आदिकवि महर्षि वाल्मीकि रचित रामायण का यह संस्करण गीताप्रेस, गोरखपुर द्वारा संवत 2017 (सन 1960) में छापा गया। प्रतियाँ थीं 10000। आठ वर्षों के पश्चात 15000 प्रतियाँ छपीं, जब पिताजी उनमें से एक घर ले आए। दो भाग थे - मूल्य दोनों का मात्र बीस रूपए। उस जमाने के हिसाब से सस्ता नहीं कहा जा सकता लेकिन गुणवत्ता के क्या कहने ! गेरुए रंग की कपड़े की मजबूत जिल्द (आज तक नहीं फटी है), त्रुटिहीन, स्वच्छ छपाई और सौन्दर्य का खयाल। प्रति वर्ष 1250 प्रतियाँ बिकीं तो कहीं धार्मिक भावना से अधिक प्रोडक्सन क़्वालिटी का योगदान ही रहा होगा।
श्वेत श्याम और रंगीन चित्र इतने नयनाभिराम थे कि आँखें बरबस ठहर सी जाती थीं/हैं। जैसा कि पिताजी द्वारा पाठन के विराम को ओंकार चर्चित दिनांक से अंकित करने से स्पष्ट है, सन 1971 में भी वह इसे पढ़ रहे थे। हमलोग इसके दो भागों के नयनाभिराम चित्रों को देखते हुए बड़े हुए और अनजाने ही संस्कारित होते चले गए। राम के अनेक रूप, सीता की सहज सुन्दरता, वीर बजरंगी के वज्र शरीर से फूटती ऊर्जा ..... सब सम्मोहित कर देते थे। बड़े होते जब पढ़ने लगा तो समझ बढ़ते बढ़ते बहुत कुछ नोटिस किया जो इस लेख के दूसरे भाग में बताऊँगा - अभी तो चित्रों पर ही केन्द्रित रहूँगा। ये चित्र विशुद्ध भारतीय शैली में विशुद्ध भारतीय सौन्दर्य दृष्टि से पात्रों को दर्शाते हैं - इसीलिए मन को मोहते हैं। मुख्य पात्रों के अलावा बैकग्राउण्ड के विन्यास और अंकन में अनुपात की त्रुटियाँ हो सकती हैं लेकिन सम्प्रेषण की सटीकता इतनी बोल्ड है कि उसके आगे सब कुछ छिप जाता है।
(1) जरा मंत्रणा करते सुग्रीव, वानर समाज और राम लक्ष्मण को देखिए! बैकग्राउण्ड के दो शिखर दोनों भाइयों के कोमल आनुपातिक शरीरों को पौरुष की गरिमा दे रहे हैं। डीटेलिंग न्यून रखते हुए चित्रकार कैसे वानर वीरों के शरीर सौष्ठव को उभार रहा है !! श्वेत श्याम और रंगीन चित्र इतने नयनाभिराम थे कि आँखें बरबस ठहर सी जाती थीं/हैं। जैसा कि पिताजी द्वारा पाठन के विराम को ओंकार चर्चित दिनांक से अंकित करने से स्पष्ट है, सन 1971 में भी वह इसे पढ़ रहे थे। हमलोग इसके दो भागों के नयनाभिराम चित्रों को देखते हुए बड़े हुए और अनजाने ही संस्कारित होते चले गए। राम के अनेक रूप, सीता की सहज सुन्दरता, वीर बजरंगी के वज्र शरीर से फूटती ऊर्जा ..... सब सम्मोहित कर देते थे। बड़े होते जब पढ़ने लगा तो समझ बढ़ते बढ़ते बहुत कुछ नोटिस किया जो इस लेख के दूसरे भाग में बताऊँगा - अभी तो चित्रों पर ही केन्द्रित रहूँगा। ये चित्र विशुद्ध भारतीय शैली में विशुद्ध भारतीय सौन्दर्य दृष्टि से पात्रों को दर्शाते हैं - इसीलिए मन को मोहते हैं। मुख्य पात्रों के अलावा बैकग्राउण्ड के विन्यास और अंकन में अनुपात की त्रुटियाँ हो सकती हैं लेकिन सम्प्रेषण की सटीकता इतनी बोल्ड है कि उसके आगे सब कुछ छिप जाता है।
(2) समुद्र लाँघते हनुमान की विराटता देखिए! समुद्र की लहरों में रेखाओं के घुमाव, चाप और अपूर्णवृत्तवत वक्र रेखाएँ भारत की सनातन कलाकारी को दर्शाती हैं। इस कलाकारी ने एक तरफ तो अनगढ़ ब्राह्मी लिपि को सुन्दर आकार दिए तो दूसरी तरफ खजुराहो की मूर्तियाँ भी दीं।
(3),(4),(5) सीता के सौन्दर्य को निरखिए - मूर्तिमान पवित्रता ! उत्तर भारतीय नारी का गरिमामय सौन्दर्य और सखी सरमा अपने सारे रक्ष सौन्दर्य के साथ कितनी आत्मीय है!!
