सोमवार, 8 अक्टूबर 2012

लय

हालाँकि इसकी कोई आवश्यकता नहीं थी, फिर भी ऑटो को रुकने के लिये हाथ देते मैं चिल्लाया – थाम्बो! महानगर के बर्बर वायुमंडल में एक और नवसिखिये का शुरुआती शब्द खोता चला गया और थमे ऑटो के सामने से एक सिर ने जुम्बिश की – किधर कू? मैने उस जगह का नाम बताया जहाँ मनुष्य के गढ़े नकली पत्थरों पर महौदधि लहरें प्रेम की जोर आजमाइश करती रहती हैं। ऑटो वाले ने कुछ इस तरह से ए बी सी कम्बिनेशन लिया कि ऑटो कोंच दिये गये जुते बैल की तरह एकदम से भाग पड़ा। एक बहुत ही पुराना सा गीत जाने कहाँ बज रहा था – देवा चा, देवा... । गीतों में एक खासियत होती है कि भले समझ में न आयें, छिपायें लेकिन उनकी उमर का अन्दाज लग ही जाता है।
 यदा कदा वहाँ जाने का उद्देश्य खोये आंतरिक लय को पाना होता था। वी टी पर जब पहली बार उतरा था तो मेरी जेब कट गई थी और उसमें तमाम मूर्खताओं के साथ एक अनमोल चीज थी जिसे आंतरिक लय, रिदम कहते हैं। क़स्बे में पला बढ़ा, जंगल के बीच ग्रेजुएशन के बाद जॉब ने एकदम से यहाँ ला पटका और नैसर्गिक प्रकाश बिछड़ गया। ऑफिस के लिये निकलता तो बिजली का उजाला होता, लोकल में तो रोशनी नहीं केवल भीड़ होती और पैदल जब तक स्टेशन के पास ऑफिस पहुँचता तब तक खारा सूरज देह सहलाना शुरू भी नहीं कर पाया होता। दिन भर वही बिजली की रोशनी और साँझ तो साँझ। वीक एंड में पानी के आगम के हिसाब से कपड़े धुलते सुबह पस्त हो जाती और फिर मैं सो जाता। तिजहर को उठता तो यही नहीं समझ पाता कि कहाँ हूँ।
एक सनकी सम्वेदी आदमी के लिये यह बहुत बड़ी ट्रेजेडी थी। ऐसा मनुष्य जो चन्द्रकलाओं से स्त्रियों को जोड़ता हो और सूरज की गति से पुरुषों को, जिसे लगता हो कि प्रकृति माँ ने अपना सब कुछ इन दो के देह मन में सँजो दिया है, ऐसी स्थिति में विक्षिप्त नहीं हुआ तो बड़ी बात थी। मुझे लगता है कि जैसे जैसे मनुष्य सूर्य चन्द्र के चक्र से कटता चला गया, जैसे जैसे उसकी स्वाभाविकता बौद्धिक कृत्रिमता के आगे समाप्त होती चली गयी वैसे वैसे वह भंगुर होता चला गया। प्रत्यास्थता जीवन का गुण है, भंगुरता निर्जीव पत्थरों की जिन्हें बस टूटना ही होता है।
एक निहायत गन्दी दिखती लेकिन उतनी ही स्वच्छ चट्टान पर बैठ कर मैं क्षितिज निहारने लगा। झंझावात और शांति – इन दो के बीच ही यहाँ सारी सुन्दरता बसती है। लाली हो, ग्रे हो, अच्छे मौसम की धड़कन हो, आते तूफान की चेतावनी हो, ज्वार हो, भाटा हो – मुझे कोई खास विविधता नहीं लगती। बड़ा एकरस सा मामला था लेकिन इस महानगर में वही एक जगह थी जहाँ मुझे अपना खोया पाने की आस थी। वहाँ का एकांत इस युग के सबसे बड़े धोखों में से एक था। किसी पत्थर की पीठ खाली नहीं होती, उसपर कम से कम एक पीठ लदी होती, जिसके ऊपर एक दूसरे का सम्पूर्ण बोझ लदा होता।
उस शिल्प में केवल प्रेम, केवल भूख या दोनों एक साथ की मीमांसा करने की आवश्यकता मैं नहीं समझता क्यों कि शिल्प निहायत ही अजनबी था, ठीक उन घोंघों और विचित्र तरह के जलीय जीवों की तरह जिनमें कोई विविधता नहीं थी। यह उनका नहीं मेरा दोष था लेकिन प्रयोग के नाम पर कल कारखाने के लैंडस्केप में कोई झरना बना दे तो क्या किया जा सकता है?
वहाँ बैठ कर मैं अपने कटे से जुड़ जाता। कभी कुहासे भरी सुबह होती। कभी चमकती धूप में गेंड़ुआर को लकड़ी से छेड़ उस अद्भुत शिल्प को निहारता जो लकड़ी के चारो ओर उसकी कुंडली से बना होता। मैं उस समय को मापता जितने में कुंडली खुलेगी और तभी एकदम परफेक्ट गोला ढकेलता गुबरैला अपनी बिल में पहुँचेगा। सागर की घहर में मुझे फुलाये कास की सर सर सुनाई देती। किसी पत्थर के पीछे से हँसी आती तो लगता कि चिड़िया बोली – पी कहाँ, पी कहाँ  और फिर गाड़ियों के हॉर्न एकदम से सुनाई देने लगते – पी पाँ, पी पाँ। विचित्र सा मामला उस दिन होता जब मेरी चट्टान के ठीक नीचे कोई शिल्प गढ़ा जा रहा होता और मुझे धनकुट्टी और उद्धत खग की जुगलबन्दी सुनाई पड़ती – पिट पिट पिट ... ठाकुर जी, ठाकुर जी..  माने ये कि सनक उफान पर होती और मैं सागर से बोतल बन्द लय की आस करता जिसे चुराने वाले ने अनुपयोगी मान बड़े जतन से लहरों पर उछाल दिया होगा। मैं कभी नहीं सोच पाता कि यह सब कपोल कल्पना है!
