काषाय यानि कसैले मन की स्थिति में आया है वसंत। शीतोष्ण वायु है, आज कल के सूर्योदय भी नवीन लगते हैं। बुद्ध काषाय यानि गेरुआ को निर्मल मन की स्थिति से जोड़ते हैं लेकिन मेरा स्तर वह नहीं है।
ऑफिस के प्रांगण में कल पतझड़ से नग्न स्वनामित वनसेमलों को सदाबहार सिल्वर ओक के साथ देर तक निहारता रहा। जीवन ऐसा ही है, किसलिये कसैला होना? भीतर शीत और बाहर ऊष्मा, स्वेद का अनुभव करते किसी कोने में आह्लाद सा उठा। भान हुआ कि वसंत की पंचमी में हूँ। पीली मिठाई और पीले पुहुप मँगाया, सबको बता बता कर खिलाया कि आज वसंत पंचमी है, कल अवकाश के दिन भी रहेगी। गैरिक काषाय पीला हो चला – अमल।
सरसो फूलती गयी और मन के किसी कोने में सहमे से बैठे बच्चे किलकारियाँ मारते दौड़ चले...रसायन प्रभाव।
यह ऋतु पुष्पऋतु है। सौन्दर्य और आकर्षण की ऋतु है। मिलन की ऋतु है। सृष्टि के नूतन बीज उपजाने के लिये यज्ञ ऋतु है यह - जीवंत काम अध्वर!भारत में बहुत पहले से यह कामदेव की उपासना का काल रहा है जिसका समापन होली से होता है।
ऑफिस के प्रांगण में कल पतझड़ से नग्न स्वनामित वनसेमलों को सदाबहार सिल्वर ओक के साथ देर तक निहारता रहा। जीवन ऐसा ही है, किसलिये कसैला होना? भीतर शीत और बाहर ऊष्मा, स्वेद का अनुभव करते किसी कोने में आह्लाद सा उठा। भान हुआ कि वसंत की पंचमी में हूँ। पीली मिठाई और पीले पुहुप मँगाया, सबको बता बता कर खिलाया कि आज वसंत पंचमी है, कल अवकाश के दिन भी रहेगी। गैरिक काषाय पीला हो चला – अमल।
सरसो फूलती गयी और मन के किसी कोने में सहमे से बैठे बच्चे किलकारियाँ मारते दौड़ चले...रसायन प्रभाव।
यह ऋतु पुष्पऋतु है। सौन्दर्य और आकर्षण की ऋतु है। मिलन की ऋतु है। सृष्टि के नूतन बीज उपजाने के लिये यज्ञ ऋतु है यह - जीवंत काम अध्वर!भारत में बहुत पहले से यह कामदेव की उपासना का काल रहा है जिसका समापन होली से होता है।
एक प्रश्न उठा - वसंत का स्वागत पाँचवे दिन ही क्यों? यह क्या बात हुई कि नानाविहगनादित: कुसुमाकर: तिथि बता कर आता है और हम उसका अतिथियोग्य शिष्टाचार के साथ स्वागत करने के लिये भी पाँच दिन प्रतीक्षा करते हैं!
कुसमायुध कामदेव की ऋतु में विद्यादायिनी सरस्वती की उपासना क्यों?
कामदेव अनंग हैं यानि देहविहीन। विचित्र बात है न प्रेम का देव देहविहीन? वह अनंग इसलिये है कि समस्त जीवधारी उसके अंग हैं।
कुसुमायुध के तूणीर में खिली प्रकृति से लिये पाँच बाण रहते हैं जिनके नाम और प्रभाव अमरकोश में ऐसे दिये गये हैं:
कामदेव अनंग हैं यानि देहविहीन। विचित्र बात है न प्रेम का देव देहविहीन? वह अनंग इसलिये है कि समस्त जीवधारी उसके अंग हैं।
कुसुमायुध के तूणीर में खिली प्रकृति से लिये पाँच बाण रहते हैं जिनके नाम और प्रभाव अमरकोश में ऐसे दिये गये हैं:
अरविन्दम् अशोकं च चूतं च नवमल्लिका ।
नीलोत्पलं च पञ्चैते पञ्चबाणस्य सायकाः ॥
उन्मादनस् तापनश् च शोषणः स्तम्भनस् तथा ।
संमोहनस्श् च कामश् च पञ्च बानाः प्रकीर्तिताः॥
नीलोत्पलं च पञ्चैते पञ्चबाणस्य सायकाः ॥
उन्मादनस् तापनश् च शोषणः स्तम्भनस् तथा ।
संमोहनस्श् च कामश् च पञ्च बानाः प्रकीर्तिताः॥
पहला तीर: कमल (Nelumbo nucifera)
आघात स्थल: वक्षक्षेत्र
प्रभाव : उन्माद
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दूसरा तीर : अशोक पुष्प (Saraca asoca)
आघात स्थल : होठ
प्रभाव : तपन
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तीसरा तीर : आम्र मंजरी (Mangifera indica)
आघात स्थल: मस्तक
प्रभाव: शोषण
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चौथा तीर : नवमल्लिका (Jasminum officinale)
आघात स्थल : आँखें
प्रभाव : स्तम्भन
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पाँचवा तीर : नीलोत्पल (Nymphaea caerulea)
आघात स्थल : सर्वत्र
प्रभाव : सम्मोहन
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कहीं ऐसा तो नहीं कि ऋतु आह्लाद के 'आघातों' का अनुभव करने और उन्हें अपने भीतर समो प्रकृति के नूतन रंग रसायनों से आपूरित हो जाने के लिये ये पाँच दिन दिये गये? जीवन की भागदौड़ में ठहर कर सायास अनुभूतियों की अभिव्यक्ति का उद्योग पर्व तो नहीं यह? भारतीय मनीषा हर भाव को सम्मान देती है, हमारे यहाँ तो वीभत्स और जुगुप्सा भी रस हैं!
