शायरी, गायन, व्यंग्य, निबन्ध, स्त्री मुद्दे, खालिस ब्लॉगरी आदि में निष्णात हैं स्वप्न मंजूषा 'शैल'। कनाडा में रहते हुये भी भारत भूमि से गहराई से जुड़ी हुई हैं। भारतीय महाकाव्यों के स्त्री और अन्य पात्रों पर भी अलग दृष्टि से अवगत कराती हैं। इनके वेब साइट पर भी यह विविधा मिलती है:
रचनात्मक ऊर्जा और साहस इनकी विशेषता हैं; हल्की फुल्की रचनायें गुद्गुदा भी देती हैं:
ऊपर वाले की दया से
हैण्ड टू माउथ तक आये हैं
डालर की तो बात ही छोड़ो
सेन्ट भी दाँत से दबाये हैं
मोर्टगेज और बिल की खातिर
ही तो हम कमाए हैं
अरे बड़े बड़े गधों को हम
अपना बॉस बनाये हैं
इनको सहने की हिम्मत
रात दिन ये ही मनाये हैं
ऐसे ही जीवन बीत जायेगा
येही जीवन हम अपनाए हैं
तो दूर के ढोल सुहावन भैया
दिन रात येही गीत गावे हैं
फोरेन आकर तो भैया हम
बहुत बहुत पछतावे हैं
स्त्री विषयक और अन्य समसामयिक मुद्दों पर भी सीधी साफ टिप्पणियाँ करती हैं। जेब से झाँकते हुये नोट की तरह स्त्री देह में कहती हैं:
स्तन दिखना, कोई बड़ी बात नहीं हैं। बात सिर्फ नियत की है, आप इसे किस नज़रिए से देख रहे हैं। होलीवूड की फिल्में देख लीजिये, कहानी के हिसाब से, ये सब दिखाया ही जाता है, और वो बुरा भी नहीं लगता। अब तो बोलीवूड में भी इफ़रात है ये सब, ये अलग बात है कि कहानी की माँग का कोई लेना देना नहीं होता यहाँ । खुले स्तन, हमलोग तो बचपन से देखते आये हैं। मैं रांची की रहने वाली हूँ, आदिवासियों के बीच ही रही हूँ, बचपन में यही देखा है। आदिवासी महिलाएं ब्लाउज पहनती ही नहीं थीं। घर पर जितनी सब्ज़ी वालियाँ आतीं थीं, ऐसी ही आतीं थीं, खेतों में काम करने वालियाँ, खेतों में काम करतीं रहतीं थीं, नौकरानियाँ बर्तन माँजती रहतीं थी और उनके बच्चे दूध पीते रहते थे। नानी, दादी जितनी भी थीं, सबको देखा है हमने बिना ब्लाउज के भी और बाद में ब्लाउजमय भी ।आज भी बहुत सी ऐसी जनजातियाँ हैं, जो बहुत कम कपडे पहनती हैं। माताओं को स्तन-पान कराते हम सबने देखा है। इसमें इतनी विचित्र बात क्या हो गयी ?? सच पूछिए तो कभी इस बात की ओर ध्यान ही नहीं गया कि कुछ असहज हो रहा है। अगर आप इस विरोध की मंशा को समझेंगे तो कुछ भी बुरा नहीं लगेगा, इतने युगों से शोषित जाति, विद्रोह तो करेंगी ही। जब शोषण करने की ताब रखते हैं लोग तो विद्रोह झेलने का भी माद्दा होना चाहिए। यहाँ विदेशों में बिकनी पहनना बहुत आम है, इसलिए ये मुद्दा इतना भी बड़ा नहीं है जितना आप इसको बना रहे हैं।
अक्सर मैंने देखा है, स्त्री विमर्श के मामले में बात हमेशा मुद्दे से भटक जाती है। हम स्त्री-विमर्श की जगह पुरुष-विमर्श करने लगते हैं। पुरुष भी अब अपना रोना लेकर बैठ जाते हैं। हमारे समाज में नारी की समस्या 'फेमेन' से कहीं बड़ी है। इस समस्या को आप 'फेमेन' के झंडे तले लाकर इसे छोटा बनाने की कोशिश न करें। नारीगत समस्याओं को पुरुषों ने हमेशा ही, कपड़ों और देह के चक्रव्यूह में फँसा कर दिग्भ्रमित करने की कोशिश की है और नारियां भी इसी झांसे में आकर, खुद को बिना मतलब कपड़ों और देह जैसे मुद्दों में उलझा कर, स्त्रीवादी क्रांति की कल्पना करने लगतीं हैं। देह और कपड़ों की बातें करके यह जंग कभी नहीं जीती जा सकती।
