यह पहला शहर है जिसकी सुबह मैंने सैर नहीं की। खिड़की के पार से प्रात कमरे में आई है और मुझे झिरी से झाँक याद आई है। लाल बोगेनबिलिया के फूल नहीं, काँच और सुबह के बीच एक सफेद दीवार है, देख ही नहीं सकता! कैसी प्रात? सुना है इस शहर के फूल बड़े जालिम होते हैं। मुझे उतरते लगा भी, मैं हवा में उन्हें सूँघ सकता था। वाकई दमदार होंगे क्यों कि उनके स्वागत को शरीर ने आदिम भंगिमाओं के संधान शुरू कर दिये जिन्हें अब रोग कहते हैं। मुझे उन जालिमों से नहीं मिलना, मुझे बाहर नहीं निकलना, नहीं देखना कि खिले पलाशों ने किसी के स्वागत को रेड कारपेट बिछा रखे हैं। मैंने आइने में नाक के रिज पर वह लाली देख ली है जो आधी रात के बाद से ही मुँह पर रुमाल बाँधने के कारण उभर आई है और अब आशंका है कि एक्जीमा जैसा कुछ न हो जाय!
बीते महीनों ने मुझे शंकालु बना दिया है। मुझे जालिम फूलों से सशरीर नहीं मिलना, जाने क्या कर बैठें? आधी रात जब पुन: खाँसियों के दौरे पड़े तो जाना कि हवा इतनी शक्तिशाली नहीं कि कमरे में कम्प्रेसर के साथ नाच सके। थक गयी होगी। उसकी पेशियों में लैक्टिक एसिड भर आया होगा और एक अतीन्द्रिय क्षमतावान ने नींद में भी खट्टेपन को महसूस लिया होगा...
नींद टूटी तो जाना कि केवल गले में नहीं, रात पूरे परिवेश में खटाई टपका रही थी। ए सी बन्द किया, खिड़कियों को खोला और नाक पर रुमाल बाँध सोने लगा। कभी कोई प्रयत्न कर के तो देखे! तब जब कि नासा विवर सूजे हों, हर साँस मन भर उसाँस लगती है, घुटती है जब कि सोना तो होता ही है। यह ऐसा कर्मकांड है जो प्रतिदिन जीवन को कम करता है और हम समझते हैं कि न सोये तो जान काम करना बन्द कर देगी!
नथुनों से आती जीवन की ऊष्मा रुमाल में अवरुद्ध हो भीतर सिंकाई करती रही। धीरे धीरे थिरता गया। सपने नहीं, हैल्युसिनेशन जैसे कुछ! यात्रा में पढ़ी गई कहानी के बूढ़े नाविक की समुद्र से अकेले लड़ी गई लड़ाई रूप बदल बदल आती रही। वह सेवक बच्चे को साथ नहीं ले जा पाया था और उसके शिकार को शार्क चबा गये। हारपूनों से उसने कइयों को मार दिया लेकिन अन्तत: हार गया। कहानियों का क्या? उनमें तो लड़ना ही जीत हो जाती है। लगता है कि मेरे हारपून अब चुक रहे हैं, मैं खटाई के प्रेतों पर अब और नहीं चला सकता। समझौता कर लूँ? बूढ़ा तो नहीं कर पाया था, उसके पास विकल्प ही नहीं थे। एक तरह का समझौता हार पर तसल्ली का मुलम्मा भर होता है। वही कर लूँ?
