बुधवार, 4 जुलाई 2012

कोणार्क सूर्यमन्दिर - 8 : परा इतिहास

भाग 12, 3, 4, 5, 6 और 7 से आगे...
यायावर को मिहिर के साथ मन्दिर के पूर्वी द्वार पर छोड़ हम इतिहास की स्वर्णिम वीथियों में प्रवेश करेंगे। यह नहीं पता कि मन्दिर में प्रवेश के पश्चात उनकी बातें कब किस ओर बह चलेंगी इसलिये यह इतिहास गवेषणा अभी करनी आवश्यक है ...  
... पहले की कड़ियों में पर्याप्त संकेत दिये जा चुके हैं कि मिथकों से इतिहास झाँकता है। झाँकते इतिहास से मैंने अब तक इन सम्भावनाओं की बातें की हैं:
(1)  लुप्तप्राय सरस्वती नदी के किनारे कभी फलती फूलती संस्कृति को विश्वामित्र की गायत्री और सूर्यपूजक गुर्जरों के सहयोग से ब्रह्मा ने एक नयी दिशा दी। सूर्य उपासना की यह धारा धीरे धीरे पूर्व दिशा की ओर बढ़ी। साथ ही पहले से स्थापित विष्णु और शिव उपासना पद्धतियों से उसका संघर्ष भी प्रारम्भ हुआ। उल्लेखनीय है कि विष्णु का विकास वेदों के जिस विष्णु देव से हुआ था वह वास्तव में सूर्य ही थे। ब्रह्मा की ध्वजवाहक यह वैकल्पिक उपासना पद्धति वैदिक मूल का ही पुनर्निरूपण थी। पूर्वी तट पर पहुँच कर इन उपासकों ने वहाँ प्राकृतिक रूप से उत्पन्न केवड़े के फूल को अपना प्रिय बनाया। अन्तत: संघर्ष और समन्वय के परिणामस्वरूप ब्रह्मा की उपासना पद्धति शमित हो गई किंतु सूर्य उपासक बचे रह गये।
(2)  पश्चिमी तट पर कृष्ण ने द्वारका पुरी बसाई। साथ ही दूर समुद्र पार देशों से व्यापार हेतु पत्तन का विकास भी किया। किसी व्यापारिक जलपोत में चढ़ कर यमपुरी यानि कि वर्तमान मालागासी (मेडागास्कर) पहुँच गये गुरु के पुत्र को वापस लाने कृष्ण स्वयं वहाँ गये जहाँ उनकी मित्रता पंचजनों और मगदेशी (साकल या शाकलदेश या शकद्वीप - वर्तमान ईरान) ब्राह्मणों से हुई जो सूर्योपासक थे।
जब कृष्ण के पुत्र साम्ब को त्वचा का कोढ़ हो गया तब उसे निरोग करने के लिये कृष्ण ने उन्हीं ब्राह्मणों को बुलावा भेजा। वे अपने साथ मालागासी की वनस्पति वनसरू ले कर आये। उपचार के लिये उन्हें प्राकृतिक रूप में जिस सूर्यकिरण अवशोषी वनस्पति की आवश्यता थी उसकी पहचान मदार या अर्क के रूप में हुई। उन्हें मीठे और खारे पानी का संगम और अपरिचय के एकांत की भी आवश्यकता थी लिहाजा कृष्ण ने उन्हें पूर्वी तट पर अर्कक्षेत्र भेजा जहाँ चन्द्रभागा नदी बहती हुई समुद्र से मिलती थी।
उपचार से साम्ब स्वस्थ हुये। मग ब्राह्मणों का यश और उनकी सूर्य उपासना पद्धति फैलते चले गये। पहले से ही सूर्योपासना की स्मृति जनमानस में होने के कारण उन्हें लाभ भी मिला। वे इस दृढ़ता के साथ स्थापित हुये और फैले कि वर्तमान बिहार का नाम ही उनके प्रभुत्त्व के कारण मगध पड़ गया और पूरे भारत में अनेक सूर्यमन्दिर स्थापित हुये। उल्लेखनीय है कि मौर्यवंश का संस्थापक चाणक्य, उस वंश का उच्छेदक पुष्यमित्र शुंग, कामसूत्र का रचयिता वात्स्यायन, आधुनिक आयुर्वेद का जनक चरक और प्रख्यात ज्योतिर्विद वाराहमिहिर, सभी मग ब्राह्मण थे जिन्हें मूल परम्परा के ब्राह्मणों ने या तो बहुत हेय दृष्टि से देखा या ब्राह्मण माना ही नहीं।