जयशंकर 'प्रसाद' की अमर रचना 'अरुण यह मधुमय देश हमारा' का इनका गायन यहाँ सुनिये। ब्लॉग जगत में 'अदा' तखल्लुस और 'हाँ नहीं तो' जुमले से प्रसिद्ध हैं। आजकल 'एकला चलो रे' को अपना ध्वज वाक्य बनाये हुये हैं, कहती हैं:
थोड़ी शाम की अपनी उदासी, दिल भी था थोड़ा उदास
रंगत वाले सारे चेहरे, फिर रंगत क्यूँ उड़ जाती है
अक्सर अजनबियत के गिलाफ़, वो ओढ़ सामने आता है
शातिराने खेल न खेल, 'अदा' पहचान जाती है
व्यंग्य लेखन का ताजापन, नवीनता और सुघड़ता देखनी हो तो जाइये स्वयं को कुमाउँनी चेली कहने वाली मास्टरनी शेफाली पांडे के ब्लॉग कुमाउँनी चेली पर। हरसिंगार नाम से प्रसिद्ध शेफालिका तो मधुर गन्ध वाले सुन्दर पुष्पों की वर्षा से ही जानी जाती है न! इनका होली आह्वान देखिये:
मत सुन महंगाई, मत सुन काली कमाई
मत सुन भ्रष्टाचार, मत सुन व्यभिचार ।
मत कह मेरी मर्जी, मत कह एलर्जी
मत कह शुगर, मत कह ब्लडप्रेशर
मत कह केमिकल, मत कह हर्बल
मत कह बुखार, मत कह अगली बार।
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सखी- सहेली, पास- पड़ोसी या प्रियतम के संग
खेल रंग की जंग, बस तू खेल रंग की जंग।
व्यंग्य और ब्लॉगरी अछूते विषयों पर कलमतोड़ी माँगते हैं। शेफाली कहाँ पीछे रहने वाली हैं। विविध बहाने स्त्री स्पर्श की चाहना पूर्ति वालों की मलामत देखिये:
आप कितना भी अपने कंधे को झटका दें, उनका सर धकेल कर दूसरी तरफ लुड़का दें, कोहनी मार -मार के आपकी कोहनी दुखने लग जाएगी, इन्हें कुछ फर्क नहीं पड़ेगा । ये फिर बैतलवा डाल पर की तर्ज़ पर आपके कंधे पर टिक जाते हैं । '' भाई साहब, ठीक से बैठिये '' के आपके निरंतर जाप करने का इन पर कोई असर नहीं होता । दरअसल ये पूरी तरह होशो - हवास में रहते हैं । बस महिला के कंधे पर ही इन्हें ठीक से नींद आती है । अगर कोई पुरुष इनके बगल में आकर बैठ जाए तो इनकी नींद वैसे ही काफूर हो जाती है जैसे सजा सुनकर संजय दत्त और उसके चाहने वालों की । कभी - कभी नींद के सुरूर में ये इस कदर बेहोश हो जाते हैं कि इन्हें अपने हाथ पैरों के इधर - उधर चले जाने का होश नहीं रहता, ठीक उसी तरह जिस तरह खेनी प्रसाद वर्मा को अपनी जुबां का भरोसा नहीं रहता जो माइक को देखते ही बेकाबू हो जाती है । ये ऐसा जानबूझ कर करते हैं या वाकई नींद में ऐसा हो जाता है इस विषय पर अभी व्यापक शोध की सम्भावना है ।
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आप इनकी दूकान से कुछ भी खरीदें, ये पैसा लेते या देते समय आपके हाथों को अवश्य स्पर्श करते हैं । ये स्पर्श थेरेपी के स्पेशलिस्ट होते हैं । इन्हें भय होता है कि यदि ये आपके हाथ को पकड़ कर पैसे ना लें तो इन पैसों को शायद धरती निगल जाएगी । आपके हाथों को छूकर इन्हें एहसास होता है कि पैसा एकदम सही हाथों में गया है । पुरुषों के साथ इन्हें कोई ख़तरा नहीं होता है । … इधर कुछ समय से भारत में जो मॉल कल्चर आ गया है उससे ये दुकानदार बहुत हताश हो गए हैं । यह भी क्या बात हुई कि कार्ड से पेमेंट कर दिया जाए और हाथों को गर्मी का एहसास ही न हो । इस तरह से दुकानदार और ग्राहक के मध्य सौहार्दपूर्वक सम्बन्ध कैसे स्थापित होंगे ? रीटेल में एफ़. डी. आई के. आने का जो विरोध हो रहा है उसका सबसे बड़ा कारण यही है । लेकिन इसे आउट नहीं किया गया ।
