गुरुवार, 18 अक्तूबर 2012

रोज रोज का सड़क छाप बलात्कार

गोसाईं बाबा लिख गये - नहिं कोउ अस जनमा जग माहीं। प्रभुता पाइ जाहि मद नाहीं। यह एक लोकप्रेक्षित सत्य है, भर्तृहरि के सर्वे गुणा: कांचनमाश्रयंति की तरह। सभ्य और विकसित होता समाज इन सचाइयों को झुठलाने की दिशा में आचरण और प्रयास करता है। यह प्रयास बहुसंख्य 80% जनसंख्या की सोच और जीवन स्तर की गुणवत्ता को ऊपर उठाने की ओर होता है ताकि सकल गुणवत्ता बढ़ सके। जिसे 'आम' या masses कहा जाता है, किसी भी तंत्र में वह महत्त्वपूर्ण होता है। लोकतंत्र में चूँकि तंत्र लोक से बनता है इसलिये इसकी समूची गुणवत्ता ही लोक यानि 'आम' पर निर्भर है।  

हमारे समाज में एक जुमला चलता है - सड़क छाप आदमी। यकीनन किसी भी समाज का छापा उसकी सड़कें हैं  अर्थात सड़क पर चलते आदमी के व्यवहार से उस समाज की स्थिति का स्पष्ट पता चलता है। 'सड़क छाप आदमी' जुमले में भटकते विपन्न रसूखहीन व्यक्ति के पक्ष के अलावा एक पक्ष यह भी है कि सड़कों पर चलते आदम जात की हरकतें निहायत ही निषेधात्मक और अवांछनीय हैं और राजमार्गों पर डहरते पशुओं की तुलना में वे कोई खास बेहतर नहीं हैं। मुफ्त में मिलते जहर तक की खोज खबर रखने वाला आदमी ट्रैफिक नियमों को तोड़ता हुआ पकड़े जाने पर पूछता है - ऐसा भी है! हमें नहीं पता था साहब और फिर बड़े भोलेपन के साथ जेब से गान्धी छाप निकालने का उद्यम करता माफी की माँग करता है।

प्रभुता प्रदर्शन की एक बहुत ही आम प्रवृत्ति है - गाड़ियों पर लगे और छपे विभिन्न प्रदर्श। बन्दा भले सचिवालय में चपरासी हो, स्कूटी के नम्बर प्लेट पर सचिवालय लिखवाना नहीं भूलता। साइकिल के मड गार्ड तक पर 'वित्त विभाग' लिखा मैंने देखा है - यह कंचन यानि 'वित्त' और उससे सम्बन्धित विभाग की प्रभुता और गुणवत्ता का ऐसा 'विपन्न' प्रदर्शन है कि देख के अपने केश नोचने को मन करता है और साथ ही अपनी मानसिक स्थिति पर भी सन्देह होने लगता है - यार, मिसफिट तो ठीक, कहीं हम अनफिट तो नहीं!

नये युग की कथित SUV गाड़ियाँ प्रभुता और कंचन वालों यानि रसूखदार धनपशुओं के नग्न प्रदर्शन की साधन हैं। लाल, नीली बत्तियाँ, पार्टियों के झंडे, पिछले काँच पर किसी खास पार्टी के मिशन 2014 का सन्देश, नियमों के विपरीत खिड़कियों पर काली फिल्में, संसार के सर्वोत्तम कैलीग्राफरों को लजवा देने की शैलियों में लिखे नम्बर प्लेट, गे पुरुषों की तरह ही बॉडी पर सजे विचित्र से सौन्दर्याभरण आदि इन गाड़ियों के स्थायी मानक हैं। इन गाड़ियों के नम्बर भी सन्देश देते हैं: 786, 9999, 6666, 0001, 1234 - कथित विशिष्ट किंतु शिष्टताहीन आतंकी वी आई पी नम्बर जिनकी आधिकारिक रूप से नीलामी होती है और जिन्हें 'ब्लैक' में पाने के लिये कई बार लाखों उड़ा दिये जाते हैं। अंकों की ऐसी दुर्गति केवल अपने यहाँ ही हो सकती है। क्यों न हो, आखिर हमने ही तो इन्हें ढूँढ़ा था! ये अलिखित मानक परिवहन विभाग के पूरे संज्ञान में प्रभु वर्ग द्वारा उतने ही भ्रष्ट आम जन के मानसिक और भौतिक उत्पीड़न के लिये बनाये गये हैं। इनके द्वारा वे दैनिक आतंकवाद के पाठ सीखते, पढ़ते और पढ़ाते हैं।

