इस वर्ष ग्रीष्म अयनांत 21 जून रविवार के दिन जब कि भुवन भाष्कर उत्तरी गोलार्द्ध में अपने सर्वोच्च स्तर पर प्रखरतम स्थिति में होंगे, अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस मनाने का शुभारंभ होगा। इस दिन शुक्ल पक्ष की पंचमी होगी।
इसके आधिकारिक चिह्न का वर्णन ऐसा बताया गया है:
जुड़े हाथ वैयक्तिक चेतना का वैश्विक चेतना से योग, शरीर और मस्तिष्क एवं मनुष्य और प्रकृति में आदर्श संतुलन और स्वास्थ्य और नैरोग्य के प्रति समेकित सम्पूर्ण पद्धति के प्रतीक हैं। भूरी पत्तियाँ पृथ्वी, हरी पत्तियाँ प्रकृति, नीला रंग जल तत्त्व, कांति अग्नि तत्त्व और सूर्य ऊर्जा एवं प्रेरणा को अभिव्यक्त करते हैं। यह चिह्न मानवता के बीच सामंजस्य और शांति को दर्शाता है जो कि योग का सत्त्व है।
प्रतीकों के साथ एक समस्या रही है। आधुनिक समय में जब हम प्राचीन पद्धति से जुड़ा कोई आयोजन करते हैं तो अवचेतन में युगों युगों से अनवरत प्रवाही संस्कार और सूचनायें सामने आ जाते हैं। समानतायें अपना अवगुंठन हटा देती हैं।
कभी अरब पठार से ले कर भारत तक इस धरती पर मिलते जुलते संस्कारों वाली सभ्यतायें जीवित थीं। इन सभ्यताओं में मातृपूजा का भी प्रचलन था। तीन देवियों के रूप में यदि मिस्र में मुत, वाड्जेट और बस्त थीं तो एशियाई अरब में उज़्ज़, अल-मनात और अल-लात। भारतीय सारस्वत सभ्यता की तीन देवियाँ थीं इळा, भारती और सरस्वती जिन्हें ऋग्वैदिक आप्री मंत्रों में सभी ऋषि कुलों ने पुकारा और सम्मान दिया।
वाड्जेट निचले मिस्र की भूमि से जुड़ी देवी थीं जिनकी संगति भारती और अरबी उज़्ज़ से लगाई जा सकती है। भूमि को धारण करने वाले भारतीय शेषनाग की तरह ये भी सर्पों से जुड़ी उन के द्वारा भी अभिव्यक्त होती थीं। इस देवी से जुड़े आयोजनों में महत्त्वपूर्ण था ग्रीष्म अयनांत 21 जून का आयोजन जब कि पृथ्वी पर रक्षक दृष्टि रखने वाले रा देवता सूर्य अपने चरम पर होते। सूर्य के पुत्र देवता होरस की आँख का प्रतीक वाड्जेट से जुड़ा था, माँ की आँख सब पर दया दृष्टि रखती थी। साथ ही उनके लिये चन्द्रमास की पाँचवी तिथि का पाँचवा घंटा आरक्षित था। नहीं पता कि योग दिवस के कर्ता धर्ता इन तथ्यों से अवगत हैं या नहीं। कुछ भी हो संयोग बड़बोले हैं! आधिकारिक चिह्न और होरस की आँख में समानता देखिये। कथित पुराने संसार का दीर्घवृत्तीय मानचित्र योगाभ्यास करते मनुष्य के दीर्घवृत्तीय लम्बवत सिर और हाथों के घेरे से जुड़ होरस की आँख सा हो जाता है!
यह ध्यान रखना होगा कि आज का मिस्र कथित अंतिम मजहब का अनुयायी है और यह भी कि मजहब से पहले के समय का संग-ए-मूसा काला पत्थर आज भी पूजनीय है। उस पत्थर के वर्तमान रूप की होरस की आँख से समानता उल्लेखनीय है।
जिस तरह से मिस्र के लिये दिन से जुड़ी देवी वाड्जेट महत्त्वपूर्ण थी वैसे ही एशियाई अरबों के लिये रात में सबसे चमकीले शुक्र की रूप देवी उज़्ज़। उनके अनुयायी नेबाती जन हर वर्ष एक बार काबा की तीर्थयात्रा करते जहाँ यह पत्थर स्थापित था। वहाँ श्वेत, रक्त और अन्य रंगों के पत्थर भी स्थापित थे जिनका सम्बन्ध अन्य देव देवियों से था और उनमें देवी उज़्ज़ का पत्थर अत्-ताइफ भी था। आठवीं हिज़री में स्वघोषित अंतिम दूत ने खालिद इब्न अल-वालिद को भेज कर देवी उज़्ज़ मन्दिर नष्ट करवा दिया। काबा की 360 देव प्रतिमाओं में से एक संग-ए-मूसा को छोड़ सभी नष्ट कर दिये गये। उस एक पत्थर को छोड़ देने के पीछे व्यवसायिक, धार्मिक और राजनैतिक कारण भी थे।
कथित अंतिम मजहब ने स्वयं द्वारा पारिभाषित कुछ एक को छोड़ कर किसी अन्य के लिये किसी भी तरह के सम्मान या पूजा भाव का निषेध किया है। मूर्तिपूजा और प्रतीकों के प्रति उनकी भयावह हिंसायुक्त घृणा सबको पता है। अब यदि कोई चिह्न अनजाने ही सही उन मूलों से जुड़ता हो जो कि उन्हें अपने हिंस्र, विनाशी और नैषधिक परिपाटियों से युक्त इतिहास की स्मृति दिलाते हों तो विश्व के इस सबसे कट्टर और जड़ मत के अनुयायियों के लिये उसे या उससे जुड़े किसी आयोजन को स्वीकारना लगभग असम्भव ही होगा। यदि कुछ स्वीकार कर रहे हैं और समय के स्वस्थ प्रवाह के साथ चलने को तैयार हैं तो उनका समुचित स्वागत होना चाहिये साथ ही जड़मतियों के लिये सहानुभूति और प्रार्थना भी – तमसो मा ज्योतिर्गमय।
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चित्राभार: http://www.cgiguangzhou.gov.in/ और https://en.wikipedia.org