गुरुवार, 11 अप्रैल 2013

नववर्ष

आज नववर्ष का पहला दिन है - विक्रमी संवत 2070 के प्रथम मास चैत्र के शुक्ल पक्ष की पहली तिथि यानि प्रतिपदा। आदि काल से ही सूर्य की आभासी गति और ऋतुओं के सम्बन्ध को मनुष्य जानता समझता चला आया है। भारत के मनीषि प्राकृतिक व्यवस्था को बहुत उदात्त रूप में देखते थे और उसे एक अर्थगहन नाम दिया – ऋत। रीति-रिवाज की 'रीति' भी इसी ऋत से आ रही है।
ऋत व्यवस्था में किसी निश्चित कालावधि को उसमें निश्चित बारम्बारता में होने वाले परिवर्तनों, जलवायु और दैहिक प्रभाव लक्षणादि के आधार पर 'ऋतु' नाम दिया गया। शस्य यानि कृषि का सम्बन्ध भी ऋतु चक्र से है। भारत में छ: ऋतुयें पायी गयीं - वसंत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, शिशिर और हेमंत। इनमें वसंत पहली ऋतु थी।
इस ऋतु में वनस्पतियाँ पुराने वसन यानि पत्तियों रूपी वस्त्र का अंत कर नये धारण करती हैं। समूचे जीव जगत में नये रस का संचार होता है इसलिये इस समय को नवरसा भी कहा गया। घास पात तक फूलों से लद जाते हैं इसलिये वसंत कुसुमाकर भी कहलाता है। वैदिक युग में वसंत से प्रारम्भ हुआ एक वर्ष संवत्सर कहलाता था। अथर्ववेद के तीसरे मंडल की संवत्सर प्रार्थना में नववर्ष प्रारम्भ का बहुत ही  अलंकारिक वर्णन है जिस पर विस्तार से चर्चा फिर कभी।
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उत्तरी गोलार्द्ध की पुरानी सभ्यताओं ने जाना कि वर्ष में जिन दो दिनों में दिन और रात बराबर होते हैं उनमें से एक वसंत ऋतु में पड़ता है। काल के पहेरू पुरोहितों ने नवरस के इस दौर को उत्सवों और अनुष्ठानों का रूप दे दिया। चूँकि इस विषुव दिन का सटीक प्रेक्षण आसान था और फसलों के कटने पर अन्न भी घर में आता था जिससे ढेरों आर्थिक व्यापार भी जुड़े थे, इसलिये जनता ने भी इसे स्वीकार किया और इस दिन से नया वर्ष और उसके आसपास के कालखंड में उससे जुड़े उत्सव प्रारम्भ होने लगे।
वैश्विक प्रसार वाले आज के ईसाई ग्रेगरी सौर कैलेंडर में यह दिन 20 मार्च को पड़ता है।
भारत गणतंत्र के आधिकारिक राष्ट्रीय शक संवत का पहला दिन चैत्र 1 भी वसंत विषुव के अगले दिन से प्रारम्भ होना निश्चित किया गया जब कि पुराने समय में कभी सूर्य मेष राशि में प्रवेश करता था।

ग्राफिक्स आभार: http://www.carnaval.com/precession/
ग्राफिक्स आभार: http://www.carnaval.com/precession/
20/21 मार्च को वसंत विषुव मान कर राष्ट्रीय शक संवत को 22 मार्च के दिन से प्रारम्भ होना तय किया गया हालाँकि पृथ्वी के घूर्णन अक्ष की लगभग 26000 वर्ष लम्बी आवृत्ति वाली एक गति के कारण इस दिन अब सूर्य मीन राशि में होता है। आगे के कुछ सौ वर्षों में यह खिसकन कुम्भ राशि पर  पहुँच जायेगी।
 
