बुधवार, 30 जनवरी 2013

शीत दुपहर धूप

(1)

प्रात साँझ की ठिठुरन बीच, आलस की रजाई छोड़, ज़िन्दगी तनतनी। कुछ काम कुछ धाम, हरारत भरी बनी। आस सी गुनगुनी, धूप अधिक बनी, कम ठनी।

(2)

शहर की पेटी। मची दबी दबी सी खलबली। थकी थकी शीत की दुपहर, खिली। ठेले के पास खड़ी, आँच सिगड़ी में सनी। स्वाद में तपी मूँगफली। साहब सूबा, यादो पाँड़ें, बच्चा बचिया घेरे ठाढ़े, जीभ पर कुछ कुछ सनसनी, धूप खिली।

(3)

गोरी की पुकार खुली। पोटली में रोटी, डली, आँख सी सिकुड़ी, धूप किकुरी। देह में थकान, नरखे नीचे कुछ पसीना भी परेशान, फिर भी सीना उतान, सामने ऊँची मचान। धूप चढ़ी, भूख बढ़ी!          

मंगलवार, 29 जनवरी 2013

साँझ, चाँद, रात, ओस और दो मानुषी कल्पनायें


(1) 
 
इस साँझ, प्राची में टँगा है गोल पीला सोना चाँद। पवन काँपता खड़ा है बूढ़े सुनार के आगे, जिसने बना दिया है परखने को बड़ा सा गोला कसौटी शालिग्राम। श्वेत श्मश्रु श्वेत केश श्वेत लबादा। रात की कारिख पसरती है पानी में मसि की टिकिया। वो सब जो श्वेत है, ग़ुम हो रहा धीरे धीरे पानी का पानी। शक़ है पवन को नीयत पर सुनार के, जाने किस छोर छिपा दिया गहना। वह सहमता है, काँपता है। आज की रात तो न रोये धनिया। प्रतिदिन की यह बात, जाने कैसी ज़िद। पवन रोज लाता है, गोला छोटा होता जाता है, सुनार न गहना चमकाता है, न छोड़ता है बनाना कसौटी पर घटते गोले। धनिया सँवरने को सिसकती है रोज, रोज ओस पड़ती है।
(2)   
साँझ की आराधना। लगा दिया तुम्हारे साँवले माथे, श्वेत पीत तिलक चन्दन चाँदना। देखा नहीं कभी देह को यूँ वस्त्रों पर फैलते, वसनहीन कह दूँ? जाने कैसा अभिचार, बिठा मुझे सामने सपनों के, उतारती हो परत दर परत बलायें प्याज सी। अश्रु? ना, ओस झरती शुभकामना, धुन्ध धूम धरा धुन धीमी, प्रात के कुहरे की प्रस्तावना, विभावरी आराधना!  

शनिवार, 26 जनवरी 2013

खुशकिस्मती और मारामारी


गुडुवा झुलनवा से- अबे, आज तो अधिक कमाई हो गयी! भीख माँगने के साथ झंडे भी बेच लिये।
झुलनवा,"तो चल पिक्चर चलते हैं।"
गुडुवा,"नहीं, उस्ताद को पता चला तो बहुत मारेगा।"
झुलनवा,"मेरी तो मारता ही रहता है, अधिक क्या कर लेगा? मैं चला।"
गुडुवा झुलनवा को खुशकिस्मत समझ रुआँसा हो गया है।

