इंजीनियरिंग कॉलेजों की हर रात उन्मुक्त होती है और बोझिल भी - यौवन के उल्लास पर अपेक्षाओं का बोझ। शनिवार की रात वास्तव में रात सी होती है – शर्वरी, हिंस्र वनचर भरी। बस जीना होता है और कुछ नहीं। छात्र हिंसा के स्तर तक उन्मुक्त होते हैं – यदि स्वाभाविकता को हिंसा कहा जा सके और छात्रावासों को जंगल, तो। जैसा कि तुम जानती हो, मुझे रात उतनी नहीं सुहाती जितनी भोर, साँझ और दिन, हाँ दिन भी। मैं प्रारम्भ में वहाँ हास्य का पात्र था लेकिन शनै: शनै: सबने मुझे स्वीकार लिया। सोते की धार जैसे कुछ धैर्यधन पत्थरों को स्वीकारती है, वैसे ही।
वह दिन शनिवार का था, जब आधे दिन के बाद मचलती आत्मायें अपनी करने को मुक्त होतीं – कॉलेज सोमवार की दुखती प्रात तक के लिये बन्द हो जाता। दुपहर के भोजन के बाद जब सब सो गये तो आदतन मैं पुस्तकालय चला गया। कुरेदने के लिये शनिवार की दुपहर से भला अवसर नहीं होता। सबसे ऊपरी मंजिल पर मध्ययुगीन कलाकृतियों की भारी भरकम पुस्तक ले मैं रंगों में साँवलापन ढूँढ़ने लगा। तुम्हारी स्मृति के गौरांग जब बेचैन कर देते तो मैं यह करता। ढलते दिन से साँझ उतरने के पहले तक वहीं निहारता रहा और बाहर आ गया।
वह दिन शनिवार का था, जब आधे दिन के बाद मचलती आत्मायें अपनी करने को मुक्त होतीं – कॉलेज सोमवार की दुखती प्रात तक के लिये बन्द हो जाता। दुपहर के भोजन के बाद जब सब सो गये तो आदतन मैं पुस्तकालय चला गया। कुरेदने के लिये शनिवार की दुपहर से भला अवसर नहीं होता। सबसे ऊपरी मंजिल पर मध्ययुगीन कलाकृतियों की भारी भरकम पुस्तक ले मैं रंगों में साँवलापन ढूँढ़ने लगा। तुम्हारी स्मृति के गौरांग जब बेचैन कर देते तो मैं यह करता। ढलते दिन से साँझ उतरने के पहले तक वहीं निहारता रहा और बाहर आ गया।
गार्ड ने तलाशी ली तो मैंने कहा – सब कुछ मेरी आँखों में है, जेब क्यों टटोल रहे हो?
वह मुस्कुराया और बोला – क्यों कि आँखों की भूख जेबों से फटे पन्नों की शक्ल में निकलती है।
मेरे यह पूछने पर कि पिछ्ले रविवार वाली फिल्म देखी क्या, उसने हामी भरी और मैंने कहा – तभी शायर हो रहे हो।
वह मुस्कुराया और बोला – क्यों कि आँखों की भूख जेबों से फटे पन्नों की शक्ल में निकलती है।
मेरे यह पूछने पर कि पिछ्ले रविवार वाली फिल्म देखी क्या, उसने हामी भरी और मैंने कहा – तभी शायर हो रहे हो।
युकेलिप्टसों की पट्टी के छोर पर पहुँच कर मैंने साँस रोकी और तेज पग पगडंडी पार करने लगा। पार होते होते दम घुट चुका था। पानी की टंकी के नीचे आकर मैंने जोर से वायु को भीतर लिया और सिगरेट के लिये पॉकेट टटोलने लगा। यह शनिवारीय कर्मकांड था। चौराहे से एक ओर दूर हाइवे दिख रहा था जहाँ गेट की रखवाली बजरंगबली के जिम्मे थी तो दूसरी ओर दूर तक आम के वृक्षों की पंक्तियाँ जो एयरफोर्स स्टेशन के जंगल में ग़ुम हो रही थीं। जगुआर और मिराज हैंगरों में विश्राम कर रहे थे और अद्भुत शांति थी। यह एकांत मुझे प्रिय था। इतना प्रिय कि सदा सामने कमरे में रहने वाला मेरा यार सदाशिव भी मुझे इस समय अकेला छोड़ देता। सड़क का झुँझला देने वाला सीधापन मुझे मीठी पीर से भर देता।