(6) अशोकवाटिका का विध्वंश करते मारुति का पौरुष, उल्लास और कौतुक निरखिए! पेंड़, भागते राक्षस और मन्दिर सभी कितने लघु हो गए हैं!!
(7) रावण की सभा में राक्षसों का चित्रांकन तो अति उत्तम है लेकिन भव्यता सादगी के आगे पराजित हो गई है। पर्सपेक्टिव का दोष है क्या?
(8) सीता को ढूढ़ कर लौटते वानर समूह, भ्राताद्वय और सुग्रीव का चित्रांकन अद्भुत है। घने छाए बादलों के बीच से प्रकट होता वानर समूह राम, लक्ष्मण और सुग्रीव की मन:स्थिति से एकदम से जुड़ रहा है। पात्रों के चित्रांकन के तो क्या कहने !
(9) समुद्र को शासित करते राम का यह रूप ! सोचता हूँ कि फिर कोई चित्रकार बना पाएगा!! समुद्र की लहरों की उठान श्रीराम के क्रोध से कैसे मिल सी जा रही है और उनके मध्य दीन सा समुद्र। मैं अभिभूत रह जाता हूँ।
(10) राम से मिलने आते विभीषण के इस चित्र में वानर समूह की मुद्राओं का सौन्दर्य कितना स्वाभाविक लगता है !
(11) कुम्भकर्ण को जगाने का यह दृश्य बहुत कमजोर प्रस्तुति है। भैंसे, राक्षस, हाथी वगैरह सब एक ही आकार के ! चित्रकार महोदय चूक गए !
(12) कुम्भकर्ण वध के इस दृश्य में राम और हनुमान के लाघव और गति का चित्रण दर्शनीय है।
(13) संजीवनी लाते हनुमान के इस चित्र में हताशा, आशा और कौतुहल एक साथ दिखते हैं।
(14) गरुड़, राम और लक्ष्मण का सजीव चित्रण !
(15) मेघनाद वध के इस दृश्य में लक्ष्मण और हनुमान की क्षिप्रता और लाघव को निरखिए।
(16) इन्द्र सारथी मातलि और श्रीराम के इस रंगीन चित्र में सब कुछ साधारण है।
(17) हनुमान के कन्धे पर बैठ रावण से युद्ध करते राम के इस चित्र में रावण सारे ऐश्वर्य के बावजूद कितना हास्यास्पद लगता है! राम और हनुमान तो वीरता साक्षात हैं। इस चित्र में भी लैण्डस्केप की न्यूनता और कैनवास का संकुचन इसे साधारण कोटि का बना देता है।
(18) रावण वध के इस दृश्य में बस राम और रावण को देखिए और देखते रह जाइए। कितनी उदारता से चित्रण हुआ है!
