पिछले भाग से आगे ...
हन्नी हन्ना पर मैं एक पुस्तक लिख सकता हूँ। कैशोर्य के इन आकाशी मीतों के बारे में इतना कुछ पढ़ चुका हूँ कि स्वयं आश्चर्य होता है –ऐसा क्या है इनके सम्मोहन में! भीतर बैठा शिशु मन तो अन्य बहुत से कारकों के प्रभाव से विस्मित होता है लेकिन इनकी बात खास है। याद कीजिये बाऊ कथा की तिनजोन्हिया और उसके आस पास कथा की बुनावट! इस लेख को लघु रख पाना एक चुनौती है।
दो वर्ष पहले मैं एक यात्रा पर था। महाविषुव 20 मार्च के आसपास का कोई दिन था जब दिन और रात बराबर होते हैं। आदि काल से ही महाविषुव का यह दिन उत्तरी गोलार्द्ध में वसंत ऋतु के आगमन का संकेत देता है। इस दिन से सूर्य की झुकान विषुवत वृत्त के उत्तर की ओर होनी प्रारम्भ होती है। विभिन्न सभ्यताओं में इस दिन को अपनी अपनी तरह से मनाया जाता रहा है। सूर्य और चन्द्र दोनों गतियों को लेकर चलने वाले भारतीय पंचांग में इसी दिन के आस पास वसंतोत्सव यानि होली मनाई जाती है। पुरा वैदिक काल में जब कि वर्ष भर चलने वाले यज्ञ सत्रों का चलन था, वर्ष को देवयान और पितृयान दो भागों में बाँटा गया था। इस दिन से देवताओं की ऋतुयें प्रारम्भ होती थीं वसंत, ग्रीष्म और वर्षा और यही दिन नववर्ष का प्रारम्भ होता जब कि नये सत्र प्रारम्भ होते। चन्द्रगति की दृष्टि से वर्ष में मात्र 353/4 दिन होते जब कि सौर गति से 365/6। लगभग बारह दिनों के इस अन्तर को वर्षांत में नये सत्र के प्रारम्भ होने के पहले की तैयारियों के लिये रखा जाता और यह काल कहलाता था - द्वादशाह। बीच का जल विषुव यानि आज का 22 सितम्बर जब कि पुन: दिन और रात बराबर होते, सूर्य ठीक पूर्व में उगता और ठीक पश्चिम में अस्त होता, वर्षा ऋतु के अंत का सन्देश ले आता। वर्षा के अंत के बाद से शरद, शिशिर और हेमंत ये तीन ऋतुयें पितरों की मानी जाती थीं। यह समय पितरों का होता। देवयान का स्वामी जैसे इन्द्र था वैसे ही पितृयान का स्वामी यम। पितृविसर्जन का अध्याय फिर कभी।
तो मार्च 2010 के उस दिन थोड़ी सी वर्षा हुई थी। स्मृति साथ नहीं दे रही कि सूर्योदय के आसपास का समय था या सूर्यास्त का, मैंने कार के भीतर से ही सूर्य का फोटो खींचा था। उसी रात लौटते हुये किसी ढाबे पर हम सभी रुके थे और खुले भूदृश्य के ऊपर नभ में अद्भुत दृश्य दिखा। आकाशगंगा के किनारे सबसे चमकदार तारे लुब्धक (Sirius), व्याध नक्षत्र (Hunter, Orion), झुलनिया (कृत्तिका) और शुक्र को मैं पहचान गया। बाकी महानुभावों के बारे में कुछ पता न होने पर भी मैं उस दृश्य में खो गया। उस दिन तो नहीं खींच सका लेकिन अब सॉफ्टवेयर से पुन:सृजित वह दृश्य देखिये:
घर पहुँचने पर नेट से चित्र डाउनलोड कर मैंने यह रचना पोस्ट की।
इसमें अनुभूतियों पर कोई विराम नहीं था और प्रेरणा बना था प्राचीन मिस्र का मिथक – मातृशक्ति देवी आइसिस (Sirius) और देव ओसिरिस (Orion) की प्रेम कहानी। हत्या कर दिये गये ओसिरिस को प्रेमस्वरूपा आइसिस ने अपने प्रेम से पुनर्जीवित किया और उनके मिलन से जो पुत्र हुआ उसने घृणित वातावरण में पुन: व्यवस्था की स्थापना की। नील नदी की बाढ़ कुछ नहीं ओसिरिस की हत्या के पश्चात रोती हुई देवी आइसिस के आँसू हैं तो नई फसल अभिचार के बाद ओसिरिस का पुनर्जीवन। मिस्र के तीन पिरामिड व्याध के तीन तारों की प्रतिकृति हैं।