यह सड़क हाइवे से जुड़ती है और हाइवे तुम तक पहुँचने का जरिया है। मैं कितना हाई जा सकता हूँ? बजरंगबली से अमिया मोड़ तक आते आते साँझ आने का आभास देने लगी थी। सुभाष और रमन भवन गुलजार हो चले थे लेकिन जनप्रवाह गेट की ओर था। मैं जंगल किनारे अब भी एकांत में था।
गोरे दिन की जंगली आँखों में सँवराये आँसू भर रहे थे – समय रोज रुलाता है! यही वह समय था जब मैं कलवर्ट पर बैठ सामने सूने फार्म के केन्द्र में खड़े उन दो ट्रैक्टरों को रात घिरने तक सिगरेट फूँकते घूरता रहता। लगता कि अब कि तब फट फट फट फट बोल उठेंगे और वृक्षों और जंगल से घिरी आश्चर्यजनक रूप से बंजर धरती पर शस्य लहलहा उठेगी। पर वैसा कभी नहीं होता। सिगरेट चुक जाती और सँवराये आँसू नीचे धरा पर गिर चारो ओर फैल जाते। रात हो जाती टप्प से!
इवनिंग या नाइट नहीं जिनमें कोई विभेद नहीं, साँझ और रात – स्पष्ट विभाजन। वापस चलो अब यहाँ न बैठो! मैं उदास तुम्हारी परछाईं को तलाशता वापस हो लेता – किसी शनिवार तो तुम आओगी...
लेकिन उस दिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। उस दिन ठीक मेरे स्थान पर कोई बैठा हुआ था। इस समय यहाँ कोई और? मुझे आश्चर्य हुआ और फिर क्रोध भी। मेरी जगह कैसे हथिया सकता है? और कोई जगह नहीं मिली उसे? उसे मेरे दृश्य में क्या रुचि हो सकती है? निकट पहुँचने पर पता चला कि वह एक लड़की थी। जंगल को घूरे जा रही थी, जैसे खरहे निकलने वाले हों और उन्हें पकड़ना हो। मैं ठिठक गया।
लड़की? यहाँ? इस समय? मैं खाँसता सा बोल उठा – एक्सक्यूज मी। उसने नहीं सुना। मैंने दुहराया तो उसने मुड़ कर मुझे देखा – गेहुँआ रंग, बड़ी बड़ी आँखें और आती रात के घनेपन का अनुमान दिलाते केश। वह सुन्दर थी। मैं खुल गया।
“...आप को अजीब सा लगेगा लेकिन क्या आप यह जगह खाली कर देंगी?”
उसके चेहरे पर नागवारी के भाव उमड़े और चले गये।
“तुम?” हेकड़ी के अन्दाज में परिचय पूछता सम्बोधन था।
“जी, मैं स्टूडेंट हूँ। रमन भवन में रहता हूँ।“
वह नरम हुई और सुलगती सिगरेट की ओर इशारा कर कहा – फेंक दीजिये। मैं टीचर्स कॉलोनी में मेहमान हूँ। यूनिवर्सिटी में पढ़ती हूँ।
मैं अब भी असहज था जिसे उसने भाँप लिया। अलग अलग भावों ने अपरिचय के संकोच को जैसे दबोच लिया था – तो आप को यह जगह पसन्द है?
मेरा बचा खुचा संकोच छू मन्तर हो गया।
“मैं यहाँ हर शनिवार को इस समय रात होने तक बैठता हूँ।“
“क्यों भला?” उसके होठों पर सहज मुस्कान थी।
“सुनेंगी तो हँसेंगी ... वास्तव में मैं यहाँ उदास होने के लिये आता हूँ... नहीं, आज का दिन ही ऐसा होता है। अगला दिन छुट्टी का जो होता है। मुझे यह समय बहुत खास लगता है।“
वह खिलखिला उठी – तो ऐसे खास समय आप वीकली उदास होने यहाँ आते हैं! लगता है किसी चक्कर में हैं।
मुझे हम दोनों के खुलेपन पर घनघोर आश्चर्य हो रहा था। भीतर कहीं उससे अधिक मैं स्वयं पर भौंचक था।
वह कलवर्ट से उतर गई – लीजिये, आप की जगह, अब खाली है।...किसी से आप के हॉस्टल में मिलना था तो आते आते यहाँ ठिठक गई। इसे समझ सकती हूँ लेकिन उदास होने के लिये नहीं। मैं सोच रही थी कि उससे मिलने ब्वायज हॉस्टल में इस समय जाना ठीक होगा क्या?