वसंत के पहले पाँच दिन ऐसे देखें क्या?
पहले दिन हृदयक्षेत्र पर आघात और उन्माद।
दूसरे दिन ओठ - देह के ताप प्रभाव में ओठों की थरथराहट, अभिव्यक्ति!
तीसरे दिन मस्तिष्क भी विचलित और सभी उत्तेजनाओं को भीतर सोख लेना।
चौथे दिन आँखें, अरे सब कुछ तो आँखों से ही होता रहा, तो अलग से क्यों? स्तम्भन पर ध्यान देने से खम्भे की तरह जड़ीभूत होना समझ में आता है। यह स्थिर बिम्ब है जिसे कहते हैं आँखों में बसा लेना!
और सबसे बाद में सम्मोहन तीर, सर्वत्र आघात। सुध बुध खोना और बात है, सम्मोहित हो कुछ भी कर देना और बात।
अब विवेक की आवश्यकता है अन्यथा अनर्थ की पूरी सम्भावना है।
तो पाँचवे दिन विद्या विवेक की देवी की आराधना होती है। सौन्दर्य से उपजे राग भाव को उदात्तता की ओर ले जाना ताकि शृंगार उच्छृंखल न हो, सरस हो।
देवी के साथ पद्म है - वनस्पति सौन्दर्य का चरम, मोर है - जंतु सौन्दर्य का चरम, लेकिन वह नीर क्षीर विवेकी हंस की सवारी करती हैं। वीणा से संगीत का सृजन करती हैं तो पुस्तकधारिणी भी हैं!
वसंत पंचमी के दिन सरस्वती आराधना इसके लिये है कि ऋतु की शृंगार भावना रसवती हो किंतु विद्या के अनुशासन में! इस समय परिवेश में जो अपार सौन्दर्य बिखरा होता है, उसका आनन्द बिन विद्या के पूर्ण नहीं होता। उसके सूक्ष्म का, उसके स्थूल का, उसके समग्र का बिना विद्या के अवगाहन सम्भव नहीं! उससे काम पुष्ट होता है। काम जीवन का मूल है जिसके कारण उसकी पुष्टि जीवन को भरपूर करती है। क्रमश: पूर्णता की ओर बढ़ते हुये मनुष्य मुक्त हो, यही उद्देश्य है। विद्या के साथ से रागात्मकता क्रमश: उदात्तता की ओर बढ़ती है जिसकी अभिव्यक्ति संगीत, कला, साहित्य, नृत्य आदि में उत्कृष्ट रूप में होती है। बौद्ध जन अविद्या या अवेज्ज पर बहुत मीमांसा किये हैं लेकिन वह निषेध अर्थ में है। विद्या का सूत्र यह है - सा विद्या या विमुक्तये, जो मुक्त करे वह विद्या है। जब आप 'विद्वान' होते हैं तो राग या प्रेम आप को बाँधते नहीं हैं, सौन्दर्य भी बाँधता नहीं है लेकिन आनन्द भरपूर होता है।
विद्या को घृणा से भी जोड़ कर देखना होगा। हम सब में घृणा है। जाने अनजाने हमारे व्यवहार घृणा से भी परिचालित होते हैं। घृणा से मुक्ति तो आदर्श स्थिति है लेकिन यदि घृणा की युति विद्या से हो जाय तो दो बातें होती हैं - विश्लेषण और कर्म। विश्लेषण और विवेक आप को अन्ध कूप में गिरने से बचाते हैं। ऐसे में घृणा से प्रेरित आप के कर्म क्रमश: विधेयात्मक होते जाते हैं। आप कारण के उन्मूलन की सोचने लगते हैं न कि कारकों के। यह एक ऐसी मानसिक अवस्था होती है जहाँ आप के प्रहार भी वस्तुनिष्ठ होते हैं। ऐसे में भीतर की घृणा जो कि एक आम जन होने के कारण आप में पैठी हुई है, निषेधात्मक प्रभाव नहीं छोड़ती। तो आज विद्या दिवस पर भीतर की घृणा का विश्लेषण करें, उसे विद्या से युत करें। द्रष्टा बनें।
वायु शीतोष्ण है, अपनी त्वचा पर उसकी सहलान का अनुभव करें। सूर्योदय नये से दिखते हैं, उन्हें अपनी आँखों में स्थान दें। सौन्दर्य के लिये एक असंपृक्त सराह और अनुभूतिमय दृष्टि अपने भीतर विकसित करें। संसार और सुन्दर होगा।
वसंत के पहले पाँच दिन ऐसे देखें क्या?