जब ज्ञान जी ने पूछा था तब मुझे कचपचिया और कृत्तिका की संगति नहीं पता थी। संगति जानने के पश्चात राह आसान हो गई। कचपचिया के दूर यानि दृष्टिपटल में ऊपर जाने पर उगता है हंटर यानि पश्चिमी ज्योतिष का व्याध नक्षत्र और हमारे भोजपुरी इलाके का तिनजोन्हिया । कहावत अवधी क्षेत्र की है जहाँ मारने के लिये संस्कृत के हनन से बना शब्द ‘हनना’ चलता है। भारोपीय भाषा होने से अंग्रेजी का Hunter भी इसी हन् से बना है।मैंने तिनजोन्हिया की संगति हंटर यानि हनने वाले ‘हन्ना’ से लगाई। समस्या अब आई कि तब ‘हन्नी’ क्या है? हन्नी हन्ना के क्रम से स्पष्ट है कि पहले हन्नी उगती है और उसके पश्चात हन्ना। तो मेरे बचपन के साथी हण्टर के पहले कौन उगता है आकाश में? कहावत से स्पष्ट है कि यह किसी ज्योतिष विशारद की नहीं बल्कि आम घरनी या गृहस्थ की गढ़ी हुई है जो उन्हीं नक्षत्रों को आसमान में पहचान सकते हैं जो कि आकाश में स्पष्ट आसान आकार में दिखें।कचपचिया और व्याध जैसा कौन और है जो इनके बीच में पूर्व और दक्षिण-पूर्व आकाश में कुआर और अगहन महीनों के मध्य उगता हो? मैं उलझ गया।
घर पहुँचने पर नेट से चित्र डाउनलोड कर मैंने यह रचना पोस्ट की।
इसमें अनुभूतियों पर कोई विराम नहीं था और प्रेरणा बना था प्राचीन मिस्र का मिथक – मातृशक्ति देवी आइसिस (Sirius) और देव ओसिरिस (Orion) की प्रेम कहानी। हत्या कर दिये गये ओसिरिस को प्रेमस्वरूपा आइसिस ने अपने प्रेम से पुनर्जीवित किया और उनके मिलन से जो पुत्र हुआ उसने घृणित वातावरण में पुन: व्यवस्था की स्थापना की। नील नदी की बाढ़ कुछ नहीं ओसिरिस की हत्या के पश्चात रोती हुई देवी आइसिस के आँसू हैं तो नई फसल अभिचार के बाद ओसिरिस का पुनर्जीवन। मिस्र के तीन पिरामिड व्याध के तीन तारों की प्रतिकृति हैं।
जब ज्ञान जी ने पूछा था तब मुझे कचपचिया और कृत्तिका की संगति नहीं पता थी। संगति जानने के पश्चात राह आसान हो गई। कचपचिया के दूर यानि दृष्टिपटल में ऊपर जाने पर उगता है हंटर यानि पश्चिमी ज्योतिष का व्याध नक्षत्र और हमारे भोजपुरी इलाके का तिनजोन्हिया । कहावत अवधी क्षेत्र की है जहाँ मारने के लिये संस्कृत के हनन से बना शब्द ‘हनना’ चलता है। भारोपीय भाषा होने से अंग्रेजी का Hunter भी इसी हन् से बना है।मैंने तिनजोन्हिया की संगति हंटर यानि हनने वाले ‘हन्ना’ से लगाई। समस्या अब आई कि तब ‘हन्नी’ क्या है? हन्नी हन्ना के क्रम से स्पष्ट है कि पहले हन्नी उगती है और उसके पश्चात हन्ना। तो मेरे बचपन के साथी हण्टर के पहले कौन उगता है आकाश में? कहावत से स्पष्ट है कि यह किसी ज्योतिष विशारद की नहीं बल्कि आम घरनी या गृहस्थ की गढ़ी हुई है जो उन्हीं नक्षत्रों को आसमान में पहचान सकते हैं जो कि आकाश में स्पष्ट आसान आकार में दिखें।कचपचिया और व्याध जैसा कौन और है जो इनके बीच में पूर्व और दक्षिण-पूर्व आकाश में कुआर और अगहन महीनों के मध्य उगता हो? मैं उलझ गया।
राह मिली घाघ भड्डरी की इस कहावत से:
ऊगी हरनी फूले कास। अब का बोये निगोड़े मास ॥(कास फूल गये हैं। हरनी यानि अगस्त्य तारा उग आया है। निगोड़े! अब उड़द बोने से क्या लाभ?)