(19) विजय के पश्चात विभीषण को वानरों का सत्कार करने का निर्देश देते राम यहाँ चित्रित हुए हैं। यह चित्र मुझे कमजोर लगता है।
(20) लक्ष्मण द्वारा विभीषण के राज्याभिषेक का यह चित्र अवसरोचित गरिमा का वातावरण लिए हुए है। एकबार फिर वैष्णवी सादगी के मोह के कारण कैनवास लघु हो गया है और भव्यता की उपेक्षा हुई है।
(21) ऋषियों द्वारा श्रीराम के अभिनन्दन के इस दृश्य में वैष्णवी गरिमा अपने शिखर पर है।
चित्रों को बड़ा कर देखने के लिए उन पर क्लिक करें। |
सारे चित्र चित्रकार जगन्नाथ ने बनाए हैं। गीताप्रेस द्वारा प्रकाशित वाल्मीकि रामायण की आजकल की प्रतियों में ये चित्र नहीं मिलते। सोचा कि इन्हें भविष्य के लिए सहेज दूँ और आप सब का इनसे परिचय कराता चलूँ। गीताप्रेस, गोरखपुर का इन चित्रों के लिए मैं आभारी हूँ। बिना अनुमति लिए पोस्ट करने की धृष्ठता कर रहा हूँ इसके लिए गीताप्रेस से क्षमाप्रार्थी हूँ। अपनी शुभेच्छा पर भरोसा है। कोई व्यवसायिक उद्देश्य तो है ही नहीं। (दूसरे भाग में जारी)
चलते चलते :22 अक्टूबर 2009 को प्रयोग करते भूलवश यह लेख अधूरा ही प्रकाशित हो गया था। अग्रिम क्षमा की सावधानी के बावजूद यह
पोस्ट तीन बहुत ही महत्त्वपूर्ण ब्लॉगरों की टिप्पणियाँ सहेज लाई।
उसके बाद मैंने टिप्पणी का विकल्प हटा दिया था। चूँकि उस पोस्ट को आज हटा रहा हूँ इसलिए उन टिप्पणियों को यहाँ मान दे रहा हूँ:
हिमांशु । Himanshu ने कहा… प्रयोग आप कर रहे हैं, धैर्य आप रखें । टिप्पणीकार तो टिप्पणी कर ही जायेगा । October 22, 2009 2:10 PM
संगीता पुरी ने कहा… हिमांशु जी ने सही कहा .. धैर्य तो आपको रखना था .. आपने आधा अधूरा प्रकाशित क्यूं किया ? October 22, 2009 2:32 PM
Arvind Mishra ने कहा… अधूराकाम अनुचित है -हमारे धैर्य की परीक्षा मत लें ! October 22, 2009 2:42 PM
अहा ! आज यह सत्कर्म पूरा हुआ ! नयनाभिराम और आपकी कमेंट्री तो चिन्तनाभिराम ! चित्रों की भी एक मिथकीय विराटता स्पष्टतः रूपाकार हुयी है !
जवाब देंहटाएंआज आप तो खुद पूर्णकाम हुए और हमें भी पूर्णकाम कर दिया !
आभार ......!!
जवाब देंहटाएंआपके इस प्रयास की जितनी भी सराहना की जाए कम है। आपके रचनाकार मन में देश की सांस्कृतिक धरोहर को संरक्षित रखने की एक ईमानदार ललक प्रतीत होती है। साथ ही आपकी कलात्मक जागरूकता भी स्पष्ट है। इस निबंध का ऐतिहासिक महत्त्व ही नहीं, बल्कि स्थायी महत्त्व भी है। आपको साधुवाद।
जवाब देंहटाएंचित्रकार को नमन । गीताप्रेस का अवदान निरख रहा हूँ । मुग्ध हूँ ।
जवाब देंहटाएंप्रविष्टि का आभार ।
वाह जी वाह!
जवाब देंहटाएंचिंता ना करें गवाही हम देंगे कि कोई व्यावसायिक उद्देश्य नहीं है!!!!
अच्छा प्रयास!!
जय श्री राम!!!
बाकि
आप यह लिंक भी देख लें
*http://ramcharitmanas.blogspot.com/
*http://ramayan.wordpress.com/
*http://ramayan.wordpress.com/download/
आपकी बात ही निराली....मेरे पास भी एक रामचरित मानस है और वो मुझे पुरस्कार मिला था 'ठुमकी चलत रामचन्द्र बाजत पैंजनियां' गाने के लिए जब मैं कक्षा ४ में थी.......उसमें सारे चित्र आइसे ही नयनाभिराम, मनोहारी हैं......बहुत ही उत्कृष्ट प्रयास आपका....हृदयंगम रचना...आभार...
जवाब देंहटाएंइन चित्रों को नेट पर लाकर आपने अत्यन्त सराहनीय कार्य किया है!
जवाब देंहटाएंइस पोस्ट को देख कर आज अपने पिता का वह चित्र याद आया जिसमे वे 40 से भी अधिक वर्षों तक प्रतिदिन शाम को रामचरित मानस का पाठ करते रहे । इन चित्रों को देखते हुए हम लोग भी बड़े हुए हैं ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर। गीताप्रेस की कृतियों के ये चित्र कथा-कृति का मूल भाव समझने में सामान्यजन के लिए सहायक होते थे। दर्जनों किताबें याद आ रही हैं, जो देखीं। साक्षरता, संस्कारशीलता जैसे बिंदुओं पर गीताप्रेस का योगदान अगर ईमानदारी से किया जाए तो भारत जैसे देश में यूनिसेफ़ जैसी संस्थाएं पीछे नज़र आएंगी।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर पोस्ट। बचपन और जवानी का बहुत भाग इन चित्रों के संसर्ग में बीता है। वाल्मीकि और तुलसीकृत रामायण में साम्य और अन्तर देखने के भी प्रयास बहुधा किये हैं। वह सब याद हो आया यह पोस्ट देख कर।
जवाब देंहटाएंजियो प्यारे!
