मंगलवार, 20 अक्टूबर 2015

बाऊ और नेबुआ के झाँखी - 31

पिछले भाग से आगे...

गोंइठे की आग हाथ में लिये फेंकरनी धिया माई घिघियाती रहीं। सतऊ मतऊ उन्हें धिराते रहे। जब झपकी आये देवी सी दिखे – अंग, भंग, झोंटे से कस कर बाँधे हुये, समूची देह पर एक बस्तर नाहीं, बस झोंटा। करिया झोंटा बस्तर। मुँह से पुकार सी निकलती – माई माई और भवानी के रूदन में बदल जाती – केहाँ, केहाँ।

कांड की रात रमैनी काकी सो नहीं पाईं। बरमबेला में खटिया पर लेटे लेटे ही खदेरन को सराप रही थी – दहिजरा चमइन चाटे के सब कांड करवलस। सराप के फरुवाही बना देहलसि! तभी गोड़ पर मस ने काटा, काकी ने खींचा तो झूलती खटिया के ओनचन में फँस गया। जम के फाँस! काकी हड़बड़ा कर उठी। बझा गोड़ निकालने के चक्कर में भुँइया आ पड़ी।

कवन मुवाई रे हमके? भीतर भभुका सा उठा, मन बहका तो फेंकरनी, ओक रमाई, सतऊ, मतऊ, महोधिया, नगिनिया – चमइन अस्थान से जुड़े सारे मरे हुओं पर करुणा उमड़ पड़ी। काकी अहक अहक रोने लगी। जाने कितनी देर पड़ी रही। पहिली किरिन देह पर पड़ी तो बोध हुआ। आँखें पोछ खड़ी हुई तो पता चला कि पूरी रात उत्तर सिर्हान किये सोई थी। काकी के मुँह से सीताराम के बजाय निकला – डाढ़ा लागो! दोहाई हलुमान जी, दोहाई!

चूल्ह के लिये आगी लेने के बहाने पूरे गाँव का एक चक्कर काकी लगा आई। लौटी तो अपने पीछे जाने कितनी सनपाती मेहरियों में डर सँजो आई। जिन जिन ने नेबुआ अस्थान पर कभी कोई टोटका किया था उनके लिये सार्वजनिक नुस्खा छोड़ आई – कब्बो ओ पड़े न जइह सो, अगर जहई के परे त देबी के अच्छत सेनुर अगिला सुक्क के चढ़ा के माफी माँगि लीह सो! ओइजा भवानी के देंहि कटल बा। पुरान जमाना रहित त सकितपीढ हो जाइत। जहाँ से भी घूमी – कहाँ गइले रे नगिनिया?  गोहराना नहीं भूली।

 

नगिनिया आ कि सनकल सोहिता क भउजी कहाँ गई? इसरभर संघे उढ़र गई? विचित्र स्थिति थी। स्मृति में एक ओर क्षत विक्षत नवजात देह का भयानक दृश्य था तो दूसरी ओर कुलटा युवा स्त्री का सेवक के साथ पलायन। लोग अंड बंड कुछ भी सोचें, जुग्गुल और उसके खवासी लहकायें लेकिन घटना की भयानकता इतनी प्रबल थी कि मनोविलास, घृणा, क्रोध, जुगुप्सा सब करुणा में सिमट जाते और अंत में बस बच जाती – सहम। सोहित की पगलई दिनों दिन चुप्प होती गयी। जब भी अवसर मिलता कपड़े पहने ही नहा लेता – दिन में कई बार। जप चलता रहता – हमार भउजी, हमार भवानी!

 

 खदेरन के पिछले बारह दिन बारह वर्ष जैसे बीते थे। बेदमुनि और सुनयना, इन दो बच्चों के आपसी प्रेम ने मन को सँभाला था तो बेदमुनि द्वारा अनजाने ही तांत्रिक यंत्र रचना और पेंड़ के एकमात्र शिवली फूल द्वारा उसकी प्रतिष्ठा ने मन को जाने कितनी आशंकाओं की और मोड़ भी दिया था। भविष्य में क्या है? जानने के लिये कुंडली बाँचने का साहस तक नहीं हुआ!

उस दिन यंत्रवत प्रात: संध्या करते उनके सामने जैसे सुभगा बैठी थी। हवनकुंड नहीं, अघोर यंत्र था। आहुति नहीं पाँखियों की रक्तहीन बलि ... खदेरन सिहर उठे थे। स्वयं को केन्द्रित कर जैसे तैसे संध्या समाप्त किये। उसके बाद खुरपी ले कोला में ऐसे ही चिखुरते रहे – मोथा, दूब, डभिला। तन रमे तो मन रमे!