कास तो अपना खूब जाना पहचाना हुआ है। उसका फूलना माने वर्षा का अंत और पितृयानी शरद ऋतु का प्रारम्भ। अगस्त्य के लिये ‘हरनी’ शब्द का प्रयोग चौंका गया। एक स्थान पर और ढूँढ़ा तो उस सज्जन ने अर्थ दिया था हरनी माने ‘हस्त’। हस्त नक्षत्र, इस समय? अचानक ही मन में आया ‘अगस्त्य’ से ही लोक में ‘हस्त’ हो गया होगा। अगस्त्य यानि आकाश में इस समय देर रात क्षितिज पर उसी दिशा क्षेत्र में उगने वाला तारा Canopus।
अगस्त्य ऋषि! अपने ज्ञान से लोपा को लुभाने वाले। ऋषि लोपामुद्रा उनके प्रेम में ऐसी रीझीं कि ऋचायें रचती गईं:
पूर्वीरहं शरद: शश्रमाणा ....नदस्य मा रुधतः काम आगन्नित आजातो अमुतः कुतश्चित।
लोपामुद्रा वृषणं नी रिणाति धीरमधीरा धयति श्वसन्तं॥
लोपामुद्रा वृषणं नी रिणाति धीरमधीरा धयति श्वसन्तं॥
अंतरिक्ष के प्रेम! तू कितना व्यापक है रे! यह आदर्श दम्पति वनवास के समय राम और सीता का पथ प्रदर्शक बना।अगस्त्य का काल 4000 से 5000 ई.पू. माना जाता है। अगस्त्य विन्ध्य पार करने वाले पहले ऋषि थे। उत्तर भारत में वर्षाकाल के अंत का सूचक और रात में दक्षिणपूर्व दिशा में दिखने वाला अगस्त्य तारा उनके नाम पर है। यह तारा ई.पू. 10000 से पहले भारत में नहीं दिखता था। उस समय कन्याकुमारी में दिखना प्रारम्भ हुआ। वर्तमान चेन्नई के के स्थान पर 8500 ई.पू. और विन्ध्य पर्वतमाला के आसपास इसके दर्शन लगभग 5000 ई.पू. में होने शुरू हुये जब कि उत्तर से विन्ध्य को पार करते अगस्त्य ने इसे पहली बार देखा। अब समूचे भारत में दिखने वाला यह तारा सन् 3400 ई, में जम्मू में दिखना बन्द हो जायेगा, सन् 5300 में दिल्ली में, सन् 7400 में विन्ध्य क्षेत्र में और अंतत: सन् 11700 के आस पास कन्याकुमारी में दिखना बन्द हो जायेगा। आजकल जो लोग देर रात तक जग सकते हैं वे पूर्व से दक्षिणी पूर्वी आकाश के मध्य तेज चमकते लुब्धक sirius और अगस्त्य canopus के दर्शन कर सकते हैं।
व्याध, लुब्धक और अगस्त्य के उगने के क्रम और घाघ की बात से हन्नी हन्ना के बारे में संकेत तो मिले किंतु प्रकरण और उलझ गया। संख्या तीन थी जब कि अभिज्ञान दो का करना था। सबसे बड़ा प्रश्न यह कि एक साधारण ग्रामीण क्षितिज के पास देर रात अल्प समय उगने वाले तारे को क्यों कर पहचानेगी तब जब कि आकाश में तेज चमकता लुब्धक तिनजोन्हिया जैसे एकदम से पहचान में आ जाने वाले नक्षत्र के साथ विराजमान हो? भूख से तड़प रही है या गणित ज्योतिष पढ़ने बैठी है?