शाम को जब कि हल्की बूँदे पड़ी थीं, कोई होंडा कार ले ढूँढ़ता आया। पैरों में हवाई चप्पल और बेल्ट से लटकता आई कार्ड जैसा कुछ। बच्चा घर गया और चेंज के नाम बस हवाई चप्पल पहन मिलने आने को भाग निकला! मुझे बताया – छुट्टी ले ली थी, आप जो आ रहे थे। तीन जन वैसे ही जमे जैसे कॉलेज के जमाने के बिछड़े साथी बहुत दिनों बाद मिले हों।
उसने बाइक के साथ अपने ऐडवेंचर सुनाने शुरू किये। मैंने सोचा – इश्क़ हो तो ऐसा, नहीं तो न हो! मुझे कल शाम एक बार पुन: यकीन हुआ कि सच में प्यार तो बस पुरुष कर सकते हैं। बेलौस हिंसा को स्पर्श करता बली प्यार जिस पर दूजे को भी उतना ही नाज हो! प्रकृति ने उनके ऊपर बन्धन नहीं रखे और समय उनकी अंगुलियों तले तारसप्तक रचता रहा। उनके वक्ष पर सौन्दर्य बिना किसी चिंता के अठखेलियाँ कर सकता है और कठोर हाथों के स्पर्श कोमलता से उसे निकाल ला सकते हैं जिसे नाच कहते हैं।
हमने उन खतरों की बातें की जिन्हें क़यामत तक सारे जहान को झेलना है। हम थोड़ा, बहुत थोड़ा उधर भी बहके जिसे जेंट्स टाक कह सकते हैं – google की वर्तनी! वो बतायें और हम सीखें J
उसने बीजिंग डिनर रखा। साथ के छोरे ने पंजाबी पराठे के बजाय जाने क्या क्या खाने का पहली बार साहस किया। एक शानदार डिनर और एक शानदार शाम – जैसे हम बीस वर्ष पीछे चले गये हों। विदा देते मैं सोच रहा था कि प्रकृति बहुत रहस्यमयी है। जाने कितनों को सहज अनजाने से भाव से जोड़े हुये हैं और उन्हें पता ही नहीं। सच में स्त्री है!
आती मधुर खिलखिलाहटों पर मुग्ध हो मैंने छोकरे से कह दिया – अबे! ऊपर जो दो ठहरी हैं, उनमें एक तो ठीक ठाक है। जा प्रपोज कर दे, कितने दिनों से तीन तेरह, कुंडली फुंडली के चक्कर में तेरे जैसा गोरा चिट्टा स्मार्ट गौर ब्राह्मण अकेला है! वह रुआँसा सा हो गया – सर! बेकार है। उसका सरनेम है पव्वा। मेकअप के नीचे कुछ खास नहीं और वह ब्राह्मण भी नहीं। मैं मन ही मन भुनभुनाया – तो मियाँ पहले से ही ट्रांजिट वर्क कर चुके हो! जियो प्यारे, इंस्पेक्शन में साथ के लिये तुमसे अच्छा जूनियर नहीं मिलेगा ... तेरी बात सही है। तेरी तीखी गढ़न से तो लाली टपकती है, तू क्यों न मेकअप के नीचे देखेगा? नासपीटे! और भी बातें देखनी होती हैं। रह कुँवारे, मुझे क्या?
एक और है जो स्विस, अमेरिका और जाने कहाँ कहाँ भटकता रहता है, फिर भी छोरी नहीं मिलती। इस तरह के चित्तपावन मुझसे ही क्यों टकरा जाते हैं? एक ने तो फेसबुक पर ही लिख दिया – गुगल की वर्तनी ऐसे पूछना सही नहीं है। करो गुगल सर्च! कब बुढ़ा गये, पता ही नहीं चलेगा।
अभी उससे मिलना है जो यह झुठलाता रहता है कि विवाहित पुरुष अकेले सुख चैन से नहीं रह सकते। प्रतिदिन नित नवीन व्यंजन और कमाल की सेहत! बोली ऐसी कि फोन से ही आप को अपनी ओर खींच ले!
पता नहीं, इस नगर की हवाओं की सवारी गाँठते खटाई प्रेतों की क्या मर्जी है? देखते हैं।
भारत का सबसे खूबसूरत शहर ... और एलर्जी-धारकों के लिये शायद भारत के काफ़ी बुरे शहरों में से एक ... ऐसा शहर जहाँ के प्रेत भले होते थे, पुलिस वाले सक्षम और ऑटो-चालक विनम्र ...