नरक का राजपथ


कुछ है जो नहीं बदलता,
नया क्या लिखना जब
इतने वर्षों के बाद भी
लिखना उन्हीं शब्दों को दुहराये?
कुछ है जो ग़लत है, बहुत ग़लत है,
चिंतनीय है, अमर है, शाश्वत है
हम अभिशप्त हैं उसे पीढ़ी दर पीढ़ी रोने को
अमर अश्वत्थामा बन सनातन घाव ढोने को
किंतु हमें नहीं पता हमारा पाप क्या
नहीं पता वह अभिशाप क्या?
नहीं पता किन ईश्वरों ने गढ़े नर्क?
मस्तिष्कों में भरे मवाद जैसे तर्क।
..............
खेतों के सारे चकरोड
टोली की पगडण्डियाँ
कमरे की धूप डण्डी
रिक्शे और मनचलों के पैरों तले रौंदा जाता खड़ंजा
...
ये सब राजपथ से जुड़ते हैं।
राजपथ जहाँ राजपाठ वाले महलों में बसते हैं।
ये रास्ते सबको राजपथ की ओर चलाते हैं
इन पर चलते इंसान बसाते हैं
(देवगण गन्धाते हैं।)
कहीं भी कोई दीवार नहीं
कोई द्वार नहीं
राजपथ सबके लिए खुला है
लेकिन
बहुत बड़ा घपला है
पगडण्डी के किनारे झोंपड़ी भी है
और राजपथ के किनारे बंगला भी
झोंपड़ी में चेंचरा ही सही लगा है।
बंगले में लोहे का गेट और खिड़कियाँ लगी हैं
ये सब दीवारों की रखवाली करती हैं
इनमें जनता और विधाता रहते हैं।
कमाल है कि बाहर आकर भी
इन्हें दीवारें याद रहती हैं
न चन्नुल कभी राजपथ पर फटक पाता है
न देवगण पगडण्डी पर।
बँटवारा सुव्यवस्थित है
सभी रास्ते यथावत
चन्नुल यथावत
सिक्रेटरी मिस्टर चढ्ढा यथावत।
कानून व्यवस्था यथावत।
राजपथ यथावत
पगडण्डी यथावत
खड़न्जा यथावत।
यथावत तेरी तो ...

हरे हरे डालर नोट
उड़ उड़ ठुमकते नोट
चन्नुल आसमान की ओर देख रहा
ऊँची उड़ान
किसान की शान
चन्नुल भी किसान
मालिक भी किसान
पहलवान
किसानों के किसान
खादी के दलाल।
प्रश्न: उनका मालिक कौन ?
उत्तर: खूँटी पर टँगी खाकी वर्दी
ब्याख्या: फेर देती है चेहरों पर जर्दी
सर्दी के बाद की सर्दी
जब जब गिनती है नोट वर्दी
खाकी हो या खादी ।
चन्नुल के देस में वर्दी और नोट का राज है
ग़जब बेहूदा समाज है
उतना ही बेहूदा मेरे मगज का मिजाज है
भगवान बड़ा कारसाज है
(अब ये कहने की क्या जरूरत थी? )....

आजादी - जनवरी है या अगस्त?
अम्माँ कौन महीना ?
बेटा माघ माघ के लइका बाघ ।
बबुआ कौन महीना ?
बेटा सावन सावन हे पावन ।
जनवरी है या अगस्त?
माघ है या सावन ?
क्या फर्क पड़ता है
जो जनवरी माघ की शीत न काट पाई
जो संतति मजबूत न होने पाई
क्या फर्क पड़ता है
जो अगस्त सावन की फुहार सा सुखदाई न हुआ
अगस्त में कोई तो मस्त है
वर्दी मस्त है जय हिन्द।

जनवरी या अगस्त?
प्रलाप बन्द करो
कमाण्ड ! - थम्म
नाखूनों से दाने खँरोचना बन्द
थम गया ..
पूरी चादर खून से भीग गई है...
हवा में तैरते हरे हरे डालर नोट
इकोनॉमी ओपन है
डालर से यूरिया आएगा
यूरिये से गन्ना बढ़ेगा।
गन्ने से रूपया आएगा
रुक ! बेवकूफ ।
समस्या है
डालर निवेश किया
रिटर्न रूपया आएगा ।
बन्द करो बकवास थम्म।

जनवरी या अगस्त?
ये लाल किले की प्राचीर पर
कौन चढ़ गया है ?
सफेद सफेद झक्क खादी।
लाल लाल डॉलर नोट
लाल किला सुन्दर बना है
कितने डॉलर में बना होगा ..

खामोश
देख सामने
कितने सुन्दर बच्चे !
बाप की कार के कंटेसियाए बच्चे
साफ सुथरी बस से सफाए बच्चे
रंग बिरंगी वर्दी में अजदियाए बच्चे
प्राचीर से गूँजता है:
मर्यादित गम्भीर
सॉफिस्टिकेटेड खदियाया स्वर
ग़जब गरिमा !
बोलें मेरे साथ जय हिन्द !
जय हिन्द!
समवेत सफेद खादी प्रत्युत्तर
जय हिन्द!
इस कोने से आवाज धीमी आई
एक बार फिर बोलिए जय हिन्द
जय हिन्द , जय हिन्द, जय हिन्द
हिन्द, हिन्द, हिन् ...द, हिन् ..