तब आये लोकमान्य टिळ्क (तिलक)। उनके कारण पहली बार हंटर orion का भारतीय नाम पता चला – मृगशिरा नक्षत्र। मिथकों का पूरा संसार सामने खुल गया और साथ ही पुराने समय गाँवों में इसका कहा जाने वाला नाम पता चला – हरनी यानि हिरणी। मृगशिरा यानि हिरण या हिरनी का सिर। उसके सिर में शिकारी का चलाया तीर उन तीन तारों द्वारा व्यक्त होता है जो उसकी पहचान हैं। यह हरनी ही हन्नी है यानि बाऊ युग की तिनजोन्हिया! कृत्तिका कचपचिया के ऊपर चढ़ दूर चले जाने पर उग आती है हन्नी...
...”और हन्ना?”
“हन्ना जो हनता है मिरगा या हरनी। हन्नी का हंता हन्ना, मृग का शिकारी मृगव्याध।“
“हैं? वह तो orion था।“
“मिथकों का मिश्रण न करो, सुनो...व्याध नहीं, मृगव्याध। मृगव्याध है लुब्धक। लुब्धक यानि लुभाने वाला। उसकी चमक देखो। प्राचीनकाल में शिकारी यानि मृगव्याध रात में वस्त्र में अनेक जुगनुओं को बाँध कर उनके प्रकाश से हिरणियों को सम्मोहित कर उन्हें बन्धक बना लेते या मार देते थे!
हन्नी हन्ना उइ आये माने आकाश में मृगशिरा और लुब्धक यानि मृगव्याध उग आये हैं।“
“तो घाघ ने अगस्त्य को हरनी क्यों कहा?”
“ज्योतिष ज्ञाता घाघ ग्रामीण पंडित थे। नक्षत्रों के आकार पूरा करने की प्रवृत्ति बहुत पुरानी रही है। मृगशिरा में केवल सिर है। बाकी देह कहाँ गई? उन्हों ने देह को नीचे अगस्त्य तारे तक ला कर पूरा किया। इस तरह से अगस्त्य तारे के उग आने पर हिरनी के पूरी तरह साक्षात हो जाने की बात भी हो गई और ग्रामीणों की अधिक रात हो जाने की भी।“...
अवधी क्षेत्र की यह कहावत सास बहू का झगड़ा ही नहीं, ऋतुचक्र और फसल के चक्र की ओर भी संकेत करती है। अगहन या आग्रहण्य महीने का नाम मार्गशीर्ष भी है। मार्गशीर्ष अर्थात मृगशिरा, हमारे हन्नी का महीना। इस महीने वर्षा के बाद की फसल होती है - अगहनी धान जो कि प्रमुख अन्न आहार है।
का सास हांड़ी ढगढोरू, कांछ-पोंछ गयें घूर
(सास जी क्या मुझे देने के लिये हांड़ी टटोल रही हो। उसको तो कांछ-पोंछ कर मैं घूरे पर डाल आयी)
यह पंक्ति वर्षा ऋतु में बैठ कर बिना कुछ कमाये खाते रहने जाने के कारण खाली हो चुके बखार की त्रासद बात करती है, साथ ही अगहनी धान के आने की आशा की ओर संकेत भी।
यह पंक्ति वर्षा ऋतु में बैठ कर बिना कुछ कमाये खाते रहने जाने के कारण खाली हो चुके बखार की त्रासद बात करती है, साथ ही अगहनी धान के आने की आशा की ओर संकेत भी।
21 दिसम्बर को शीत अयनांत होता है। जब सूर्य दक्षिणी झुकाव से उत्तर की ओर पलटने लगता है। यह दिनांक अगहन के महीने में पड़ता है। कालान्तर में वर्ष यानि संवत्सर का प्रारम्भ महाविषुव के बजाय शीत अयनांत से होने लगा - अगहनी धान यानि वृहि की बलि से नवसत्र का आरम्भ। मिस्र की नई फसल की कथा की स्मृति हो आई।