अधिकतर ऐसे प्रदर्शों वाले व्यक्ति सड़क का और सड़क पर मानसिक बलात्कार करते चलते हैं। ट्रैफिक के नियम तोड़ने हों या हूटर बजा कर चौंकाना हो, ये पहले नम्बर पर आते हैं। ऐसी गाड़ियों के ड्राइवरों में पाई जाने वाली सहज, स्वाभाविक और आदरणीय बदतमीजी उनके स्वामियों में पाई जाने वाली बदतमीजी की अनुक्रमानुपाती होती है। यदि गाड़ी में मालिक न हों तो क्या कहने! (वाहन स्वामी के अपने खुद के किसी वाहन में पाये जाने की प्रायिकता (probability) उसके पास पाये जाने वाले वाहनों की कुल संख्या के व्युत्क्रमानुपाती होती है। यदि उनमें से एक 'सरकारी' है तो यह प्रायिकता उसके निजी वाहनों के लिये शून्य हो जाती है।), ड्राइवर सड़क पर ऐसे चलता है जैसे पगलाया साँड़। कोई आश्चर्य नहीं कि काले शीशे चढ़ा कर किसी भी समय कहीं किनारे पार्क कर 'लग जाने वाले' यही साँड़, सॉरी ड्राइवर होते हैं। सत्ता और सुरा के मद की तो बात ही क्या! जिसकी जितनी श्रद्धा, उसका उतना अद्धा!

गाड़ियों द्वारा आभासी शक्ति प्रदर्शन में प्रेस, मीडिया, पुलिस, प्रशासन, न्यायपालिका, राजनीतिक पार्टियाँ आदि सभी लगे हुये हैं। सामूहिक बलात्कार में सबकी आम सहमति है। इसीलिये सब कुछ दिखते हुये भी कोई इस पर नहीं बोलता या कुछ करता। चौराहों पर इसीलिये किनारे दो सौ पर डे के पुलिसिया वसूली प्रोग्रामों के तहत गुमटियाँ पनपती हैं ताकि ट्रैफिक हवलदार को पान मसाले और सिगरेट के लिये दूर न जाना पड़े और वह ड्यूटी पर होते हुये भी न रहे। बात बेबात व्यर्थ का कोलाहल मचाने वाले प्रेस को नाक नीचे के ये नजारे नहीं दिखते क्यों कि साँझ के हाला हल का प्रबन्ध भी तो देखना होता है।
इस वाहन को देखिये, ऊपर उच्च न्यायालय और नीचे मानवाधिकार लिखा हुआ है (मैंने फोटो से नम्बर हटा दिया है क्यों कि मैं 'तमाम आमों से भी आम' आदमी हूँ, इन सूरों की तपिश मुझे नहीं झेलनी। पंगे लेकर देख चुका हूँ, कुछ नहीं होता जाता)। POWER BRAKE के पॉवर की तो बात ही अलग, अनब्रेकेबल है!

2012-10-17-099

ऐसा तो हो नहीं सकता कि वाहन स्वामी को पते न हो कि कौन यह सब लिख गया, कैसे लिखा गया! अब इसके स्वामी किस तरह का न्याय करते होंगे, आप समझ सकते हैं। मानवाधिकार का अर्थ ये अपने ग़लतफहमी अधिकार से लगाते होंगे और वादी के पहुँचने पर कहते होंगे - मानवाधिकार? कौन ची? हे, हे, हे...वह तो सड़कों पर छितराया हुआ है। जाओ जितना चाहे बटोर लो। उसके बाद उसे इतना धिक्कारते होंगे कि वह अधिकार की बात भूल साहब की कार वन्दना करता घर को रवाना हो जाता होगा।  

हमारे तंत्र का कोढ़ ऊपर का भ्रष्टाचार और बलात्कार, आम जन के जीवन में पाये जाने वाले लघु यानि कुटीर उद्योग के स्तर के भ्रष्टाचार और बलात्कार का समुच्चय भर है। जिस तरह से बाहर से प्रायोजित इस्लामी आतंकवाद से अधिक हानिकर और क्षयकारी गली मुहल्लों के दैनिक लघु स्तर के  आतंकी हैं, वैसे ही सड़कों पर प्रदर्शित किंतु वस्तुत: हमारे अस्तित्त्व में जड़ित टुच्ची शक्ति प्रदर्शन और बलात्कार की प्रवृत्तियाँ रसूखदारों की अहमकाना प्रवृत्तियों से। ऐसा इसलिये कि आम जन की यही प्रवृत्तियाँ उनका पोषण करती हैं, उनके लिये ज़मीन तैयार करती हैं। उगते सूरज को सलाम करने की प्रवृत्ति भले उसमें कितने ही कृष्ण विवर हों, यहीं से आती है। इसके पीछे यह सोच काम करती है कि चूँकि फलाँ येन केन प्रकारेण पूँजी और बल एकत्रित करने और उसके भौंड़े प्रदर्शन में मुझसे आगे है, इसलिये श्रद्धेय है, पूज्य है।

कहा गया है:

हेम्न: संलक्ष्यते ह्यग्नौ: विशुद्धि: श्यामिकाsपि वा (सोने की शुद्धि या अशुद्धि की परख अग्नि में होती है)।

यह कथन उन विकसित समाजों के लिये है जहाँ आग पाई जाती है, यहाँ तो सब गोबर हैं। पहले सूख कर जलने लायक तो हो लें ताकि परख सकें कि जो पास है वह राँगा है या सोना!   

