स्त्री!
गुफाओं से निकल
आखेट को तज
उस दिन जब पहली बार
लाठी को हल बना मैने जमीन जोती थी
और तुमने अपने रोमिल आँचल में सहेजे बीज
बिछाये थे गिन गिन सीताओं में
प्रकृति का उलट पाठ था वह
उस दिन तुम्हारी आँखों में विद्रोह पढ़ा था मैंने
आज भी सहम सहम जाता हूँ।
थी चाँदनी उस रात
थके थे हम दोनों खुले नभ की छाँव
भुनते अन्न, कन्द, मूल, गन्ध बीच
तुमने यूँ ही रखा प्रणय प्रस्ताव
और
मैं डरा पहली बार।
अचरज नहीं कि पहला छ्न्द गढ़ा
भोली चाहतों को वर्जनाओं में मढ़ा
की मर्यादा और सम्बन्धों की बातें पहली बार
और पहली बार खिलखिलाहट सुनी
मानुषी खिल खिल
तारे छिपे और गहरे
तारे छिपे और गहरे
आग बुझी अचानक।
असमंजस में मैं
देवताओं को तोड़ लाया नभ से भूमि पर
दिव्य बातें - ऋत की, सच की
और तुम बस खिलखिलाती रही
कहा देवों ने - माँ को नमन करो!
तुमने देखा सतिरस्कार
बन्द यह वमन करो
सृजन करो!
स्त्री!
मैंने तुम्हारी बात मानी
सृजन के नियम बनाये
(पहले होता ही न था जैसे!)
संहितायें गढ़ीं
चन्द्रकलाओं में नियम ढूँढ़े
गर्भ को पवित्र और अपवित्र दो प्रकार दिये
और सबसे बाद प्रकट हुआ विराट ईश्वर परुष
और सबसे बाद प्रकट हुआ विराट ईश्वर परुष
प्रकृति की छाती पर सवार
दार्शनिक उत्तेजना में
और
तुम्हारी आँखों में दिखी सहम पहली बार।
तुम्हारी आँखों में दिखी सहम पहली बार।
ज्यों माँ की बात न मान बच्चे ने
उजाड़ दिया हो किसी चिड़िया का घोसला
फोड़ दिया हो अंडा पहली बार -
तुमने आह भरी
मैं शापित हुआ पहली बार
प्रलय तक स्वयं को छलने के लिये।
शब्द छल
वाक्य छल
व्याकरण छल...
मैं गढ़ता गया छल छल छल
तुम रोती गयी छल छल छल
आज भी नहीं भूला हूँ मैं अपना
पहला अट्टहास - बल बल बल
देहि मे बलं माता!
आज भी मैं पढ़ने के प्रयास में हूँ
तुम्हारी आँखों की वह ऋचा
उतरी थी जो बल की माँग पर
मेरी दृष्टि टँगी है तीसरी आँख पर।
दो सीधी सादी आँखों की बातों को
मैं आज भी नहीं बाँच पाता हूँ।
आश्चर्य नहीं कि हर दोष का बीज
तुममें ही पाता हूँ।
तुममें ही पाता हूँ।
स्त्री!
मैं पुरुष, इस विश्व का विधाता हूँ।
- गिरिजेश राव
वाह !
जवाब देंहटाएंसहजीवन के कितने युग हैं साथ बिताये,
जवाब देंहटाएंसबको लगता, एक दूजे को समझ न पाये,
शब्द वही हैं लिखे, किन्तु है भिन्न धारणा,
उनको छल के भाव, हमें मधुमय छलकाये।
उत्कृष्ट ....मन को ऊर्जा देते भाव.....
जवाब देंहटाएंउत्कृष्ट..
जवाब देंहटाएंअद्भुत!! एक बार फिर मेरे अन्दर के वाचक को उकसाया है आपने!!
जवाब देंहटाएं(एक कर्ज़ पहले सिर पे लिये घूम रहा हूँ!!)
मैं गढ़ता गया छल छल छल
जवाब देंहटाएंतुम रोती गयी छल छल छल
आज भी नहीं भूला हूँ मैं अपना
पहला अट्टहास - बल बल बल
देहि मे बलं माता!
अद्भुत है।
सदियों से यही छलना आज भी सहज कर्म सा चल रहा है !
जवाब देंहटाएंसोच रही हूँ काश कि यह सिर्फ रचना न होकर हर पुरुष के लिए आत्मचिंतन होता !
सुन्दर
जवाब देंहटाएंगज़ब! सार्थक भया ब्लॉग खंगालना!
जवाब देंहटाएंकहां है कलम तुम्हारी गिरिजेश!
चूम लिया जाये!
कड़वा सुन्दर !
जवाब देंहटाएंकड़वा सुन्दर!
जवाब देंहटाएंअर्धसत्य । सारा दोष पुरुष का तो नहीं न? रोल विभाजन में स्त्री भी हिस्सेदार थी जब हुआ । बाद आने वाली पीढ़ियों की स्त्रियों को निर्दोष भी मानें तो भी आरम्भ में तो दोनों का मिला जुला निर्णय था । किसी आवश्यकता या प्रायोरिटी के लिए जब हम आसान राह लेते हैं तो दौड़ में पीछे हो ही जाते हैं । फिर वह प्रायोरिटी चाहे बालकों की देखभाल ही हो । यही तब हुआ होगा ।
जवाब देंहटाएंअदभुत गिरिजेश। तुम्हारी लेखनी के आगे अपने शब्द बेमानी लगते है।
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