हजारो वर्षों में महाविषुव का सूर्य मृगशिरा (हन्नी) नक्षत्र से कृत्तिका(कचपचिया) में, कृत्तिका से अश्विनी में.... मृगशिरा को लेकर मिथक बनते बिगड़ते इकठ्ठे होते रहे। उनके साथ हमारी अनेक पौराणिक कथायें बनती चली गयीं:
- कटि में यज्ञोपवीत पहनने वाला प्रजापति यानि अब का मृगशिरा काममोहित हो कर अपनी पुत्री यानि आकाश के रोहिणी नक्षत्र की ओर दौड़ा तो व्याध यानि किरात रुद्ररूपी लुब्धक ने उसका सिर काट डाला। इस बलि द्वारा नये वर्ष का प्रारम्भ हुआ।
- शिव द्वारा प्रजापति का यज्ञ ध्वंश, कुछ नहीं एक युग में वर्षांत में लुब्धक के उदय के साथ समाप्त होने वाले यज्ञ सत्र का रूपक है।
- इसी स्थान पर इन्द्र रूपी लुब्धक द्वारा आकाशगंगा रूपी फेन के अस्त्र से वृत्र रूपी वर्षा का ध्वंस और उसके पश्चात पूजित होना, शीत अयनांत से नवसत्र के प्रारम्भ का रूपक है। उत्तरायण दक्षिणायन सूर्य की अयनांत सापेक्ष अवधारणा यहीं से प्रारम्भ हुई जिसमें देवताओं के राजा इन्द्र की पूजा और शुभ कार्यों हेतु इस काल की महत्ता देवयानी सत्रों की स्मृति में स्थापित हुई।
- तीन सिर वाले दत्तात्रेय तीन प्रमुख तारों वाले मृगशिरा हैं। उनके पैरों के पास घूमते वेद रूपी कुत्ते कुछ नहीं श्वान नक्षत्र हैं। यह उस समय का रूपक है जब भिन्न धाराओं के संगम संयोजन द्वारा वैदिक संहितायें अपने वर्तमान रूप में आईं। वह समय भी एक नये सत्र का प्रारम्भ था जब संवत्सर शीत अयनांत से प्रारम्भ हुआ...
... मिस्री देवता अनूबिस यानि भेड़िया रूपी श्वान नक्षत्र का प्रतिरूप है स्फिंक्स।
ऋक् संहिता कहती है कि संवत्सर का प्रारम्भ श्वान से हुआ।
श्वानं बस्तो बोधयितारमब्रवीत्संवत्सर इदमद्या व्यख्यन। (1.161.13)
इसका अर्थ हुआ कि संहिता अनूबिस के मिथक इतनी तो पुरानी है ही अर्थात प्रजापति मृगशिरा के समय नववर्ष का प्रारम्भ करने वाले जन कम से कम ईसा से 4500 वर्ष पुराने तो थे ही!
अगली बार कोई मैक्समूलर की मनबढ़ बाँट का सन्दर्भ देते यह कहे कि ऋक् संहिता ईसा से 1500 वर्ष ही पुरानी है तो न मानना, अड़ जाना! ...
...यायावर के पास कथाओं की कमी नहीं है।
अभी तो उसे विदिशा जाना है – शेषशायी विष्णु की बात तो रह ही गयी थी न?
क्षितिज के पास अंतरिक्ष में कभी न डूबने वाले उस महासर्प को देखा है आप ने, जो सागर से सिर ऊपर किये दिखता है और जिसके ऊपर विष्णुरूपी सूर्य लेटे दिखाई देते हैं? योगनिद्रा कब होती है? विष्णु की नाभि से निकलता ब्रह्मा कहीं तिनजोन्हिया प्रजापति तो नहीं?
______
(बड़ा देखने के लिये चित्रों पर क्लिक करें।)
कमाल है!
जवाब देंहटाएंअब हमको भी छत पर लेट कर आपकी पोस्टें समझनी होंगी।
जवाब देंहटाएंpresent sir ... present present present sir ...
जवाब देंहटाएंमैं भी इतना ही बोलकर आगे बढ़ने वाला था... प्रजेंट सर...