“तो आप अब हॉस्टल जा रही हैं?”
“नहीं। अब नहीं.. वापस कॉलोनी।“ उसने हाथ से इशारा भी किया।
मैं उलझ गया – ऐसा क्यों?
“आप मिल गये, समझिये वह मिल गया।“
रहस्य भरी मुस्कान लिये वह चली गयी। मैं दूर तक उसे उस पथ पर जाते देखता रहा जो बजरंगबली-अमिया रेखा के लम्बवत था और जिस पर दोनों ओर अशोक के वृक्ष लगे थे और जिसके किनारे पानी की टंकी नहीं पम्पिंग स्टेशन था।
फार्म के किनारे ट्यूबवेल अब भी सूखे थे। धरती अब भी बंजर थी। मैं कुछ अधिक ही उदास पगों से लौट चला। दृश्य निहारने का कोई अर्थ नहीं था। सिगरेट कब की बुझ चकी थी। मन में यह पंक्तियाँ उमड़ रही थीं:
साँझ आम सड़क सिगरेट
अचानक तुम ?
धुआँ गुबार दफन भीतर
लरजते आँसू रोक
तुम्हारी देह गंध
हवा में जोहता रहा
तुम दूर
बिना मुड़ कर देखे
(कहा नहीं जा रहा)
यूँ चली गई !
बस देखता रहा
कारे केश -
आग बुझी राख गिरी
कड़वाहट उतराई
याद आया वह दिन
जब पी थी
पहली सिगरेट ।
हूँ दीवाना
अकेले में अंगुलियों के पोर जोड़
होठों पर रखता हूँ
वह …तुम्हारे अधरों का स्पर्श
कहाँ?
कितनी दफे वर्कशॉप जाते
अपनी खाकी को भिगो
सूँघा है
कि गंध मिल जाय तुम्हारी
कहाँ… वह ऊष्मा कहाँ !
दिन की जीवन लहरियां
अब काठ हैं – तुम जो नहीं हो
जिन्दगी अब गन्धहीन है…
मेरे कमरे के बाहर
रातरानी सूख चली है –
माली कहता है
अब की गरमी
क्या लू चली है
यूँ ही भटकता हूँ
साँझ आम सड़क सिगरेट ।
… सिगरेट सिगरेट
छल्ले धुआँ धुआँ…
कुछ महीनों बाद किसी ने मुझसे जीवन का पहला और अब तक का आखिरी ऑटोग्राफ लिया। वही थी। सिल्वर जुबली सांस्कृतिक कार्यक्रम में यूनिवर्सिटी के दल में वह भी थी।
तुम जानती हो कि वह मेरी कौन है।
और यह भी कि तुम मेरी कौन हो।
यह कहानी तुम्हें सुनाते सुकून मिला है। जानती हो? अभी साँझ नहीं, शनिवार की सुबह चमकती धूप है। इस सप्ताहांत मैं हिंस्र हूँ, उन्मुक्त हूँ...अपनी कहो।
आईटीसी का मेड फार इच अदर.
जवाब देंहटाएंजहाँ सोच के जाइये कि खुशियाँ मिलेंगी, बस वहीं ही नहीं मिल पाती हैं खुशियाँ।
जवाब देंहटाएंअंत तक आते आते जब समापन हुआ - अपनी कहो !