जवाब देंहटाएंऑटो वाले तो नहीं, टैक्सी वाले अवश्य विनम्र दिखे। काम भर की अंग्रेजी बोल लेते हैं - कनाड़ी अंग्रेजी भोजपुरिया अंग्रेजी वाले को भी समझ में आई। यम यार यस - MRS :)
हटाएंअरे टैक्सी वाले तो लखनऊ तक में विनम्र होते थे ...
हटाएंदिल्ली के औटो चालक, तो अल्लाह तौबा -
हटाएंकहाँ जाना है,
तिलक नगर, कौन से ब्लोक में,
मकान गली में है या फिर बहार रोड पर ,
ज्यादा अंदर नहीं जायेगा,
सुसरा ऐसे लगता है, जैसे रिश्ता करने करना हो.. :)
☺
जवाब देंहटाएं:)
हटाएंफूलों के शहर में पहुँचते ही नासिका का विद्रोह और उसकी रिज पर कॉंटेक्ट डर्मेटाइटिस की आशंका के बीच एक सुबह .....
जवाब देंहटाएंजाति ब्राह्मण की जगह अब कर्म ब्राह्मण को खोजना होगा जो कठिन नहीं है ...सिवाय इसके कि दिल और दिमाग की खिड़कियाँ ज़रा खोल दी जायँ। साथ में जो कँवारा है उसे बनारस अकेले मत लाइयेगा, कुड़माई करा दीजिये वहीं ...फूलों के शहर में।
अगली मुलाकात के हवाले की प्रतीक्षा रहेगी ....अरे वही जो शादी करके भी सुख चैन से हैं ....
हवाला देता हूँ कुछ दिन ठहर कर।
हटाएंकुड़माई नहीं हो पाई और बन्दा बैरंग देहरादून रवाना हो गया। सोचता हूँ कि सर्मन ऑन द माउन्टेन की तर्ज पर ऐसे कुमारों के लिये एक सर्मन लिख दूँ:
" धन्य हैं वे... " :)
बंगलौर एकदम अलग सा शहर है...अब तो रोड वाइड करने के चक्कर में बहुत से पेड़ काटे गए हैं तो यहाँ का मौसम भी वैसा नहीं लगता जैसे चार साल पहले लगता था...गर्म होने लगा है.
जवाब देंहटाएंजिस साल आई थी बैंगलोर ऐसा ही कुछ अनुभव मेरा भी रहा था...पहले कभी सांस की कोई तकलीफ नहीं हुयी थी तो समझ नहीं आ रहा था कि हो क्या रहा है...सर्दी, खांसी, बुखार, छींकें...डॉक्टर के पास गए तो उसने पूछा...नए आये हैं शहर में...मेरे हाँ में सर हिलाने पर उसने बताया कि बंगलौर में पौलेन की अधिकता के कारण ऐसा होता है...कुछ दिनों में एडजस्ट कर जाउंगी. पर मुझे लगभग साल लग गया...मैं उस एक साल में इतनी बीमार पड़ी जितनी जिंदगी में नहीं पड़ी थी. पर अब आदत हो गयी है.
इस शहर से पहली नज़र में प्यार होना थोड़ा मुश्किल है...हाँ एक लंबे अरसे रहने के बाद दोस्ती होने लगती है...कुछ कुछ आदत सी भी.
कुछ दोस्तों का साथ हो तो कोई भी शहर अच्छा लगने लगता है... :) :) हमारी ओर से भी वेलकम :)
धन्यवाद। मैंने भी ऐसा अनुभव किया। जिस समय बाइक आख्यान चल रहा था, आप की एक पोस्ट याद आई थी। ऐंठ कर रह गया कि एक बाइक दीवानी को भी बुला कर रखना था :)
हटाएंहम तो जाते जाते रह गए उस शहर में, न तो झूठे सच्चे एकठो किस्से कहानियाँ तो वहां के भी लिख मारते:) देखते हैं आप क्या करते हैं? स्वास्थ्य का ध्यान रखें
जवाब देंहटाएंभाऊ, पहली दफा सच लिखे और आप झूठे सच्चे की मीमांसा में लग गये :) अपना तो बैड इम्प्रेशनवे खराब है।
हटाएंगुरू हम तो अपने गीत गा रहे थे कि हम होते तो ये करते, वो करते ताकि आप उकस जाएँ| आप पर शक थोड़े ही कर रहे हैं, इम्प्रेशन तो जो है सो है ही :)
हटाएंसंजय बाऊ, वेख ले सुन ले समझ ले, क्योंकि मेरे कॉल ते ऐ तीनों पॉवर हें नइ - अप दुनो चलेंगे, हरिद्वार हून रहन दे... :)
हटाएंयी बाभनों को नहीं जानते आप -ये केवल बंधी गायों का दूध नहीं पीते -इतिहास लोकेतिहास और पुराण साक्षी हैं ...और साक्षी है गिरिजेश कृत नेबुआ की झांकी ....