..हिन हिन भिन भिन
मक्खियों को उड़ाते
नाक से पोंटा चुआते
भेभन पोते चन्नुल के चार बच्चे
बीमार सुखण्डी से।
कल एक मर गया।
अशोक की लाट से
शेर दरक रहे हैं
दरार पड़ रही है उनमें ।
दिल्ली के चिड़ियाघर में
जींस और खादी पहने
एक लड़की
अपने ब्वायफ्रेंड को बता रही है,
शेर इंडेंजर्ड स्पीशीज हैं
यू सिली
शेर मर रहे हैं बाहर सरेह में
खेत में
झुग्गियों में
झोपड़ियों में
सड़क पर..हर जगह
सारनाथ में पत्थर हम सहेज रहे हैं
जय हिन्द।

मैं देखता हूँ
छ्त के छेद से
लाल किले के पत्थर दरक रहे हैं।
राजपथ पर कीचड़ है
बाहर बारिश हो रही है
मेरी चादर भीग रही है।
धूप भी खिली हुई है -
सियारे के बियाह होता sss
सियारों की शादी में
शेर जिबह हो रहे हैं
भोज होगा
काम आएगा इनका हर अंग, खाल, हड्डी।
खाल लपेटेगी सियारन सियार को रिझाने को
हड्डी का चूरन खाएगा सियार मर्दानगी जगाने को ..
पंडी जी कह रहे हैं - जय हिन्द।

अम्माँ ssss
कपरा बत्थता
बहुत तेज घम्म घम्म
थम्म!

मैं परेड का हिस्सा हूँ
मुझे दिखलाया जा रहा है -
भारत की प्रगति का नायाब नमूना मैं
मेरी बकवास अमरीका सुनता है, गुनता है
मैं क्रीम हूँ भारतीय मेधा का
मैं जहीन
मेरा जुर्म संगीन
मैं शांत प्रशांत आत्मा
ॐ शांति शांति
घम्म घम्म, थम्म !
परेड में बारिश हो रही है
छपर छपर छ्म्म
धम्म।

क्रॉयोजनिक इंजन दिखाया जा रहा है
ऑक्सीजन और हाइड्रोजन पानी बनाते हैं
पानी से नए जमाने का इंजन चलता है
छपर छपर छम्म।
कालाहांडी, बुन्देलखण्ड, कच्छ ... जाने कितनी जगहें
पानी कैसे पहुँचे - कोई इसकी बात नहीं करता है
ये कैसा क्रॉयोजेनिक्स है!
चन्नुल की मेंड़ और नहर का पानी
सबसे बाद में क्यों मिलते हैं?
ये इतने सारे प्रश्न मुझे क्यों मथते हैं?
घमर घमर घम्म।

रात घिर आई है।
दिन को अभी देख भी नहीं पाया
कि रात हो गई
गोया आज़ाद भारत की बात हो गई।
शाम की बात
है उदास बुखार में खुद को लपेटे हुए।
खामोश हैं जंगी, गोड़न, बेटियाँ, गुड्डू
सो रहे हैं कि सोना ढो रहे हैं
जिन्हें नहीं खोना बस पाना !
फिर खोना और खोते जाना..
सोना पाना खोना सोना ....
जिन्दगी के जनाजे में पढ़ी जाती तुकबन्दी।
इस रात चन्नुल के बेटे डर रहे हैं
रोज डरते हैं लेकिन आज पढ़ रहे हैं
मौत का चालीसा - चालीस साल
लगते हैं आदमी को बूढ़े होने में
यह देश बहुत जवान है।

जवान हैं तो परेड है
अगस्त है, जनवरी है
जवान हैं परेड हैं
अन्धेरों में रेड है।
मेरी करवटों के नीचे सलवटें दब रही हैं
जिन्दगी चीखती है - उसे क्षय बुखार है।
ये सब कुछ और ये आजादी
अन्धेरे के किरदार हैं।

हम जन्मते हैं
हम बहते हैं हम जीते हैं।
दे मांस, मज्जा, अस्थि, रक्त, देह सब
उनके चलने को राजपथ गढ़ते हैं।

हम अमर हैं
वे अमर हैं
ये उत्सव के दिन अमर हैं
जय हिन्द!