सूर्यपूजक मग ब्राह्मणों और पहले से ही विद्यमान देशी सूर्यपूजकों के सम्मिलन से एक अनूठी सूर्य उपासना पद्धति विकसित हुई जिसके अवशेष आज भी बिहार के पुरोहित विहीन छ्ठ पर्व में दिखते हैं।
साम्ब के कारण ही कोणार्क भी एक स्थापित पत्तन बना और बहुत बाद तक बना रहा। इसका एक  प्रमाण पेरिप्लस द्वारा उसका उल्लेख है।
अब प्रश्न यह उठता है कि जब विष्णु और शिव की उपासना पद्धतियाँ प्रबल थीं, जब कि पुरी में कृष्ण स्वरूप जगन्नाथ स्वयं विद्यमान थे, भुबनेश्वर में लिंगराज शिव विराज रहे थे तो राजा नरसिंह देव को पुन: सूर्यपूजा स्थापित करने के लिये सूर्यमन्दिर बनाने की क्या आवश्यकता आन पड़ी?
इसका उत्तर यह है कि सूर्यपूजा लुप्त नहीं हुई थी, प्रचलित थी। चन्द्रभागा तट पर साम्ब का लघु सूर्यमन्दिर श्रद्धा का केन्द्र था और राजा पर कुछ नया करने की धुन सवार थी। उनके ऊपर अपनी सूर्यपूजक माँ का भी प्रभाव था। एक और सशक्त कारण था जिसके सूत्र मग ब्राह्मण चाणक्य की कूट युद्धनीति से जुड़ते हैं और जिसे पारम्परिक धर्मबुद्धि ने सर्वथा  हेय माना।
लेकिन उसके पहले एक और मिथकधारा जो कि इतिहास के बहुत निकट है - हमें पुरी के भगवान जगन्नाथ के इतिहास को भी जानना होगा।
भारत में मिलती जुलती उपासना पद्धतियों के हजारो वर्षों तक चलने वाले सम्मिलन से नयी उपासना पद्धतियों के विकसित होने का यह सबसे बड़ा प्रमाण है। 
प्राचीन स्रोतों में जगन्नाथ नाम नहीं है। पुरी को पुरुषोत्तमक्षेत्र कहा गया है। कौन थे यह पुरुषोत्तम?
पुराण कहते हैं कि एक राजा इन्द्रद्युम्न को स्वप्न में यह संकेत मिला कि पुरी तट पर स्वयं भगवान विष्णु स्थापित हैं जिनके दर्शनमात्र से अनंत पुण्य की प्राप्ति होती है। विष्णु नीलमाधव यानि नीलम पत्थर के प्रतिमा रूप में ऐसे गुप्त स्थान पर थे जिसे केवल शाबर कबीला जानता था। शाबर टोने टोटके जानने वाली और वृक्ष पूजक एक प्राचीन वनवासी जाति है जिसे इतिहास में ‘सौर’, ‘सावर’, ‘सबर’ आदि नामों से भी जाना जाता है। माधव शब्द चौंकाता है, साथ ही सौर भी। आज का यह सच भी चौंकाता है कि सकलदीपी ब्राह्मणों को टोने टोटके में सिद्धहस्त माना जाता है।
 मधु कैटभ नाम के दो दैत्यों का वध करने के कारण विष्णु को माधव कहा जाता है। कथा है कि विष्णु की नाभि से कमलासीन ब्रह्मा का प्रादुर्भाव हुआ जिन्हें सृष्टि रचना का कार्य सौंप विष्णु योगनिद्रा में लीन हो गये। सोते समय उनके कानों की खोट से मधु और कैटभ का जन्म हुआ जिन्हों ने सृष्टि निर्माण की राह ढूँढ़ते तपलीन ब्रह्मा को खूब सताया। बाद में विष्णु ने उनका वध कर ब्रह्मा की राह प्रशस्त की।
पृथ्वी पर का जीवन सूर्य की देन है। दहकती पृथ्वी पहले जलप्लावित हुई फिर धीरे धीरे सृष्टि से युक्त हुई। विष्णुरूपी सूर्य का क्षीरसागर शयन इसी को इंगित करता है। नाभि, कमल, ब्रह्मा और मधु कैटभ द्वय भी किसी अनजान खगोलीय तथ्य के अबूझ संकेत भर हैं।