पहले दिन हृदयक्षेत्र पर आघात और उन्माद।
दूसरे दिन ओठ - देह के ताप प्रभाव में ओठों की थरथराहट, अभिव्यक्ति!
तीसरे दिन मस्तिष्क भी विचलित और सभी उत्तेजनाओं को भीतर सोख लेना।
चौथे दिन आँखें, अरे सब कुछ तो आँखों से ही होता रहा, तो अलग से क्यों? स्तम्भन पर ध्यान देने से खम्भे की तरह जड़ीभूत होना समझ में आता है। यह स्थिर बिम्ब है जिसे कहते हैं आँखों में बसा लेना!
और सबसे बाद में सम्मोहन तीर, सर्वत्र आघात। सुध बुध खोना और बात है, सम्मोहित हो कुछ भी कर देना और बात।
अब विवेक की आवश्यकता है अन्यथा अनर्थ की पूरी सम्भावना है।
तो पाँचवे दिन विद्या विवेक की देवी की आराधना होती है। सौन्दर्य से उपजे राग भाव को उदात्तता की ओर ले जाना ताकि शृंगार उच्छृंखल न हो, सरस हो।
देवी के साथ पद्म है - वनस्पति सौन्दर्य का चरम, मोर है - जंतु सौन्दर्य का चरम, लेकिन वह नीर क्षीर विवेकी हंस की सवारी करती हैं। वीणा से संगीत का सृजन करती हैं तो पुस्तकधारिणी भी हैं!
वसंत पंचमी के दिन सरस्वती आराधना इसके लिये है कि ऋतु की शृंगार भावना रसवती हो किंतु विद्या के अनुशासन में! इस समय परिवेश में जो अपार सौन्दर्य बिखरा होता है, उसका आनन्द बिन विद्या के पूर्ण नहीं होता। उसके सूक्ष्म का, उसके स्थूल का, उसके समग्र का बिना विद्या के अवगाहन सम्भव नहीं! उससे काम पुष्ट होता है। काम जीवन का मूल है जिसके कारण उसकी पुष्टि जीवन को भरपूर करती है। क्रमश: पूर्णता की ओर बढ़ते हुये मनुष्य मुक्त हो, यही उद्देश्य है। विद्या के साथ से रागात्मकता क्रमश: उदात्तता की ओर बढ़ती है जिसकी अभिव्यक्ति संगीत, कला, साहित्य, नृत्य आदि में उत्कृष्ट रूप में होती है। बौद्ध जन अविद्या या अवेज्ज पर बहुत मीमांसा किये हैं लेकिन वह निषेध अर्थ में है। विद्या का सूत्र यह है - सा विद्या या विमुक्तये, जो मुक्त करे वह विद्या है। जब आप 'विद्वान' होते हैं तो राग या प्रेम आप को बाँधते नहीं हैं, सौन्दर्य भी बाँधता नहीं है लेकिन आनन्द भरपूर होता है।
विद्या को घृणा से भी जोड़ कर देखना होगा। हम सब में घृणा है। जाने अनजाने हमारे व्यवहार घृणा से भी परिचालित होते हैं। घृणा से मुक्ति तो आदर्श स्थिति है लेकिन यदि घृणा की युति विद्या से हो जाय तो दो बातें होती हैं - विश्लेषण और कर्म। विश्लेषण और विवेक आप को अन्ध कूप में गिरने से बचाते हैं। ऐसे में घृणा से प्रेरित आप के कर्म क्रमश: विधेयात्मक होते जाते हैं। आप कारण के उन्मूलन की सोचने लगते हैं न कि कारकों के। यह एक ऐसी मानसिक अवस्था होती है जहाँ आप के प्रहार भी वस्तुनिष्ठ होते हैं। ऐसे में भीतर की घृणा जो कि एक आम जन होने के कारण आप में पैठी हुई है, निषेधात्मक प्रभाव नहीं छोड़ती। तो आज विद्या दिवस पर भीतर की घृणा का विश्लेषण करें, उसे विद्या से युत करें। द्रष्टा बनें।
वायु शीतोष्ण है, अपनी त्वचा पर उसकी सहलान का अनुभव करें। सूर्योदय नये से दिखते हैं, उन्हें अपनी आँखों में स्थान दें। सौन्दर्य के लिये एक असंपृक्त सराह और अनुभूतिमय दृष्टि अपने भीतर विकसित करें। संसार और सुन्दर होगा।
