... और मनु! तब विधाता ने मिट्टी, पत्थर, पहाड़, बालू बनाये। जो जीवन था, जो खारा था उसे घेर दिया और कहा – तुम हो! तब मैं जन्मी। मैंने किलकारी भरी और जीवन गतिमय प्रवाही गुरुगम्भीर स्थायी हुआ। उसने आश्चर्य से देखा, प्रसन्नता उसकी आँखों से टपकी और पानी हुई। मैं सागर हुई।
मुझे सोख मिट्टी उपजाऊ हुई, पत्थर कठोर विवर हुये, पहाड़ों ने नभ को चुनौती देती ऊँचाइयाँ पकड़ी। इतना शोषण! मैंने उसाँस भरी और अनिल प्रवाह में बालुका उड़ चली, आँधियाँ मचलीं। जीवन सब ओर फैल गया। खारापन जीवन द्रव का गुण हुआ।
इतने के बाद भी मैं अकेली थी। जब रातें होतीं और दूर ऊपर मिट्टी के लोथड़े टिमटिमाते, मैं सिसकती कि जैसे उस बड़े टुकड़े को घेरे कई लघु हैं, ऐसा कुछ मेरे साथ क्यों नहीं? विधाता सो गया था, उसे पता ही नहीं था। एक दिन मैं फूट पड़ी। नमी से नमक निथर जैसे सूखने लगा। मैंने जाना कि दिन में ऊपर जो आँच का गोला है, वह मेरे भीतर भी है और आग ने जन्म लिया। आग वह रसायन थी जिसने मिट्टी, पत्थर, पहाड़, बालू आदि सबमें प्रवेश किया। भीतरी आँवे में पक पक्के हुये, जीवधारी हुये।
मैंने तटबन्ध तोड़े मनु! विधाता को चुनौती दी, शापित हुई कि तुम्हारा अकेलापन कभी नहीं जायेगा। मैं खिलखिला उठी क्यों कि मेरे भीतर जाने कितने ऊष्मपिंड थे, कैसा अकेलापन? तब भी मैं अकेली ही रही। विधि की गढ़न समझ के बाहर थी - अकेलेपन के कई प्रकार थे! मेरी झुँझलाहट बढ़ी और तटबन्धों को तोड़ खौलता पानी हर ओर पर्वतों की ओर बढ़ चला। चढ़ता गया, आग से मुक्त हुआ, शीतल हुआ, कहीं हिम हुआ कहीं जम कर चट्टान हुआ। चेत हुआ तो मैंने पाया कि मेरे कई भाग हो गये थे – मुझसे निकलते कई नद। मैंने भूमि पर भाग्यरेखायें लिख दी थीं! जो लिखा था उसे घटित होना ही था। तुम विशेष हुये और इतने प्रगल्भ हुये कि घटित को लिखने लगे! मैंने जाना कि पौरुष क्या है। मैंने जाना कि मैं क्या हूँ और यह भी कि संसार की गति और हो गई है।
तुमने पहला वाक्य लिखा – नदी सागर में समाती है। तुमने नद को स्त्री लिखा और मुझ सागर को पुरुष! उल्टा लिखा फिर भी मुझे विशेष प्यारे हुये। क्यों? क्यों कि जब तुम मुझमें समाते हो तो मैं पुन: आदिम होती हूँ – वह जीवन जो चहुँओर फैल गया है उसे मैं नहीं पहचान पाती लेकिन तुम्हारे भीतर वही पुराना खारापन पाती हूँ जिसे कभी विधाता ने घेर दिया था। उस समय मैं मुक्त होती हूँ। नहीं मनु! मैं बस होती हूँ और मेरे पार्श्व में तुम होते हो, मैं अकेली नहीं होती। ऐसे क्षणों में ही प्रार्थनायें उमगती हैं और वह भी जिसे प्रेम कहते हैं।
संसार की हर स्त्री सागर शतरूपा है मनु! जब किसी को उसका नद मिल जाता है, उसे पहचान लेती है तो अमर शाश्वत प्रेम कहानियाँ बनती हैं। उनमें विधाता का तिरस्कार होता है और जीवन का सच्चा सोणा खारा लोन भी। लोग उन्हें मीठी बताते हैं। इस पर क्या कहूँ मनु?
यह जीवन जो है न, अद्भुत लड़ाई है - इसमें जीतना हारना होता है और हारना सर्वनाश। सुना है आजकल बहुत अकेले हो। मेरे पास क्यों नहीं चले आते मनु? कर दी न मैंने बहुत ही साधारण सी छोटी सी नासमझी भरी बात! अब उत्तर में तुम भी कोई गल्प न लिखने बैठ जाना।
शतरूपा
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इटारसी में गिरिजेश राव स्वयं को दुहराते हुये!
शतरूपा
जवाब देंहटाएंStrange.. just read the Manu-Shatrupa episode from "Upnishad ki Kahaniya" (Bhagwan Singh) and came across this prose.. Seed of life cant be more mystic than this.. All hues of creation flew across the eyes in one split second..
जवाब देंहटाएंअत्युत्तम!
जवाब देंहटाएंpranam . fir se.
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