खगोलीय घटनायें मिथक बनीं। मिथकों से अनेक कथायें जन्मीं। छाया सूर्य की पत्नी हो गयी। उसके साँवलेपन और अद्भुत तेज राशि के साथ भ्रमण करते सूर्य के साम्राज्य नभ की नील रंगत का आभास कराती सूर्य प्रतिमायें धरती पर नीलकृष्ण पत्थरों से बनने लगीं। प्रात:काल गर्भगृह में इन प्रतिमाओं को सूर्यरश्मियाँ प्रकाशित करती थीं।
उल्लेखनीय है कि कुशीनगर जिले की सूर्यप्रतिमा नीलम पत्थर की बनी है तो कोणार्क की तीनों सूर्यप्रतिमायें भी नीलहरिताभ क्लोराइट पत्थर की। अन्य स्थानों पर भी सूर्य की नील प्रतिमायें पाई गई हैं। इन सबके मूल में वही सूर्य उपासक वृक्षपूजक ‘सौर’ यानि शबर जाति के आराध्यश्रेष्ठ नीलमाधव हैं। वैष्णवों का पवित्र श्यामल शालिग्राम भी इसी से जुड़ता है।
राजा इन्द्रद्युम्न के दूत को कबीले के सरदार ने बताया था कि राजा आयेंगे भी तो दर्शन नहीं होंगे क्यों कि ‘यम’ से किये वादे के अनुसार तब तक ‘नीलमाधव’ रेत में विलीन हो जायेंगे। इस बात में कृष्णयुग के यमक्षेत्र की धमक है। राजा जब पहुँचे तो नीलमाधव वस्तुत: रेत में विलीन हो चुके थे।
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राजा को उनके स्थान पर वृक्षस्तम्भ पर उकेरे भयानक देवता से सामना हुआ। शाबरों में यमक्षेत्र से लाये गये वनसरू की स्मृति था वह स्तंभ और साथ ही स्थानीय वृक्षपूजा की परम्परा का पूज्य प्रतीक भी! बड़ी विकराल आँखों वाले भयानक देवता की पहचान राजा ने अपने सनातनी संस्कार से की – नृसिंह या नरसिंह!
पशु और मनुष्य के बीच की, नागर और वानर के बीच की, स्थापित परम्परा और विकल्प के बीच की कड़ी यानि नरसिंह। यही नरसिंह पहला पुरुषोत्तम हुआ।
नरसिंह जो कि विष्णु का अवतार है, विष्णु जो कि सूर्य का विकास है; आश्चर्य नहीं कि कोणार्क में सिंह और सिंहसवार नर की विजयी मूर्तियों की बहुलता है। कोणार्क में सूर्यपूजा की परिपाटी को पुन: गौरवमंच दिलाने की राह में भुबनेश्वर के लिंगराज शिव रोड़े नहीं थे बल्कि आड़े थे एक और सूर्यरूप यानि पुरी के विष्णु जगन्नाथ!
आश्चर्य नहीं कि इन्द्रद्युम्न को वृक्षरूप ईश्वर यानि दारुब्रह्म तक पहुँचाने वाले कोई और नहीं बल्कि ब्रह्मा के पुत्र यानि उनके उत्तराधिकारी नारद थे। क्या चाहते थे नारद? पिता का प्रतिशोध – विष्णु के समांतर एक सर्वथा नये देव की स्थापना? नीलाम्बुज श्यामल विष्णु की नील प्रस्तर प्रतिमा का स्थान लकड़ी के बने काले नरसिंह ने ले लिया।
बड़े का अहम भी बड़ा। कालान्तर में प्रथम पुरुषोत्तम नामधारी राजा नरसिंहदेव के मन में कहीं समय गंगा को उल्टा बहा पुन: नीलप्रस्तर को स्थापित करने की महत्त्वाकांक्षा तो नहीं थी? नीलमाधव नहीं नीलार्क! जिसके लिये उन्हों ने दारु यानि वृक्षतनों पर सवार पत्थरों के अवरोध और बहाव से छेड़छाड़ द्वारा मृतप्राय चन्द्रभागा नदी की बलि ही दे डाली!   
मिथकों की आड़ से इतिहास निकल कर सामने आ गया है। राजा इन्द्रद्युम्न के ऐतिहासिक रूप की पहचान हो चुकी है और नरसिंहदेव तो इतिहासपुरुष हैं ही...
...यायावर मिहिर के साथ व्यस्त है, उन दोनों को व्यस्त रहने दीजिये क्यों कि इतिहास तो खुल कर अब आया है सामने! पुरुषोत्तम के विकास की कहानी का एक पड़ाव तो सूर्यमन्दिर की भित्ति पर भी चित्रित है।
साथ बने रहिये। (जारी)