जवाब देंहटाएंतो एक मुस्कान सी थिर गई .........अपना कॉलेजीय जीवन मैंने व्यर्थ गंवा दिया लगता है.......न यहां कहीं मुम्बई में टूबवेल होता है न वो भंभ ररता सूनापन........कम्बख्त कलेजा भी तो चाहिये सिगरेट फूंकने के लिये ........और वो कशिश कहां से लाते जो लैब में मेंढकों को चीरते......छितराते गुम हो चुकी थी.......चाक होना दूभर.......प्यार होना और दूभर :)
यह भी एक एक बड़ा अजीब सा अभिसार था ....और वह अभिसारिका भी कितनी रहस्यमयी......जीवन में ऐसा भी होता है होता है और नहीं तो जीवन की अतृप्तता ऐसे ही किसी वृत्तांत को गढ़ कर दिल को बहलाती है .. :)
जवाब देंहटाएंतुम जानती हो कि वह मेरी कौन है।
जवाब देंहटाएंऔर यह भी कि तुम मेरी कौन हो।
आत्मकथात्मक शैली में लिखी गयी यह पोस्ट मन की परतों को और पुराने दिनों को ताज़ा करती है.
शब्दों का सम्मोहन कुछ कहने लायक छोड़ने वाला नहीं...
जवाब देंहटाएंसो, क्या कहूँ...??
मजाक के लिए, माहौल को हल्का बनाने के लिए या सिर्फ टिप्पणी देने के लिए कुछ कहना... बेकार की बातें हैं... कौन कमबख्त इस पोस्ट पर टिप्पणी करने की जुरत कर सकता है...
जवाब देंहटाएंज़िंदगी में पहली बार सिगरेट का धुआँ, अगरबत्ती के धुएं की तरह महसूस हुआ... अभी तक उसके तिलिस्म से बाहर नहीं आ पा रहा हूँ!!
मैंने कहा – सब कुछ मेरी आँखों में है, जेब क्यों टटोल रहे हो?
जवाब देंहटाएंशनिचरी अमावस्या को पूनम का खामोश चांद
जवाब देंहटाएंवाह बहुत सुंदर.
जवाब देंहटाएंसिगरेट कभी पी नहीं सो सतीश पंचम की तरह अपना कॉलेजीय जीवन भी लगता है व्यर्थ ही गया (व्यर्थता की बात=जस्ट किडिंग)
जवाब देंहटाएंएक ऑटोग्राफ़? क्या किसी ज्योतिषी ने अब तक यह नहीं बताया कि निकट भविष्य में ऑटोग्राफ़ वालों की लाइन लगने वाली है?
इस कहानी को पढ़कर समझ नहीं पा रहा था कि क्या लिखूं..ब्लॉग के चित्र पर निगाह गई।..उल्लू और चाँद! दिल ने कहा..यही तो थे..!!
जवाब देंहटाएं..गज़ब!
"एक अजीब सी खामोशी और
जवाब देंहटाएंकुछ सर्द कहकहे मेरे अंदर बस गूंजते रहे बराबर ...."
its silence -that silences!"
गज़ब!
जवाब देंहटाएंआप जादू जानते हैं?
सिगरेट का नाम नहीं होता तो सवाल नहीं करता, यक़ीनन कहता।
नहीं कह सकता कि मैं इसे लिखना चाहता था किसी रोज, धन्य हूँ जो आप लिखते हैं ऐसा।
मन सुख से भर गया है। :)
'मैं धुआं कर दूंगा,इस दिल को हर कश के साथ
जवाब देंहटाएंदेखा गर किसी लम्हे मैं,तुझे रकीब के साथ'
एक और प्रेम कहानी...
और वही कमबख्त सिगरेट..
वह भी यों ही भटकने चली आई होगी!
जवाब देंहटाएंदिन की जीवन लहरियां
जवाब देंहटाएंअब काठ हैं – तुम जो नहीं हो...
.
जवाब देंहटाएं.
.
तुम जानती हो कि वह मेरी कौन है।
और यह भी कि तुम मेरी कौन हो।
जीवन का पहला और अब तक का आखिरी ऑटोग्राफ लेने वाली वह अगर आज उसकी जीवनसंगिनी नहीं है तो फिर किसी काम का नहीं है हमारा लेखक-कवि... :)
...
अपनी क्या कहें !
जवाब देंहटाएंऐसी पोस्ट पर 'सिगरेट फूंकना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है' का वार्निंग लगाना बनता है :)