9 टिप्‍पणियां:

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    जिस तरह से बाहर से प्रायोजित इस्लामी आतंकवाद से अधिक हानिकर और क्षयकारी गली मुहल्लों के दैनिक लघु स्तर के आतंकी हैं, वैसे ही सड़कों पर प्रदर्शित किंतु वस्तुत: हमारे अस्तित्त्व में जड़ित टुच्ची शक्ति प्रदर्शन और बलात्कार की प्रवृत्तियाँ रसूखदारों की अहमकाना प्रवृत्तियों से। ऐसा इसलिये कि आम जन की यही प्रवृत्तियाँ उनका पोषण करती हैं, उनके लिये ज़मीन तैयार करती हैं। उगते सूरज को सलाम करने की प्रवृत्ति भले उसमें कितने ही कृष्ण विवर हों, यहीं से आती है। इसके पीछे यह सोच काम करती है कि चूँकि फलाँ येन केन प्रकारेण पूँजी और बल एकत्रित करने और उसके भौंड़े प्रदर्शन में मुझसे आगे है, इसलिये श्रद्धेय है, पूज्य है।

    कविश्रेष्ठ, आज आपने सही जगह प्रहार किया है... मैं भी यही मानता हूँ... यह सब का सब, ईमानदारी, न्याय, समानता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, पारदर्शिता, समान अवसर आदि आदि जो भी बातें हैं वह एक विकसित व सभ्य समाज के लिये ही तो हैं... यहाँ तो सब गोबर है... कभी कभी तो मन करता है कि 'उस' जिसे मैं मानता ही नहीं के आगे सर झुका, घंटे बजा, मंत्रोच्चारण कर इस गोबर को कम से कम धातु तो बना ही देने की प्रार्थना करूँ... बाकी सोना-ताँबा तो तपा कर देख ही लिया जायेगा... :(



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  2. जन समस्या आपकी लेखनी चली, अच्छा लगा। बेहतरीन आलेख है। प्रेरक और चिंतन के लिए बाध्य करता। इस आलेख को पढ़कर और लिखने का मन है लेकिन घड़ी डांट रही है।

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  3. बाह्य शत्रु से ज़्यादा हानिकर आंतरिक शत्रु होता है... ज्ञान की वह आग जोकि इन आंतरिक शत्रुओं को जला कर भस्म करे, फिर से जलने लगी है... आँच अभी धीमी अवश्य है लेकिन लगता नही हैकि बुझेगी... आगे, हरि इच्छा..

    सादर

    ललित

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  4. कम से कम 'बड़े शहरों' महानगरों और राजधानियों में तो बलात्कार के पीछे यही मानसिकता है. दिल्ली एनसीआर में 'मुआवजा' पाकर करोड़पति हुए नवधनाढ्य वर्ग के SUV में घूमने वाले शहजादे, ऐसे कुकृत्यों में सबसे आगे होते हैं क्योंकि इनके पास पैसा भी है और रसूख भी. ऐसे ही नहीं बलात्कार पीडिता अधिकतर औरतें या तो मध्यम या निर्धन वर्ग की होती हैं या दलित वर्ग की. इस तरह की लड़कियों को ये रसूखदार लोग पैसे से खरीदी जा सकने वाली 'चीज़' समझते हैं, जिसके साथ जैसा चाहे सुलूक करके, पूरी व्यवस्था को 'माल' खिलाकर आराम से छूटा जा सकता है.

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  5. छोटे छोटे पद में इतना मद छिपा रहता है, नहीं ज्ञात था।

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  6. नहिं कोउ अस जनमा जग माहीं। प्रभुता पाइ जाहि मद नाहीं।
    मद ही नहीं यह प्रायः मद्यपी भी होते है काले धन से उपजाई हुई विलासिता की गाडियों पर उत्तर प्रदेश सरकार लिखा देखने पर मुझे कोफ़्त होती है यदि मै राज्यपाल होता तो ऐसी सभी गाडियों को राजभवन में खिचवा लेता जब सरकार की है तो ले लेनी चाहिए न

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