12 टिप्‍पणियां:

  1. साथ तो नहीं - आपके पीछे पीछे अवश्य बने रहेंगे इस यात्रा में | ऐसा प्रतीत होता है कि, इतिहास और मिथक के स्वप्निल संसार में, खुद ही यात्रा कर रही हूँ किसी जादुई गलीचे पर बैठ कर | इतने जीवंत हैं आपके वृत्तान्त, आभार आपके इस उत्कृष्ट वर्णन का |

    बहुत से प्रश्न उठते हैं भीतर, पर पूछूं, तो तारतम्य भंग होता है, तल्लीनता टूट जाती है | सो उन्हें भीतर ही सुला देती हूँ थपकियाँ देकर | आपकी यह अनूठी यात्रा पूर्णता तक पहुंचे, तो फिर से एक बार शुरुआत से पढूंगी, और तब आपसे उन सोकर जागे प्रश्नों के समाधान लूंगी |

    अहोभाग्य कि इस ब्लॉग संसार में आई, आप लोगों से इतना कुछ जानने को मिल रहा है, जो अन्यथा कभी न हो पाता | आभार आपका |

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  2. भारत में मिलती जुलती उपासना पद्धतियों के हजारो वर्षों तक चलने वाले सम्मिलन से नयी उपासना पद्धतियों के विकसित होने का यह सबसे बड़ा प्रमाण है।

    मिथकों के साथ उपलब्‍ध इतिहास को जोड़े जाने का शानदार अनुभव कर रहा हूं। भले ही यह नया अनुभव न हो, लेकिन अपने तरीके का यह पहला अनुभव है... जब कोई लेखक यह काम कर रहा है और मैं देख रहा हूं। यानी पकते हुए देख रहा हूं।

    हृदय से आभार...

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  3. भैया जी,

    बहुत सवाल है मन मे, लेकिन मिल के ही जवाब लिया जाएगा.

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  4. "दारु" का अर्थ आपने जान लिया. अच्छा लगा.

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  5. भले उन्हें उनके प्रचलित स्थूल रूप में जस का तस मैं स्वीकार नहीं पाती ,पर मिथक मुझे कभी भी कपोल कल्पित नहीं लगते.सदैव ही मैं इस प्रतीक्षा और तलाश में रही कि कोई तो इन्हें डिकोड करे. आज मैं अपने आह्लाद का बता नहीं सकती ..

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  6. अदभुत अद्वितीय वर्णन लेखनी को लिखने दें अपने उत्कृष्ट विचार।

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  7. आप इस तरह लिखते हें कि पाठक साथ देने को विवश हो जाए। इस दक्षता के लिये बधाई। मेरे मन में कुछ लालच भरे सवाल हैं। क्या आप कभी चर्चा के लिये उपलब्ध होते हैं? संदर्भ और विषय प्राचीन भारतीय सभ्यता और उपासना शैली संबंधी ही है। उदाहरण के लिये - मेरे मन में सूर्य मंदिरों की वास्तु संरचना में महाश्वेता प्रसंग है। क्या कुछ जानकारी देने का कष्ट करेंगे? कौन हैं महाश्वेता और क्या है इनका आकर्षण ?

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