पावका न: सरस्वती वाजेभि: वाजिनीवती यज्ञम् वष्टु धियावसुः
चोदयित्री सूनृतानां चेतन्ती सुमतीनाम् यज्ञम् दधे सरस्वती
महो अर्ण: सरस्वती प्र चेतयति केतुना धियो विश्वा वि राजति। - ऋग्वेद
(देवी सरस्वती जो पवित्र करने वाली हैं, पोषण करने वाली हैं और जो बुद्धि से किए गए कर्म को धन प्रदान करती हैं। हमारे यज्ञ को सफल बनाएँ। जो सच बोलने की प्रेरणा देती हैं और अच्छे लोगों को सुमति प्रदान करने वाली हैं। जो नदी के जल के रूप में प्रवाहित होकर हमें जल प्रदान करती हैं और अच्छे कर्म करने वालों की बुद्धि को प्रखर बनाती हैं। वो देवी सरस्वती हमारे यज्ञ को सफल बनाएँ।)
चोदयित्री सूनृतानां चेतन्ती सुमतीनाम् यज्ञम् दधे सरस्वती
महो अर्ण: सरस्वती प्र चेतयति केतुना धियो विश्वा वि राजति। - ऋग्वेद
(देवी सरस्वती जो पवित्र करने वाली हैं, पोषण करने वाली हैं और जो बुद्धि से किए गए कर्म को धन प्रदान करती हैं। हमारे यज्ञ को सफल बनाएँ। जो सच बोलने की प्रेरणा देती हैं और अच्छे लोगों को सुमति प्रदान करने वाली हैं। जो नदी के जल के रूप में प्रवाहित होकर हमें जल प्रदान करती हैं और अच्छे कर्म करने वालों की बुद्धि को प्रखर बनाती हैं। वो देवी सरस्वती हमारे यज्ञ को सफल बनाएँ।)
अंत में मेरे प्रिय रजनी कांत जी की पंक्तियाँ:
पीर बनकर बस गयी है मौन मन के पोर में
बीतते पतझड़ में डाली से विलग पत्ते सरीखा
चाहता तन बँध के रहना पीत आँचल कोर में
बीतते पतझड़ में डाली से विलग पत्ते सरीखा
चाहता तन बँध के रहना पीत आँचल कोर में
सखि आयो बसंत रितुन को कंत....
जवाब देंहटाएंचित्र, राग, गंध, मोद...सर्वयुक्त प्रविष्टि! तभीं तो मन मयूर होता है। पंचबाणों पर कुछ और बात होगी न...!
हाँ, पंचबाणों में बहुत स्कोप है ... पंचबाणों पर लिखते हुये आप की वृक्ष दोहद शृंखला याद आती रही। आज फेसबुक पर शेयर करूँगा।
हटाएंवसंत का स्वागत करता एक सम्पूर्ण लेख.
जवाब देंहटाएंविद्या का घृणा से जोड़ना और उसका विश्लेषण कर उससे मुक्ति का मार्ग खोजना.
कामदेव के पाँच बाण उनके नाम,अर्थ और चित्र देखकर नया ज्ञान मिला .
सरस्वती माँ के पूजन का अर्थ समझ आया.
अति उत्तम!
आभार.
..........
जवाब देंहटाएं..........
pranam.
आपकी यह प्रविष्टी पढ़कर आह्लादित हुए और सर्वत्र आघात हुआ । इतनी विस्तृत जानकारी पहली बार पढ़ी । बसंत पंचमी की शुभकामनाएँ ।
जवाब देंहटाएंgyan bardhak...aabhar
जवाब देंहटाएंबसन्त पंचमी की हार्दिक शुभ कामनाएँ!बेहतरीन अभिव्यक्ति.सादर नमन ।।
जवाब देंहटाएंसा विद्या या विमुक्तये... सचमुच, आपका ज्ञान सबको मुक्ति का मार्ग दिखा रहा है. कोटि कोटि धन्यवाद!!!
जवाब देंहटाएंअद्भुत वर्णन। ज्योतिषीय कारण तो पता नहीं चले, लेकिन सहज बोध की दृष्टि से इससे अच्छा विश्लेषण नहीं मिल सकता।
जवाब देंहटाएंबढ़िया !
जवाब देंहटाएंअद्भुत।
जवाब देंहटाएंवसंतपंचमी पर लेख अगले वर्ष यदि जीवित रहा।
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