 

  पसीने से जनेऊ भीगा और पीठ पर खुजली होने लगी। झटक कर उठे और जाने कितने समय से भरा धिक्कार सवार हो गया – थाने जाने वाले थे न? और कितना समय चाहिये? भयभीत हो? साधक हो? निर्णय और संकल्प किस दिशा के यात्री हैं?

krishna_yantra प्रश्नों के गुंजलक केन्द्रित हुये और आँखों के आगे उजास ही उजास छा गया। वह यंत्र तो कृष्ण यंत्र भी है, बेदमुनि तो अक्षर भी लिख रहा था – कृष्णाय गोविन्दाय क्लीं ... गोपीजनवल्लभाय स्वाहा... नम: कामदेवाय ल ज्वल प्रज्जवल स्वाहा... कौन कन्हैया यहाँ आने वाला है खदेरन? दुविधा से मुक्त हो चलो, चलो खदेरन! कान्हा की लीला होनी भी होगी तो अभी बिलम्ब है।

घर के भीतर घुस खदेरन ने स्वयं ही निकाल गुड़ की ढेली के साथ पानी पिया, लाठी उठाये और निकल पड़े। मतवा की टोकार कंठ में ही अटकी रह गयी!

गाँव के सिवान पर जुग्गुल ने टोका – कवने ओर हो पंडित? खदेरन ठिठके, दोनों की आँखें मिलीं और खदेरन ने जो देखा वह जुग्गुल के पीछे था – सामने से इसरभर आ रहा था। हाथ की लाठी छूट गयी। (जारी)                             

रविवार, 11 अक्टूबर 2015

सनातन मांस

रामायण, वैदिक छान्दस, ब्राह्मण और उपनिषदों की भाषा पाणिनि के व्याकरण से कई स्तरों पर मुक्त है। 1500 ई.पू. में सृजन या प्राक् आर्यभाषा जैसे ऐतिहासिक हास्य प्रकरण छोड़ देने पर और ध्यान से पढ़ने पर किसी भी खुली बुद्धि वाले को यह लग जाता है वेदों की भाषा बहुत पुरानी है, इतनी कि उसके कई शब्द, धातु, प्रयोगादि वर्तमान में रूढ़ प्रयोगों से पूर्णत: भिन्न हैं - सन्दर्भ में भी और अर्थ में भी।

कल देर रात एक मित्र से वार्ता हुई और उसके पश्चात मैं काण्व शाखा के शतपथ ब्राह्मण को पढ़ता रहा। चेतना का जो स्तर वहाँ है, उसे हम क्यों नहीं देख पाते या क्यों उपेक्षित कर निरर्थक ही बहस करते रहते हैं? आँखें भर आईं। वास्तविकता यह है कि जिसे केवल ब्राह्मणों का प्रपंच मान प्रचारित किया जा रहा है, वह पूरी मानव सभ्यता की गौरवपूर्ण थाती है। स्वतंत्रता के पश्चात अब जब कि सब कुछ सब को उपलब्ध है, अध्ययन से हम आम जन क्यों कतराते हैं? पहले भी करता रहा हूँ, आज भी शेयर करता हूँ। इसमें मेरा कुछ भी नहीं, संस्कृत के विद्वानों का बताया हुआ है।

'मांस' नपुसंक लिंगी शब्द है। प्रथमा से पंचमी विभक्ति तक इसका अर्थ किसी भी फल या कन्द का गूदा होता है। वाल्मीकि के रामायण को पढ़िये तो विचित्र प्रयोग सामने आते हैं - गजकन्द, अश्वकन्द आदि। उनके गूदे के लिये मांस शब्द का प्रयोग किया गया है। अब यदि कोई मार्क्सवादी उनका अर्थ यह लगाता हो कि राम के समय में हाथी और घोड़े का मांस खाया जाता था तो मुझे आश्चर्य नहीं होगा। वास्तविकता यह है कि भिषगाचार्य और वैद्य मृत पशुओं के शरीर का भी अध्ययन करते थे। पहचान सुनिश्चित करने के लिये कन्द विशेष के गूदे के रंग, बनावट आदि की समता के आधार पर जंतुओं के नाम पर आधारित नाम का प्रयोग करते थे। वे लोग आज के नागर जन की तरह परिवेश से कटे हुये नहीं थे। उनके लिये वन प्रांतर पड़ोस की सचाई थे और उद्योग क्षेत्र भी। सही शब्द 'माम्स' है जो कि मांस हो गया वैसे ही जैसे सम्स्कृत संस्कृत हो गयी। तो ये जो माम् स है वह किसी भी आहार के लिये प्रयुक्त था। आहार वह जो प्राण की निरंतरता सुनिश्चित करे। प्राणी वह जो प्राण(वायु) के रूप में श्वास ले। साँसों के नियमन के लिये प्राणायाम अर्थात प्राण का आयाम विस्तार।