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अगर आप अपना पुराना सूट नाप के लिए देना चाहें तो ये फ़ौरन मना कर देते हैं '' नहीं जी, ये फिटिंग पुरानी है, हम नई नाप लेंगे ।'' …ये महाशय आपके हर अंग की तीन - तीन, चार - चार बार नाप लेता है । आप मन मसोस कर रह जाती हैं । एक हफ्ते बाद दी गयी तारीख पर आप अपने सूट के विषय में पूछने जाती हैं तो यह कहता है '' दीदी, आपकी नाप मिल नहीं रही है, दूकान में सफाई की वजह से खो गयी शायद ''।
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इन्हें बच्चों से बहुत लगाव होता है ख़ास तौर से बच्चियों से । ये आपके घर की बच्चियों पर जब तब प्रेम की वर्षा करते रहते हैं । बच्चियां देखते ही ये अपने को रोक नहीं पाते हैं और लपक कर उन्हें गोद में उठा लेते हैं, चुम्बनों की वर्षा करते हैं, …प्यार करते - करते ये भावातिरेक में यह भूल जाते हैं की इनके हाथ - पैर कहाँ जा रहे हैं । इस समय इनकी हालत साधु - महात्मा सरीखी हो जाती है । वास्तव में ये आध्यात्मिक उच्चता की स्थिति में पहुँच जाते हैं । अब ऐसे इंसान पर घर वाले किस प्रकार संदेह कर सकते हैं?
व्यंग्य लेखन वह जो समसामयिक मुद्दों को उठाये और हँसाये भी लेकिन इतनी तीखी निडर चोट करे कि अपराधी पढ़े तो ग्लानि के मारे डूब मरे और सम्भावित पहले ही कान पकड़ ले! शेफाली की लेखनी इस कसौटी एकदम खरी उतरती है। किसी दिन मूड बना कर इनका पूरा ब्लॉग पढ़ जाइये, निराश नहीं होंना पड़ेगा, उल्टे खाली समय के सदुपयोग भाव से तृप्ति मिलेगी। मन का आकाश और विस्तार पायेगा सो अलग!
एक ब्लॉग लेख में स्वयं को रविजा कहती हैं रश्मि।
रविजा के पहले रखा था, ' रश्मि विधु'. मालती जोशी की कहानी में एक लड़की का नाम 'विधु' था जो बहुत पसंद आया था. और सिर्फ मुझे ही नहीं...वंदना अवस्थी दुबे ने भी वो कहानी पढ़ी थी और इतनी प्रभावित हुई थी कि ज़ेहन में वो नाम छुपा कर रखा और अपनी बिटिया का नाम 'विधु' रखा है.
पर कुछ दिनों बाद मुझे कहीं 'रविजा' शब्द दिखाई दिया और ये मुझे ज्यादा उपयुक्त लगा. रवि + जा = रविजा. यानि सूर्य से निकली हुई . रश्मि का अर्थ तो किरण है ही. यानि सूर्य से निकली हुई किरण.
तो मेरा नाम 'चन्द्र किरण' से 'सूर्य किरण' में बदल गया. जो शायद ज्यादा उपयुक्त है.:)
हाँ, उपयुक्त नाम है इस तेजस्विनी के लिये! समसामयिक विषयों पर खास बौद्धिकता के साथ बहुत ही प्रभावशाली और सलीकेदार ढंग से लिखती हैं रश्मि। रेडियो और चित्रकारी से जुड़ी रश्मि का रचना संसार औपन्यासिक प्रसार भी लिये हुये है जो पाठकों से सीधे जुड़ता है। रश्मि विवाह और ऐसे ही अवसर विषयों पर खालिस ब्लॉगरी की छ्टा भी बिखेरती हैं।
इन्हें कम पढ़ने की अपनी परम्परा का पालन करते हुये मैंने इस बार भी इन्हें कम ही पढ़ा लेकिन यही कहूँगा कि यदि आप ने इन्हें नहीं पढ़ा तो हिन्दी ब्लॉगरी की एक ऊष्म ताज़गी से वंचित रह गये!