कल्याण पत्रिका जो गीता प्रेस से ही निकलती रही,का वार्षिकांक भी ऐसे चित्रों को समाहित किये रहता था.चित्रकार भी संभवतः जगन्नाथ ही रहे होंगे.घर में मानस का गुटका संस्करण ज़रूर था पर रामायण नहीं दिखी.
जवाब देंहटाएंये सारे चित्र हमारे रोज़मर्रा के देखे नैन-नक्श से मिलते हैं इसलिए रिलेट करने में वक्त नहीं लगा पर इनकी ऐसी विलक्षण टीका पहली बार पढ़ रहा हूँ.
अधिकाँश चित्रों में सादगी ध्यान खींचती है.चित्रकार ने जैसे रामकथा को आत्मसात कर अपनी कल्पना की उड़ान को छोर दे दिए हों.और आपने उसकी इस उड़ान को जैसे ट्रेक कर लिया हो.
अलग हट के कहना चाहता हूँ,बुल्के साहब ने जैसे कहा,थाई से लेकर संथाली और जाने किन किन बोलियों भाषाओं में २०० से ज्यादा रामकथाएं हैं,अपनी अपनी अयोध्याएं और लंकाएं हैं ऐसे में टीवी चैनलों का 'मिल गयी अशोक वाटिका' जैसी चमत्कारिक घोषणा हास्यास्पद लगती है.
ये प्रस्तुति अपनी परम्पराओं को संदूक से बाहर निकाल कर उसे 'मोहक-अतीत' के बजाय 'अतीत-मोह' से सेलिब्रेट करती है.
! यह पुस्तक तो हिन्दू घरों की अनिवार्य शोभा है। मेरे घर पूजास्थान पर रामचरितमानस के अनेक छोटे बड़े संस्करण रोज अगरबत्ती से नवाजे जाते हैं। बाल्मीकि रामायण का एक बड़ा और पुराना संस्करण भी है। लेकिन कभी पलटकर यह नहीं देख पाया कि इनमें इतने सुन्दर चित्र भी हैं। गीताप्रेस की अमूल्य पुस्तकों विशेषतः मानस में तो ऐसे चित्र होते ही हैं। आपने यह संकलन प्रस्तुत करके अपने संस्कृति प्रेम को स्पष्ट परिलक्षित कर दिया।
जवाब देंहटाएंकोटिशः बधाई और धन्यवाद।
चित्रों पर आपकी टिप्पणियां आपके कविमन की अनुकूलित संवेदनाओं का बेहतर प्रदर्शन कर रही हैं। संजय व्यास इन्हें मोहक-अतीत तथा अतीत-मोह में नाहक उलझा गये हैं।
जवाब देंहटाएंउलझन में हूं, परंपरा से निषिद्ध स्थानों में घुस जाने वाले मास्टर जी की परंपरा-गंगा, पीछे छूटी गंगोत्री की कल्पनाओं में मनोविलास क्यों करने लगती है।
मुआफ़ी के साथ शुक्रिया।
इसमें से कुछ चित्र तो मुझे लगता है अभी भी गीताप्रेस की पुस्तक में होते हैं. कुछ तो देखे हुए हैं ही. गीताप्रेस के पुस्तकों की गुणवत्ता तो होती थी (है!). पांच रुपये की गीता की पुस्तक ८ साल पहले की है मेरे पास अभी भी नयी लगती है. घर पर एक विजयानंद त्रिपाठी रचित बालकाण्ड की टीका है मोतीलाल बनारसीदास द्वारा प्रकाशित लेकिन उसमें चित्र गीताप्रेस का है... ये मामला समझ में नहीं आया. बहुत कोशिश की लेकिन बाकी कांडों की टीका भी नहीं मिली. खैर वो फिर कभी. धार्मिक किताबों को उलटकर तस्वीरें ढूंढ़कर देखना तो आदत है बचपन से ही !