लौकिक या वैदिक संस्कृत हमें मनुष्य की निरंतर ऊर्ध्व होती चेतना से परिचय कराते हैं। आहार के रूप में वनस्पतियों की श्रेष्ठता सिद्ध होने के पहले एक बहुत ही लम्बी और जटिल कालयात्रा रही है जो कि समझ की भी यात्रा रही है। शतपथ ब्राह्मण का ही एक भाग बृहदारण्यक उपनिषद है। उसमें एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण प्रश्नोतरी प्रेक्षण है: 
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 जैसे वृक्ष, वैसे मनुष्य। यह सत्य है। उसके रोम. इसकी पत्तियाँ; उसकी त्वचा इसकी छाल; उसकी त्वचा से रुधिर बहता है तो इसकी छाल से रस। इसलिये एक घायल मनुष्य से निकलता रुधिर वृक्ष की चोटिल छाल से टपकते रस के समान है। उसका मांस इसका भीतरी भाग है। उसकी पेशियाँ इसकी भीतरी मज्जा हैं। उसकी अस्थियाँ, इसकी लकड़ी हैं। उसकी अस्थिमज्जा भी इसके समान ही है।

तो हमारे पुरनिये (मूलनिवासी, आर्य, द्रविड़, बाबू साहब, दलित जी, यादो जी आदि सबके) संसार को इस दृष्टि से देखते थे। पिछड़े थे बेचारे, हम लोग बहुत विकसित हो गये हैं, हमारी चेतना का चरम बीफ पार्टी है। है कि नहीं?

भरद्वाज ने भृगु से पूछा - वृक्षों में जीवन है या नहीं? भृगु ने उत्तर दिया - जीवम् पश्यामि वृक्षाणाम्, अचैतन्यम् न विद्यते! वृक्षों में (मैं) जीव देखता हूँ, उन्हें अचैतन्य मत जानो। (महाभारत शांति पर्व)। यह आप्तवाक्य है, प्रमाण है। सनातन परम्परा के दो पुरनियों ने बताया है।

वापस आते हैं माम् स पर जिसका एक रूप मांस भी है। एक शब्द और भी है - माष। ऊड़द को माष कहा जाता था। माष और दधि का मिश्रण कहलाता था मांस अर्थात बलि अन्न। बलि का अर्थ आजकल काली माई के आगे बकरा भैंसा, गड़ासा और रक्तपात से लगाते हैं। है कि नहीं?

बलि का सम्बन्ध आहार से है लेकिन वह मामूली आहार नहीं है। यथा पिंडे तथा ब्रह्मांडे के अनुसार अपने प्राण पोषण के लिये दी गयी बलि समूचे परिवेश के लिये भी पोषक होनी चाहिये। बलिवैश्वादि का अर्थ यही है। बिना बलि दिये आहार नहीं लेना अर्थात बिना समर्पित किये खाना नहीं! तुमहिं निवेदित भोजन करहीं का भक्तिभाव भी वही है।
तो आप की जो रसोई है न – रसभरी रसायन वाली अर्थात जो जीवन के लिये आवश्यक रसों की शरीर में पूर्ति करती है; वह शूना है। शूना अर्थात बलिस्थान :) सिलबट्टा शूना है, चूल्हा शूना है, पात्र शूना है ... जहाँ ‘अग्निदेव’ को भीतर की ‘जठराग्नि’ को तृप्त करने हेतु बलि दी जाती है। समझे कि बलिवैश्वादि का वैश्वानर अर्थात दहकते अग्नि से क्या सम्बन्ध है?