कैशोर्य से ही पत्र पत्रिकाओं में छपती रहीं, विवाह के पश्चात बन्द हुआ, ब्लॉगरी से पुन: .... लिखती हैं:
...फिर धीरे-धीरे एक एक कर सारिका ,धर्मयुग,साप्ताहिक हिन्दुस्तान, सब बंद होने लगे. मैं भी घर गृहस्थी में उलझ गयी. मुंबई में यूँ भी हिंदी के अखबार-पत्रिकाएं बड़ी मुश्किल से मिलते हैं....मिलते हैं...ये भी अब जाकर पता चला...वरना ब्लॉग्गिंग से जुड़ने के पहले मुझे पता ही नहीं था .... हिंदी से रिश्ता ख़तम सा हो गया था. अब ब्लॉग जगत की वजह से वर्षों बाद हिंदी पढने ,लिखने का अवसर मिल रहा है. and I am loving it .
मैं पाता हूँ कि बारह वर्षों के बाद पुन: कलम उठाने, सॉरी! की बोर्ड पर शब्द उतारने वाला मैं अकेला नहीं।
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अब तक:
प्रतिभा शिल्प
हीर पुखराज पूजा
शैल शेफाली रश्मि
आगे:
अनु अल्पना
अर्चना आराधना
वाणी रचना
are waah
जवाब देंहटाएंgreat writers these.
जवाब देंहटाएंi have the pleasure of being personally acquainted with two of these wonderful ladies - swapna and rashmi. and they are both truly wonderful human beings. i am glad i came to this blog world just because it gave me a chance to get acquainted with such personas.
तीनो सन्नारियों के अभिन्न अवदान को प्रणाम!!
जवाब देंहटाएंसही लिखा है कि शैफाली पांडे जी का लिखा पढ़कर निराशा नहीं होगी.
जवाब देंहटाएंउनके लेखन में ताज़ापन है जो बाँधे रखता है.कटाक्ष भी 'संतुलित' होते हैं.
बहुत बढ़िया। रश्मि और अदाजी के ब्लॉग से परिचय है। हाँ, शेफाली जी के व्यंग्य पढ़ने का सौभाग्य नहीं मिला अब तक ...
जवाब देंहटाएंआज की ब्लॉग बुलेटिन गुड ईवनिंग लीजिये पेश है आज शाम की ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंतीनों को ही पढ़ा है .... अच्छा लगा यूँ उनका परिचय पाकर
जवाब देंहटाएंइस कड़ी का विशेष इंतज़ार था गिरिजेश जी। अग्रिम पंक्ति की ये ब्लॉगर्स ऐसे ही सक्रिय बनी रहें, यही कामना है।
जवाब देंहटाएंराम नवमी की हार्दिक शुभकामनायें।
पढ़ते रहे हैं इन देवियों को , आपकी कलम से इनकी कलमकारी को जानना माने की चार चाँद लगना .
जवाब देंहटाएंतीनो से परिचय था पर अब पहचान हुई .लेखन में खूब लंबे-लंबे गैप मैने भी झेले हैं.
जवाब देंहटाएंइनके विषय में जान कर पढ़ना और अच्छा लगेगा.
आभार!
तीनों के ब्लॉग पढ़ता हूँ, पर इतनी रोचकता नहीं जग पाती जितनी आपके लेखन में जग गयी।
जवाब देंहटाएं... अच्छा लगा।
जवाब देंहटाएंअदा जी, रश्मी जी और शेफ़ाली जी को पढ़ा तो कभी -कभी लेकिन जाना है ,जैसा आपने लिखा वैसे ही पाया है ....
जवाब देंहटाएंशेफ़ाली से संयोग से लखनऊ में मिलने का सौभाग्य भी मिला ...
achchhaa ji...yahan ham bhee hain.....dhanyvaad
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