सोमवार, 23 सितंबर 2013
अथर्वण संहिता - 1
शुक्रवार, 13 सितंबर 2013
चुपचाप चले
सोमवार, 9 सितंबर 2013
शायर कुहासा गढ़ता है
जब जलते हुये घरों से धुँये उठ रहे होते हैं, जब चीखें अंतर्लय में बेसुरापन भर रही होती हैं तो शायर कुहासा गढ़ता है। वह देखता है कि धुँये उसके चूल्हे की आँच से तो नहीं जुड़ रहे, वह सुनता है कि चीखें उस तरफ से तो नहीं आ रहीं जिस ओर का मसीहा बना बैठा वह वाह वाही और जाम दोनों का लुत्फ उठा रहा है।
निश्चिंत हो लेने के बाद वह अपनी वह कलम उठाता है जिसमें रोशनाई नहीं, मक्कार स्याही भरी होती है। वह खुश होता है, वक़्त को धन्यवाद देता है कि कुछ नया लिखने, प्रयोग करने को धुँये उठे, चीखें निकलीं। नज़्में, गजलें निखर उठती हैं। नगमानिगार वातावरण में कुहासा भरने लगता है।
वह जब भाईचारे की बातें लिखता है - बहुत हो गया, बन्द करो यह! तो उसका ध्येय जुल्मियों को बचाने का होता है, न कि इंसानियत को। उसे फिक्र रहती है कि कल को मुशायरे में उस पर लानतें न उतरें - हमने जब उन कठमगजों पर हमले कर उन्हें चोटें पहुँचाईं तो उनके जवाबी हमले से हमें बचाने के लिये तुमने क्या किया?
वह फिक्रमन्द होता है कि सड़क के उस बायें मोड़ पर जिसके आगे मुर्दा और जिन्दा दोनों तरह के गोश्त का इंतजाम रहता है, ऐसे गड्ढे न खोद दिये जायँ कि वह पहुँच ही न सके।
हमें इंसानियत की बातों पर उज्र नहीं, हमें आपत्ति है उनके मौके और उन हिलती जीभों पर जो तब तिजोरीबन्द जड़ रहती हैं जब मामला उलट होता है और तब भी जब उनके प्यारे काट मार मचा रहे होते हैं।
हमें आपत्ति है उन आँखों पर जो सिर के साथ रेत गड़े सजदे में ढकी होती हैं जब भरी दुपहर सूरज पर ग्रहण लग रहे होते हैं। हमें आपत्ति है उन दिमागों पर जो रस्सी को साँप समझते हैं और साँप को केंचुये की एक नस्ल भर!
वे जो समय से आगे देख नहीं सकते, वे जो समय रहते हर्फ़ों को समझ नहीं सकते, वे जो सब कुछ जानते बूझते हुये भी उल्टे राग गढ़े पढ़े कहे सुने जा रहे हैं, हमें उनसे सच में नफरत है।
हम यह मानते हैं कि ऐसी नफरत उन हजार मुहब्बतों पर भारी है जिनके आलिंगन में सभ्यतायें कराहती मौत माँगती हैं।
हाँ, तुम्हारी परिभाषा में हम प्रगतिशील नहीं क्यों कि हमें घूमते चक्के देख उनकी लीक का अनुमान सटीक हो जाता है।
शायरी से बेहतर है कि इंसान अपने जिस्म को मवाद से भर ले।