हाँ तो माष और दधि = मांस अर्थात बलि ‘अन्न’, पशुमांस नहीं। यज्ञ पूर्णाहुति के समय ‘दिक् पाल’ बलि दी जाती है। कैसे? दस दिशाओं में ऊड़द, मसूर, दधि आदि के मिश्रण को पीपल के पत्ते पर रख कर दीप जला बलि दी जाती है। हमारे दिक्पाल भी मांस खाते हैं। है कि नहीं बहुबंस बाबू?
शतपथ की यजन् भाषा देखिये:
 गोधूम+यव (गेहूँ और जौ) का मिश्रण = लोम
इनका गूँथा गीला आटा = त्वचा
 भुना या तला आटा = मांस
हरा जौ = तोक्म
 तोक्म अर्थात त्वचा से यव वैसे ही घिरा है जैसे मांस त्वचा से।
 यथा तोक्म शब्देन यवा विरूदा उच्चते, तोक्यानि मांसम्!
बृहदारण्यक में ही एक कर्मकांड का वर्णन है जिसमें इच्छित संतान की प्राप्ति के लिये विभिन्न उपाय बताये गये हैं। जिसे आधार बना कर यह कहा जाता है कि उसमें बछड़े और बैल का मांस खाने को बताया गया है। आज के समय में उपलब्ध मूल पाठ लगा दिया है ताकि सुविधा रहे।
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‘ओदन’ कहते हैं भात को (बनाने की विधियाँ और सान्यता अलग अलग हो सकती हैं)। कर्मकांड के अनुसार गोरा और एक वेदज्ञाता पुत्र चाहिये तो दम्पति क्षीरौदन का सेवन करें अर्थात दूध में बने ओदन का। कपिल पिंगल वर्ण का दो वेदों का ज्ञाता पुत्र चाहिये तो दही भात का सेवन करें। श्याम वर्ण लाल आँखों वाला तीन वेदों का ज्ञाता पुत्र चाहिये तो पानी में बने ओदन का सेवन करें। यदि पंडिता पुत्री चाहिये (हाँ, फेमिनिस्टों! पुत्री प्राप्ति के लिये भी कर्मकांड है) तो तिल के साथ बने भात का सेवन करें। एक बात ध्यान रखें कि यहाँ तक कहीं भी मांस खाने को नहीं कहा गया है। 

अब आइये आगे। समिति योग्य सर्ववेदज्ञाता पुत्र चाहिये तो ... तो, तो... महाविद्वान मरकस बाबा के अनुयायी अनुसार बछड़े और बैल के मांस वाला ओदन खाने को बताया गया है। कारण बताये गये हैं तीन शब्द – मांस (माँस है, मांस नहीं। तो चन्द्रबिन्दु से क्या अंतर पड़ता है, अवैज्ञानिक लिपि का दोष), औक्षेण और वार्षभेण (उक्षा का एक अर्थ बैल है और वृषभ माने भी बैल) अर्थात विद्वान जी की मानें तो चन्द्रबिन्दु से कोई अंतर नहीं पड़ता और दो बार बैल का पर्यायवाची लिखा गया जिसमें से किसी एक का अर्थ बछड़ा हो जाता है। नहीं? J भैया जी! सर्ववेद का अर्थ चार वेदों से है। चौथा है अथर्वण, वही जिसे वैद्यकी से जुड़ा बताया जाता है। वैद्यकी का एक ग्रंथ है जिसे सुश्रुत का रचा बताते हैं। 
मासं पर ध्यान गया? मांंस नहीं, मासं है, दोनों द्वारा मास अर्थात महीना भर ब्रह्मचर्य पालन के पश्चात ही संतान प्राप्ति हेतु युगनद्ध होने को कहा है!  
उसमें महराज लिखे हैं कि सुपुत्र की प्राप्ति के लिये पुरुष को दूध, भात, मक्खन और स्त्री को तेल एवं माष से बने भोजन का सेवन करना चाहिये। चमका कुछ? माँस (मांस नहीं) माष है। उक्षा माने बैल नहीं होता? होता है भैया लेकिन उसका एक अर्थ सोम भी होता है। वही सोम जिसे आप लोग मिथकीय विलुप्त औषधि बताते हैं। आकाश से भी वृषाकपि सोम बरसाते हैं और धरा उक्ष हो जाती है माने कि भीग जाती है! बैल जी और भीगने का सम्बन्ध दास कैपिटल में नहीं मिलेगा! 
वह जो अश्वकन्द गजकन्द वाले मांस की बात की थी न मैंने? कहाँ थी? रामायण में न? रामायण किस कुल का वर्णन करता है? इक्ष्वाकु कुल का न? पूरबिया सूर्यवंशी इक्ष्वाकु कुल वेदों की किस शाखा का पोषक था? अथर्वण शाखा का न? वह रामायण में जो सारे भारत की प्रमुख औषधियों सॉरी, वनस्पतियों का वर्णन है वह अकारण ही नहीं है। समझ में आ गया न? 
लेकिन वह वार्षभेण? वृषभ वाला? हाँ भई, ऋषभकन्द भी औषधीय गुण वाला था जिसका मांस सॉरी गूदा बैल के माफिक गन्धाता था, होता भी वैसे ही था, एक ठो ऋषभक भी होता है। देवी को जो मधु समर्पित करने को लिखा है न वह माधवी सुरा नहीं, मधु ही है जिसमें ईक्ष अर्थात गन्ने का रस भी मिला हो। देवी ऐसे ही नहीं हाथ में मधुतृण अर्थात गन्ना थामे होती हैं। यह ईक्षुदंड बाद में यक्षदंड हो गया। उसका फसली अर्थात ऋतु से भी सम्बन्ध है।
अब आखिर में आप के लिये एक ठो नारीमेध छोड़े जाता हूँ। 
ततोवरो वध्यादक्षिण स्कन्धोपरि हस्तं नीत्वाममब्रते स्तिस्व पठित मंत्रेण तस्थाहृदयमालभते। 
विवाह वेदी पर दूल्हा स्त्री के दायें कन्धे को पकड़ देह काट उसका हृदय निकाल लेता है (और अपने कुल में मंत्र पढ़ते हुये बाँट देता है)! 