हटाएंअकाशीय पिंडों के स्वरूप और विश्लेषण के लिए कभी दिमाग नहीं खपाया, जैसा मिला, वैसा रख लिया। क्योंकि एक शंका हमेशा रही है कि आकाश एक निश्चित नियम लिए नियमित बदल रहा है। इसके बहुत से नियमों को ज्योतिष संहिता शास्त्र ने पकड़ लिया, लेकिन बाहर रह गए सिद्धांत भी कम नहीं हैं...
जवाब देंहटाएंऐसे में कोई एक धारणा बनाकर बैठ जाना, आगे के संभावित परिवर्तन के लिए घातक हो सकता है। चूंकि इसी व्यवसाय में हूं तो ऐसा खतरा मोल लेने का दुस्सहास नहीं कर पाया... :)
आप जारी रखें। सीखता रहूंगा और बचकर चलता रहूंगा..
एक शंका "यह तारा ई.पू. 10000 से पहले भारत में नहीं दिखता था। उस समय कन्याकुमारी में दिखना प्रारम्भ हुआ।" बाकी तारा समूहों (नक्षत्रों) की भी यही गति रही होगी।
तिलक नाक्षत्रिक इतिहास के लिए इस तथ्य का सहारा लेते हैं कि वैदिक संहितायें और उनके ब्राह्मण पीढ़ी दर पीढ़ी एक बहुत ही वैज्ञानिक वाचन और श्रौत पद्धति द्वारा अपने मूल रूप में सुरक्षित रखे गये। समय के अनुसार आगे जोड़ होते रहे लेकिन जो पुराना था वह अपने मूल रूप में रहा। पुराणों और महाकाव्यों में ऐसी व्यवस्था न होने के कारण वे संदिग्ध हैं और उन पर अधिक विश्वास नहीं किया जा सकता जैसे महाभारत में भीष्म उत्तराय़ण के साथ राशि की भी बात करते हैं जब कि उस समय भारतीय गणनायें 27 नक्षत्रों पर आधारित थीं और भारतीय वर्तमान की 12 राशियों को जानते ही नहीं थे। स्पष्ट है कि यह पश्चिमी ज्योतिष के प्रभाव में बाद में जोड़ी गयी बात है और पुरानी होते हुये भी उतनी पुरानी नहीं कि काल कसौटी पर खरी उतरे।
हटाएंवेदांग ज्योतिष की बातों को भी तिलक तभी मानते हैं जब उनकी पुष्टि या वैसे संकेत संहिताओं से मिलते हैं। वेदों में वर्णित आकाशीय घटनाओं के रूपकों और अन्य देशों के अति प्राचीन ग्रंथों जैसे जेन्द अवेस्ता आदि से विमर्श करते,ऋग्वेद की बात को अथर्व से, अथर्व की बात को ऋक् से पुष्ट करते और ऐसे ही अन्य के लिये विधियाँ अपनातेहुये वे आगे बढ़े हैं। इस प्रकार वह विषुव के पीछे हटते जाने और महाविषुव के नक्षत्र विशेष की सीध में पड़ने के आधार पर वह काल गणना करते हैं एवं उन्हें तत्कालीन सत्र आयोजनों से जोड़ते हैं। उनके इस दृष्टिकोण की पुष्टि आधुनिक संगणकों द्वारा प्राप्त निष्कर्षों से होती रही है। एकाध महत्त्वहीन चूकों को छोड़ हजारो वर्षों में होने वाले परिवर्तनों और उनसे जुड़े मिथकों, संकेतों की पहचान वे बहुत ही सटीक ढंग से कर पाये हैं।
अब आते हैं अगस्त्य पर। यह सही है कि 10000 ईसा पूर्व में अन्य नक्षत्रों के अंतरिक्ष में दिखने पर भी परिवर्तन के नियम लागू हैं लेकिन यहाँ बात इसकी नहीं है। ये गणनायें तो आधुनिक कम्प्यूटरों द्वारा अकादमिक कारणों से की गई हैं। महत्त्वपूर्ण यह है कि अगस्त्य के लिये ही क्यों?