ग्राफिक्स आभार: http://www.carnaval.com/precession/
सन् 1582 में हुये ईसाई कैलेंडर संशोधन में  गिनती के 11 दिन कम कर दिये गये। उसके पहले जो नववर्ष 1 अप्रैल को मनाया जाता था, उसे 1 जनवरी से प्रारम्भ किया जाने लगा। कैलेंडर संशोधन के बाद भी जिन लोगों ने 1 जनवरी के बजाय 1 अप्रैल को ही नववर्ष मनाना जारी रखा उन्हें तिरस्कार स्वरूप 'मूर्ख' संज्ञा दी गई और April Fool की परम्परा प्रचलित हुई जिसने बाद में वसंत विषुव पर्व से जुड़े मोद मनाने की पगान विधियों से जुड़ कर एक दिन के उत्सवी नयेपन को जन्म दिया।
ईसाई कैलेंडर पूर्णत: सौर गति पर आधारित है जब कि भारत  का पारम्परिक पंचांग आदि काल से ही सूर्य और चन्द्र दोनों गतियों से निर्धारित होता रहा। दिन में चलते दिखते सूर्य के पथ को रात के आकाश  में 27  तारासमूहों (नक्षत्रों) में बाँट दिया गया। सौर पंचांग वालों ने इसे 12 भागों यानि राशियों में बाँट रखा था। दोनों की संगति बैठाने में 12 महीनों के नाम 27 नक्षत्रों में से उन 12 के आधार पर रखे गये जिन पर कि पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा होता था जैसे चित्रा (spica) पर हो तो चैत्र, विशाखा पर हो तो वैशाख आदि। मास निर्धारण की दो पद्धतियाँ प्रचलन में आईं - अमांत और पूर्णिमांत। अमांत यानि अमावस्या के दिन महीने का अंत, पूर्णिमांत यानि पूर्णिमा के दिन। इनके अनुसार वसंत ऋतु (Spring) का विस्तार आधा फागुन+चैत्र+आधा वैशाख या चैत्र+वैशाख तक होता है। पारम्परिक पंचांग के महीने चन्द्र आधारित होने के कारण इसमें लम्बी कालावधि में वसंत विषुव की राशियों पर खिसकने से जुड़ी नाम निर्धारण वाली समस्या नहीं है। इसमें हर तीसरे वर्ष अधिकमास के संयोजन द्वारा वर्ष के अंतर को भी समायोजित कर लिया जाता है साथ ही यह भी सुनिश्चित रहता है कि किसी भी महीने की पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा उसके नाम से सम्बन्धित नक्षत्र राशि में ही होगा।  
ईसाई कैलेंडर, भारतीय पंचांग, महीने, ऋतुयें और प्रमुख पर्वों का यह इस्कॉन संस्था द्वारा दिया गया ग्राफिक्स संकलन उपयोगी है:  
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वसंत को दिया गया महत्त्व उल्लेखनीय है कि संवत्सर या वर्ष के प्रारम्भ और अंत इसी ऋतु में रखे गये हैं। फाल्गुन का होलिका दहन भोजपुरी क्षेत्र में 'सम्हति फूँकना' कहलाता है। सम्हति संवत का ही बिगड़ा रूप है। यह दहन प्रतीकात्मक रूप से जाते हुये संवत का है जिसमें मन और देह के सारे मैल जला दिये जाते हैं। अगला दिन रंगपर्व नये रंग से अस्तित्त्व रँगने का प्रकृति से जुड़ा विधान है। चन्द्रमा के एक पक्ष यानि चौदह दिनों के अंतराल के पश्चात शुक्ल पक्ष के प्रारम्भ में होने वाला नवरात्र आयोजन आगामी वर्ष के लिये स्वयं को तैयार करने का तप आयोजन है। रबी की फसल का अन्न घर में आ जाता है तो राम जी की कृपा से आये नये अन्न के स्वागत में रामरसोई सजती है रामनवमी के दिन जब कि नये आटे से बने व्यंजन पहली बार खाये जाते हैं। वैदिक युग के नये सत्र आयोजन भी ऐसे ही पुरोहित, कृषक और व्यापारी वर्ग द्वारा संयुक्त रूप से किये जाते थे। दुर्गा पूजा की परम्परा की साम्यता ढूँढ़े तो हम पाते हैं कि स्त्री शक्ति की कल्पना अथर्वण संहिता की संवत्सर प्रार्थना में भी है।
 