जवाब देंहटाएंसही सलामत बंगलुरू से लौट आयें तो संस्मरण सुनाईयेगा ! :) लच्छन तो ठीक नहीं लग रहे ..मगर आपको एलर्जी को भी तो संभालना है न ?
इसलिए विषस्य विषमौसधम :)
इशारा समझेगें आप :)
अरे प्रवीण जी से मिल आईयेगा -आज ही बात करके टाईम फिक्स कर लीजियेगा !
समय की कमी बहुत अखरी। प्रवीण जी से मिलना नहीं हो पाया। फिर कभी।
हटाएं@ बँधी गायों का दूध - फिलहाल तो अस्मिता, वक्ष और लँगोट पर ही संकेन्द्रित रहिये। खुली गायें मचलने लगी हैं।
:) चौचक ... वाह, डॉ और एर. साहेब के वचन दस्तावेज... :)
हटाएंकब आये, और बिना पानी बरसाये चले गये। या स्मृति के पुष्प खिल आये..
जवाब देंहटाएंपहली बार गये थे। मेरी कोई स्मृति नहीं :) समय की कमी थी, वरना आप से अवश्य मिलते।
हटाएंप्रवीण जी भी रेल में थे, एक नई सुचना क्रांति का उद्घोष करती उनकी वो पोस्ट.
हटाएंमज़ा तो बहुत आया आप से मिलकर और ....
जवाब देंहटाएंतार सप्तक के सातो तार ना तो अभी तक खुले हैं और ना ही अभी तक छेड़े गये हैं.... और भी ऐसे ही कई मुलाक़ातो की प्रतीक्षा है...
पुनश्च, कल मैं वाकई छुट्टी पर था और गूगल की वर्तनी मैने भी कल ही सीखी आप दोनो से... ;)
न छेड़े गये फिर भी मुझे झंकारों का अनुमान है :)
हटाएंआगे की मुलाकातों में गुगल ज्ञानगंगा का और प्रवाह होगा और सितारों की सुरबहार भी होगी।
रोचक! ये संस्मरण ही है ना?
जवाब देंहटाएंहँ, ऊहे ह।
हटाएंबढ़िया है! :)
जवाब देंहटाएंवो तो है ही। :)
हटाएंहम्म! तो दख्खिन में बंग लुरू, बंगलुरू में ढेर सारे फूल! तनिक बच के रहिए अभी तो जुखाम ही हुआ है।:)
जवाब देंहटाएंहम वापस आ गयेन। जुखाम भी ठीक होइ गवा रहा।
हटाएंचलो, लौट आये!
जवाब देंहटाएंआज मालूम है, की गेंहू के कटाई समय अपना शरीर अपना नहीं रहा, काहे दूसरे शहर चल दिए, :)
जवाब देंहटाएंसोरी आज को जब पढा जाए .
जवाब देंहटाएं@ गेहूँ की कटाई - आप की स्मृति बहुत अच्छी है :)
हटाएंदेह अपनी नहीं रही तो क्या हुआ?
भटकने के लिये बस आत्मा होनी चाहिये।
http://bulletinofblog.blogspot.in/2012/04/5.html#comments
जवाब देंहटाएंबैंगलोर में कहाँ है?
जवाब देंहटाएंकैसे कैसे लोग टकराते हैं आपसे भी :)
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