हो गया न नारीमेध? स्त्री की बलि?? अब आप का एक लेख तो बनता ही है, ‘हिन्दुओं’ में जारी नारी शोषण पर जो कि उस कारिका से आता है जिसमें स्त्री के प्रति इतनी हिंसा का भाव है! नहीं?? शुरू हो जाइये।

शुक्रवार, 2 अक्टूबर 2015

बाऊ और नेबुआ के झाँखी - 30

पिछले भाग से आगे ...

बिहान हो गया है। गाँव में नये जगे की खुड़बुड़ है। संध्या विधान के पश्चात खदेरन पंडित चौकी पर दक्खिन उत्तर लेटे हैं। या तो यहाँ लेटना या चुपचाप सरेह में भटकना और मतवा ने जब कहा खा पी लेना, पिछ्ले नौ दिन ऐसे ही बीते हैं। बेदमुनि भी जैसे समझता है, पास नहीं जाता ...

इन दिनों में खदेरन ने नेबुआ तंत्र अनुष्ठान से लेकर नवजात कन्या की हत्या तक के समय को पुन: पुन: जिया था। मन इतना गहरे धँस गया था कि किसी भी तरह का पलायन असंभव था। एक समय जाने कौन बरम सिर पर सवार था जो ऐसी ही मन:स्थिति में भागते कामाख्या तक पहुँच गये थे! अब किससे भागें खदेरन, कहाँ जायें? कर्मों की डोर पाँवों की फाँस बन गयी। हर अनर्थ उन्हीं के हाथों घटा था, धरती पर नहीं, उनकी देह में। छाती पर सवार यमदूत हर रात बत्ता चरचराते, घुटती साँसों के बीच नींद खुल कर भी मुक्त नहीं करती – क्षत विक्षत रक्त सनी सुभगा अन्धेरे को चीरती खड़ी दिखाई देती। सुर्ख चमकती लहू की रेखायें जैसे कि गर्भगृह में काली प्रतिमा दमक रही हो! माँ, मुक्ति दो। अब तो शाप दे कर यातना पूरी भी कर दिया! अब क्यों, क्यों माँ?

ऐसे में खेती बाड़ी से लेकर घर गिरहस्ती तक सब मतवा ने सँभाला।  नयनों के दोनों कोर से निकलते बेकहल आँसुओं की ढबढब में पंडित ने देखा कि खुले नभ में पश्चिम दिशा में चन्द्रमा विराजमान थे तो पूरब में उगते सूरज। अँजोर होने पर भी लगा जैसे दिन रात साथ साथ हों! कहीं हूक सी उठी। ज्यों तेज चोट लगी हो, हड़बड़ा कर बैठ गये। एक बार फिर से दोनों को निहार बड़बड़ाये – नौ दिन बीत गये!