प्राचीन स्रोतों से इस बात का पता चलता है कि दक्षिण की ओर बढ़ते हुये अगस्त्य को स्वनामी तारे के दर्शन पहली बार विन्ध्य पर हुये। दक्षिणी आकाश का यह तारा उससे उत्तर दिशा के क्षितिज पर नहीं दिखता था। इस आधार पर गणना द्वारा यह जाना गया कि यह घटना 4500-5000 ई. पू. में तब हुई होगी जब पृथ्वी की गति के कारण यह तारा धीरे धीरे दृश्यता में उत्तर के क्षेत्र को समेटने को ऊपर चढ़ रहा था।
दक्षिणी आकाश में अगस्त्य कांति में केवल लुब्धक से कमतर है। इसके साथ यह विशेषता है कि यह उत्तरी गोलार्द्ध में अक्षांश 37अंश30’ से ऊपर के क्षेत्रों में कभी नहीं दिखता। इस कारण प्राचीन ग्रीक और रोमन इसे जानते ही नहीं थे जब कि मिस्र वालों को इसका पता था। यदि 37अंश6’ के सबसे उत्तरी अक्षांश सीमांत वाले भारत की स्थिति देखें तो प्रतीत होता है कि जैसे यह तारा भारत के मस्तक को छू कर पुन: दक्षिण की ओर मुड़ जाने के लिये ही बना है। इस विशिष्टता के साथ दक्षिणी आकाश में अयन वृत्त से अत्यधिक दूरी, लुब्धक और मृगशिरा के साथ विशिष्ट संयोजन और वर्षा ऋतु के समापन के साथ दक्षिणी आकाश में उदय आदि जुड़ कर इसे महत्त्वपूर्ण बना जाते हैं।
उल्लेखनीय है कि यह प्राचीन अति विशाल राशि Argo का भाग था जिसे प्रेक्षण सुविधा की दृष्टि से तीन छोटी राशियों Carina, Puppis और Vela में तोड़ दिया गया। अब यह Carina का भाग है।
क्या इसका एक अर्थ हम यह भी निकल सकते हैं की जो (geography )वैज्ञानिक धारणा है [भारतीय उपमहाद्वीप पहले एशिया का भाग न था और धीरे धीरे दक्षिण से आकर एशिया में जुदा, और हर साल आगे बढ़ते जाने से हिमालय की ऊंचाई कुछ बढती जाती है] - यह धारणा गलत है ? क्योंकि यदि भारत दक्षिण से उत्तर को बढ़ा हो तो पहले भी दिखना चाहिए था न यह तारा (because the indian subcontinent was to the south of it's current position at that time ? ) ? या फिर आज के खगोल वैज्ञानिक सिर्फ आज के भारत की भौगोलिक स्थिति के लिए "पहले नहीं दीखता था" कहते हैं ?
हटाएंअरे नहीं, जिस समय गोंडवाना प्लेट उत्तर की ओर चढ़ रही थी, उस समय धरती पर 'जटिल' जीवधारी नहीं थे। एककोशीय का पता नहीं।
हटाएंअद्भुत! अनुपम! ऐसी कहानियां जिन्हें बार-बार पढ़ने का मन करे। सुनाते रहिएगा। हम हुंकारा न भरे तो यह मतलब नहीं कि तारे देखते हुए सो गए हैं। आज की कहानी दो बार पढ़ी। दूसरी बार और नई बातें समझ आयीं। अभी कई बार पढ़ूंगा।
जवाब देंहटाएंमृगशिरा-हिरनी-हन्नी-orion: अगर शब्दों से खेलें तो हिरनी> हिरीन> होरीन> योरीन >ओरीन > ओरियन orion!
मृगशीर्ष नक्षत्र > मार्गशीर्ष महिना।
अगस्त्य तारा : "विन्ध्य पर्वतमाला के आसपास इसके (अगस्त्य तारा के) दर्शन लगभग 5000 ई.पू. में होने शुरू हुये जब कि उत्तर से विन्ध्य को पार करते अगस्त्य ने इसे पहली बार देखा।" वाह! वाल्मीकी रामायण में बताई ग्रह-स्थिति के आधार पर, पुष्कर भटनागर ने प्लेनेटेरियम सॉफ्टवेयर से जो गणनाएँ की थीं उनके अनुसार राम-वनगमन 5089 ई॰ पू॰ में हुआ था। यानी राम-अगस्त्य भेंट लगभग 5088 ई॰ पू॰ में हुई होगी!क्या खोजने वाले के नाम पर नक्षत्र का नाम रखने की परिपाटी तब से है?
