

रविवार, 6 नवंबर 2011

समय ओ धीरे चलोऽऽ


... गूँजता है एक गँवई स्वर,
पढ़े लिखे गँवई का जिसमें - 
मिट्टी की सोंधी गन्ध, बहती गंगा की कलकल, 
झरती पत्तियों की आहट, दूब को नहलाती ओस, 
झमाझम बरसते सावन की धुन, 
हवा में दूर खोते बाँसुरी के स्वर ...
सब, सब हैं, अपनी सारी सरल स्वाभाविकताओं के साथ, कहीं कोई दूषण नहीं।
समय किसका हुआ? देह को जाना था, गई; आत्मा को पिया से मिलना था, मिल गई
 हवाओं में रह गये रह रह गाते स्वर अमर हैं।
 उड़ती हवाओं वाले यहाँ हमेशा मिलेंगे...उन्हें सुनते समय रुक जाता है, वाकई।
________________________    

समय ओ! धीरे चलो 
बुझ गई राह से छाँव 
दूर हैऽऽ, दूर है पी का गाँव 
धीरे चलोऽऽ 

ये हवा ऽऽ सब ले गई,
कारवाँ के निशाँ भी उड़ा ले गई
उड़ती हवाओं वाले मिलेंगे कहाँऽऽ 
कोई बता दो मेरे पिया का निशाँऽऽ 
धीरे चलो
धीरे चलोऽऽ। 
___________________________