कुछ ही हाथ की दूरी पर चमकती भुइँया हिसाब की रेखायें थीं जिन्हें मिटाना मतवा भूल गयी थीं। दलिद्दर की घरनी – खदेरन ने मन ही मन सोचा और दुवार पर ही टहलने लगे। घरनी उनकी भेदिया थी। इन दिनों ऐसे बतियातीं जैसे कोई बहुत ही गोपनीय बात कर रही हों लेकिन उसमें गाँव गिराम की रोजमर्रा की खोज खबर ही होती। चिंता असवार स्वर कहीं पंडित फिर से भाग न जायँ! ... तीसरे दिन ही जुग्गुल ने सोहित का गोंयड़े का खेत जोतवा लिया था – पगलेट का क्या ठिकाना, जाने कब ठीक हो?  ये रहा रेहन का कागद। गाँव चुप्प रहा लेकिन खदेरन की हड़पने वाली बात सबको समझ आ गयी थी। ... सोहित, इसरभर और भउजी का कहीं अता पता नहीं। लोगों में सन्देह पुख्ता था कि कोई बड़ा कांड उनकी नाक नीचे हो चुका है और पता ही नहीं! ...रमेसरी से मतवा की रार भी हुई। उसने बस यह कहा था कि खदेरन पंडित को सब पता है। खदेरन किस से कहें कि न तो वे अगमजानी हैं और न ही भविस्स देख सकते हैं? अपनी बिद्या का आतंक तो उन्हों ने खुद फैलाया था। उसके आगे खुद असहाय थे – नेबुआ वाला टोटका इतना असरदार कैसे हो गया? ... हरदी ओरा गयी है, साहुन के यहाँ से मँगानी पड़ेगी ...हल्दी शुभ होती है खदेरन! शुभ खत्म हो गया! ... लोग नेबुआ मसान वाला रास्ता फिर से बराने लगे हैं ... सही कही बेदमुनि की महतारी, वह मसान ही है जिसकी चौकीदारी में सबसे बड़ा झुठ्ठा नीच जुग्गुल लगा हुआ है।

... नीचे धोती की खींच का अनुभव कर खदेरन थम गये। पीछे मुड़ कर देखे तो परसू पंडित की बेटी सुनयना थी। बिहाने बिहाने भवानी घर छोड़ यहाँ कैसे आ गई? सुहावन गौर चेहरे पर लाल बाल अधर – देवी स्वयं पधारी हैं, खदेरन सब भूल वर्तमान में पूरी तरह पग गये!  मुस्कुराती बच्ची हाथ फैलाये निहोरा सी कर रही थी – हमके कोरा ले ल! कितना भोला मुख, सम्भवत: घर का कोई बड़ा आसपास ही हो, खानदानी शत्रुता भूल खदेरन ने भवानी को गोद में उठा लिया – एन्ने कहाँ रे, बिहाने बिहाने? दूध पियले हउवे की नाहीं? उसे गोद में लिये कोला की और आगे बढ़ गये। शिउली गाछ के नीचे बेदमुनि धूलधूसरित जमीन पर बैठा कुछ करता दिखा। खदेरन पास पहुँचे – देख तs के आइल बा?

हाथ में लकड़ी लिये बेदमुनि तल्लीन भुँइया कुछ खींचने में लगा हुआ था। त्रिभुजों की शृंखला जो कि क्रमश: सुगढ़ होती आकृतियाँ दर्शा रही थी। बेदमुनि जैसे आखिरी खींचने में लगा हुआ था – एक दूसरे में प्रविष्ट दो त्रिभुज, षड्भुज आकार। यह तो यंत्र है, किसने इस बच्चे को सिखाया?... अवाक खदेरन ने सुनयना को गोदी से नीचे उतार दिया। वह जा कर बेदमुनि के सामने बैठ गयी – भइया! ... यंत्र के दो सिरों पर अब बेदमुनि और सुनयना बैठे थे। ऊपर से एक शिउली पुहुप गिरा – ठीक केन्द्र में। प्रात:काल हरसिंगार! इस महीने?  चौंक कर सिर ऊपर उठाये। झाड़ एकदम खाली था, भूमि पर भी कोई दूसरा फूल नहीं लेकिन यह भीनी सुगन्ध? खदेरन स्तब्ध थे, कैसा संकेत! ...सुनयना की जन्मकुंडली देखने पर उपजी भविष्यवाणी मन में मुखर थी – विलासिनी... ऋतेनादित्यास्तिष्ठंति दिवि सोमो अधि श्रित:

स्वयं को सम्बोधित कर बुदबुदाये - ऋतावरी प्रज्ञा का आह्वान करो खदेरन! ... दोनों बच्चे एक दूसरे का हाथ थामे दूर भागे जा रहे थे। पंडित ने आह भरी – रक्त अपना ठौर पा ही जाता है।

(जारी)