जवाब देंहटाएंगिरिजेस जी ,
जवाब देंहटाएंआपने अतीत में पहुंचा विभोर कर दिया .एक 'संस्कारित ' और धार्मिक परिवार का सदस्य था और वहां .कल्याण सहित गीता प्रेस की सभी पुस्तकें आती थीं .( बल्कि वही आती थीं ) मैंने इन चित्रों का आनंद उठाया है .डूब कर .उन दिनों संस्कृत की शाश्त्री परीक्सा के लिए भी प्रयास कर रहा था तो कुछ कुछ समझ भी लेता था .(सन्दर्भ तो , रामचरित मानस के नित्य पाठ घर में होने से भी , काम आसान कर दिया था ) .आज भी पहले संस्करण की प्रति मुंबई के पुराने घर में संगृहीत है.
आपका बहुत ही आभार .जो लोग उसे नहीं देख पाए थे ,उनके लिए तो धरोहर ही साबित होगी आपकी पोस्ट .
आपकी यही खूबी है...दर्शक-पाठक की यही महानता होती है...
जवाब देंहटाएंसाधारण से चित्रांकनों को आपके सौन्दर्यबोध ने कितना अतिश्योक्त कर दिया है...
असल खूबी शायद इनके पुराना होना या हमारे बचपन के माधुर्य से निकल कर आना है...
कई बार लिखने में कुछ गैप रह जाते है..
जवाब देंहटाएंमैं कह रहा था कि यहाँ नोस्टाल्जिया वाला भाव है न कि आकाश-कुसुम की तरह अलभ्य मोहक अतीत को ढूँढने का भाव.रवि कुमार जी ने मेरी ही बात कह दी है.
अति सुंदर. गीता प्रेस के चित्रों के एक विशिष्टता यह है कि ये चरित्रों के चरित्र को ध्यान रखकर बनाये गये, जबकि अन्य कई स्थानों पर भगवान को एक सजा धजा नर्तक जैसा दिखा दिया जाता है.
जवाब देंहटाएंरामायण के संदर्भ से याद आया कि हमारे बाबा इस रामायण का पाठ करते थे जिसे पिताजी ने उन्हें अयोध्या से खरीदकर हनुमान गढी के मंदिर पर चढा कर प्रसाद स्वरूप लेकर भेंट किया था.
हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता ....
जवाब देंहटाएंगीता प्रेस की प्रस्तुति और आपके प्रयत्न से यह चित्र देखने को मिले, अपना तो जीवन सफल हो गया. यह गीता प्रेस ही है जिसके प्रयत्नों से आम भारतीय आज के बाजारवाद में भी अपनी संस्कृति और पूर्वजों के गौरव से वापस जुड़ पाता है.
जवाब देंहटाएंगीताप्रेस के बारे में अजित जी के निम्न कथन से सहमत हूँ:
साक्षरता, संस्कारशीलता जैसे बिंदुओं पर गीताप्रेस का योगदान अगर ईमानदारी से किया जाए तो भारत जैसे देश में यूनिसेफ़ जैसी संस्थाएं पीछे नज़र आएंगी।
आभार!
सराहनीय अत्यन्त सराहनीय प्रयास है ..... LAJAWAAB CHITR HAIN ..
जवाब देंहटाएंसराहनीय कार्य --आभार कहा जाये क्या घर में भी...चलिए, कहे देते हैं ताकि बहरिया चिन्तित न हों. :)
जवाब देंहटाएंwaah...!!
जवाब देंहटाएंsaraahneey ,
mn.neey ,
aur
anukaraneey....
abhivaadan svikaareiN .
गिरिजेश जी,
जवाब देंहटाएंआपके लेख विद्वतापूर्ण और सारगर्भित होते हैं जिनके लिए आपको बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएं। आपके माध्यम से गीताप्रेस द्वारा लगभग 50 वर्ष पूर्व किए गए उत्कृष्ट कार्य के बारे में जानने का पुन: मौका मिला इसके लिए आपको आभार।
Wah! Bahut achha laga Geetapresh ki chhabi dekhate hi banti hai. Itna achha kuch milta hai blog par jaankar bahut khushi hoti hai ..
जवाब देंहटाएंsundar prastuti ke liye aabhar.
हमने रामायण तो नहीं पढी पर गीता प्रेस की पत्रिका कल्याण पढी है. उसमें भी इतने ही सुंदर चित्र और भाव होते हैं वहाँ भी.
जवाब देंहटाएंsandar prayas ..
जवाब देंहटाएंsandar prayas.....
जवाब देंहटाएंआभार आपका । प्रणाम । आप बहुत शुभ कार्य कर रहे हैं।
जवाब देंहटाएं