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पश्चिम भारत में यह दिन वृहद आयोजन का होता है और इसे गुड़ी/ढी पड़वा कहते हैं। 'पड़वा' संस्कृत के प्रतिपदा का ही प्राकृत 'पड्डवा/वो' से हो कर आया रूप है। प्रकृति के विभिन्न स्वादों को मिश्री, नीम पत्ती, आम्र मंजरी के रूप में इकठ्ठा कर जरी के रंगीन कपड़े में बाँस के सिरे पर बाँध दिया जाता है। उसके ऊपर फूलमाला और चाँदी, ताँबा या पीतल का लोटा उलट कर रख दिये जाते हैं। सौभाग्य आगमन के सूचक इस प्रतीक 'गुढी' को ऊँचाई या खिड़की पर प्रदर्शित किया जाता है। कोंकण क्षेत्र में यह प्रतिपदा यानि पड़वा 'संसर पाडवो' नाम से मनायी जाती है। 'संसर' संवत्सर का अपभ्रंश है।  
 सिन्धी लोग चैत्र माह में शुक्ल पक्ष के पहले चन्द्र दिन को 'चेटि चाँद' नाम से मनाते हैं। कश्मीरी पंडित नवरस का यह उत्सव 'नवरेह' नाम से मनाते हैं।
  दक्षिण में यह पर्व 'उगाडि' या 'युगाडि' नाम से मनाया जाता है जो कि संस्कृत 'युगादि' यानि युग के प्रारम्भ का द्योतक है।
उल्लेखनीय है कि 'युग' शब्द का प्रयोग संवत्सर के लिये भी होता है। यहाँ युग का संकेत वर्ष में छ: छ: महीने के  उन दो अर्धांशों से है जिनमें सूर्य क्रमश: उत्तरायण और दक्षिणायन होते हैं। वैदिक युग में पाँच वर्ष का काल युग कहलाता था।  
कालांतर में ज्योतिष गणना में वृहस्पति और शनि गतियों के संयोग ने संवत्सरों को नाम देने का चलन प्रारम्भ किया। बारह राशियों के चक्र को पूरा करने में वृहस्पति को 12 वर्ष लगते हैं जब कि धीमे यानि शनै: चलने वाले शनैश्चर शनि को 30 वर्ष। इनका लघुत्तम समापवर्त्य (LCM – Lowest Common Multiple) है - 60। हर साठवें वर्ष वृहस्पति और शनि वर्ष की प्रारम्भ राशि मेष पर एक साथ होते हैं, इसलिये 60 संवत्सर नामों का चक्र चलता है। वाराहमिहिर के पहले तक यह चक्र 'विजया' नाम से प्रारम्भ होता था, उनके बाद 'प्रभाव' नाम से प्रारम्भ होने लगा। वर्ष  2070 वि. का नाम है 'पराभव' 

इस वर्ष समस्त अशुभ का पराभव हो। नववर्ष आप के लिये मंगलमय हो। 
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एक पुराना लेख यह भी : नवरसा 
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11 टिप्‍पणियां:

  1. बेहतरीन प्रस्तुति.
    आपको नवसंवत्सर की हार्दिक शुभकामनायेँ!

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  2. आचार्य आपको और आपके आलसी के चिट्ठे के सभी सुधि पाठकों को भारतीय नव वर्ष चेत्र शुक्ल प्रतिपदा विक्रमी संवत २०७० की हार्दिक शुभकामनाएं

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  3. सारगर्भित ... बहुत सारी जानकारी एक ही स्थान पे ... संजो के रखने वाली जानकारी एक ही जगह ...
    नव वर्ष ओर वर्ष प्रतिपदा की बहुत बहुत शुभकामनायें ...

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  4. रोचक व नयी जानकारी, १५८२ के संशोधन का पता नहीं था।

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  5. बहुत ही सुंदर, ज्ञानवर्धक आलेख. नाव वर्ष की शुभ शुभकामनाएं

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  6. प्रस्तुति मोहक,रोचक और ज्ञानवर्धक है.
    नववर्ष संवत २०७० की शुभकामनाएँ.

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  7. भाई गिरिजेश जी ! नमस्कार ! बहुत दिन बाद आपसे रूबरू होने का अवसर मिल सका ! अच्छा लगा ! संग्रहणीय चिट्ठे के लिये साधुवाद !

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