"कोई मैक्समूलर की मनबढ़ बाँट का सन्दर्भ देते यह कहे कि ऋक् संहिता ईसा से 1500 वर्ष ही पुरानी है तो न मानना, अड़ जाना! ..." बहुत ठीक। यह भी कह देंगे कि वाल्मीकी ने लिखा कि राम के समय (यानी 5000-5100 ई॰ पू॰)तक ऋकवेद, यजुर्वेद और सामवेद की रचना हो चुकी थी।
अद्भुत है! एक बार पढ़ना पर्याप्त नहीं है।
जवाब देंहटाएंगजब !
जवाब देंहटाएंये ल्लो! हन्ना को तो मैं हिरणी का पति हिरण समझता था। वह हन्ता निकला!
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया लिखा गिरिजेश! कलम किधर है?! चूम लिया जाये!
कोई बात नहीं । इसे कलियुग का प्रारम्भ मान लीजिये "हन्ना" के "पति" से "हन्ता" बनने पर :-)
हटाएंमुझे इस ब्लॉग का सन्दर्भ अपने बड़े भाई से मिला और जो मैं ढूंढ रहा था वो तो नहीं मिला पर जो मिला वो अनुपमेय है | ऐसी ही सोच कुछ मेरे पिता जी कि भी थी और अफ़सोस कि मैं उनसे पढ़ कर कुछ या बहुत कुछ विषयों पर चर्चा न कर सका क्योंकि तब तक मैंने ही कुछ नहीं पढ़ा था | अभी भी प्राइमरी में ही हूँ किन्तु आपका लेख पढ़ कर जिज्ञासु विध्यार्थी कि भाँती मन में कई सारे प्रश्न उमड़ आये हैं |
जवाब देंहटाएंअब से आपके सभी लेख गौर से और बार बार पढने कि चेष्टा करूँगा और उसके बाद भी अगर जिज्ञासा शांत न हुई तो प्रश्न करने कि धृष्टता करूँगा और आशा करता हूँ कि यदि कोई प्रश्न होगा तो उसका समुचित उत्तर मुझे आपकी लेखनी से मिलेगा |
अभिनन्दन शर्मा
आप का स्वागत है। मैं एक विद्यार्थी भर हूँ। हाँ, एक साथी विद्यार्थी की तरह, जहाँ तक हो सकेगा आप की सहायता करूँगा।
हटाएंबहुत अच्छा
जवाब देंहटाएंअगस्त्य दक्षिण पूर्व एशिया गए थे।
कहँआ तक?
www
जवाब देंहटाएंआपने लिखा "महाभारत में भीष्म उत्तराय़ण के साथ राशि की भी बात करते हैं जब कि उस समय भारतीय गणनायें 27 नक्षत्रों पर आधारित थीं और भारतीय वर्तमान की 12 राशियों को जानते ही नहीं थे", किन्तु कुंडली तो बनती ही बारह भावों से है जिसमें बारह राशियाँ होती हैं और महर्षि पराशर (वेदव्यास जी के पिता) जो कि प्रमुख ज्योतिष प्रवर्तक ऋषि माने जाते हैं जो कि महाभारत के समय से भी पूर्व में थे (महाभारत का समय आज से ५००० वर्ष पूर्व का है) तो यह कैसे माना जाए कि भारतीय वर्तमान की 12 राशियों को जानते ही नहीं थे
जवाब देंहटाएंऋक् वेदाङ्ग ज्योतिष देखें। कालक्रम हेतु पुराणी मान्यतायें व बातें उलट पुलट संदिग्ध हैं, जातीय श्रेष्ठताभाव से प्रभावित भी। राशि आधारित ज्योतिष यहाँ तब या उसके पश्चात पहुँची जब वसंत विषुव अश्वायुज पर था। राशियों का विकास अवश्य वैदिक प्रभाव में हुआ किंतु मुख्य भारत की भूमि से बाहर यहाँ के यायावरों द्वारा ले जाये गये ज्ञान के आधार पर हुआ। विस्तार हेतु इस लेख के समस्त भाग पढ़ें।
हटाएंhttps://maghaa.com/babylonian-and-indian-astronomy-4/