उस दिन क्या हुआ कि आसमान फालतू ही लजा कर लाल हो रहा था। मैं यह सोच रहा था कि इस फ्रैंक, अपने आप से मतलब रखने वाले संसार में लाज की जगह कहाँ होगी, कि ठक ठक सुनाई दी। हैट लगाये एक छाया ट्राइपाड सेट कर रही थी, जिस पर एक बड़ा सा कैमरे जैसा कुछ लगा था। मुझे ऐसा लगा कि देर तक बैठा ऊँट एकदम से उठ रहा हो और आधे में ही किसी ने उसे फ्रीज कर दिया हो। मैं अपनी कल्पना पर पहले मुस्कुराया और फिर अपने आप से बोल उठा – धत्त! पीछे से आवाज आई – ए बीड़ू! ताक झाँक नइँ। वहाँ से न उठना निर्लज्जता माँगती जो कि मेरे पास नहीं थी।
मैं उठ कर फोटो वाले के पास चला गया। पूछ पड़ा – अच्छा सीन है। खींच रहे हो?
पहले तो नाग़वारी में उसने सिर घुमाया फिर मुस्कुराया – भइया हो?
ऑफिस के अपने अनुभव से मैं जान चुका था कि यूँ मुँह पर पूछ लेने का अर्थ है कि बन्दा खुला हुआ है।
मैंने भी कह दिया – हाँ, अधिक दिन नहीं हुये यहाँ आये।
वह वहीं बैठ गया और मेरा हाथ थाम बिठा भी लिया – खींच नहीं, बन्द कर रहा हूँ। यूँ खुले खुले लैंडस्केप एक दिन खो जाते हैं और फिर हम तरसते रहते हैं, जाने फिर कब मिलें?
ऐसे संयोग मेरे साथ पहले भी हो चुके थे। मुझे हैरानी नहीं हुई। एक और खोया माइनस पाया केस का भाईचारा मुझे घेरता चला गया।
“कभी यहाँ से बाहर देहात में गये हो? बन्द करने? ... खुले देहात?”
उसने हैट उतार कर अपने हाथ में ले लिया – हाँ ... लेकिन मैं उधर कई बार लुट चुका हूँ।“  
“हैं!”
“अरे लुटना माने थेफ्ट नहीं, मैं सेल्फ खो देता हूँ। सेल्फ तो समझ रहे होगे?”
“हाँ...वैसे ही जैसे हम अजनबी ऐसे बात कर रहे हैं जैसे पहले से जान पहचान हो।“
“यू मीन...?”
“मैं भी यहाँ खो चुका था। उसी की तलाश में यहाँ आता रहा। आज मिल गया।“
“...”
वह चकित सा था कि मैंने कहा – दोस्त! खोना तो जरूरी है, खुलना भी जरूरी है। पाना और बन्द कर पाना उनके बिना नहीं होते। हम गड़बड़ यह करते हैं कि उन्हें वैसे ही पाना चाहते हैं जैसे खोये थे गो कि वे जीवित न हो कर पत्थर हों।...बन्द करो, मैं चलता हूँ।“
मैने एक पत्थर उठाया और खोह सी चट्टानों की ओर उछाल दिया। दूर एक भद्दी सी गाली हवा में घुलती चली गई लेकिन कोई बाहर नहीं आया। पी पाँ, टी टाँ। मुझे इस लय को अब अपनाना था, खोने पाने का कोई मतलब नहीं। एक  घोंघे को उठा कर उसकी शल्क के वलय गिनने लगा – संकेन्द्रीय वलय, बस ऐसे ही बढ़ते जाते होंगे।
किसी ऑटो वाले ने रोका – किधर कू?
मैने जवाब दिया – काय कू?
हम दोनों मुस्कुराये। घर्र र्र र्र ........ लय। देवा चा। 

9 टिप्‍पणियां:

  1. किधर कू और काय कू, यही दो वक्तव्य यदि सिद्ध हो दायें तो लय अपने आप आ जायेगी जीवन में।

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  2. sab kuchh khone ke baad hi kuchh milta hai,aur jo milta hai wo permanent hota hai....fir se kho jaane ka dar nahin.

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  3. बचपन में पढ़ी हुई एक कविता याद आ गयी...

    यह जीवन क्या है निर्झर है, मस्ती ही इसका पानी है.
    सुख - दुख के दोनो तीरो से चल रहा राह मनमानी है...

    लय... काश कभी शिव का तांडवीय लय भी देख पाता...

    सादर

    ललित

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  4. कल फेसबुक पे शेयर कियेला था, आज फिर पढ़ के टिप्पस दियेला है :)

    काय कू .... :)

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  5. मैं सोचता था कि दृश्‍यों से भिन्‍न बनाना मेरी निजी समस्‍या है.. :)

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