शुक्रवार, 2 अक्तूबर 2015

बाऊ और नेबुआ के झाँखी - 30

पिछले भाग से आगे ...

बिहान हो गया है। गाँव में नये जगे की खुड़बुड़ है। संध्या विधान के पश्चात खदेरन पंडित चौकी पर दक्खिन उत्तर लेटे हैं। या तो यहाँ लेटना या चुपचाप सरेह में भटकना और मतवा ने जब कहा खा पी लेना, पिछ्ले नौ दिन ऐसे ही बीते हैं। बेदमुनि भी जैसे समझता है, पास नहीं जाता ...

इन दिनों में खदेरन ने नेबुआ तंत्र अनुष्ठान से लेकर नवजात कन्या की हत्या तक के समय को पुन: पुन: जिया था। मन इतना गहरे धँस गया था कि किसी भी तरह का पलायन असंभव था। एक समय जाने कौन बरम सिर पर सवार था जो ऐसी ही मन:स्थिति में भागते कामाख्या तक पहुँच गये थे! अब किससे भागें खदेरन, कहाँ जायें? कर्मों की डोर पाँवों की फाँस बन गयी। हर अनर्थ उन्हीं के हाथों घटा था, धरती पर नहीं, उनकी देह में। छाती पर सवार यमदूत हर रात बत्ता चरचराते, घुटती साँसों के बीच नींद खुल कर भी मुक्त नहीं करती – क्षत विक्षत रक्त सनी सुभगा अन्धेरे को चीरती खड़ी दिखाई देती। सुर्ख चमकती लहू की रेखायें जैसे कि गर्भगृह में काली प्रतिमा दमक रही हो! माँ, मुक्ति दो। अब तो शाप दे कर यातना पूरी भी कर दिया! अब क्यों, क्यों माँ?

ऐसे में खेती बाड़ी से लेकर घर गिरहस्ती तक सब मतवा ने सँभाला।  नयनों के दोनों कोर से निकलते बेकहल आँसुओं की ढबढब में पंडित ने देखा कि खुले नभ में पश्चिम दिशा में चन्द्रमा विराजमान थे तो पूरब में उगते सूरज। अँजोर होने पर भी लगा जैसे दिन रात साथ साथ हों! कहीं हूक सी उठी। ज्यों तेज चोट लगी हो, हड़बड़ा कर बैठ गये। एक बार फिर से दोनों को निहार बड़बड़ाये – नौ दिन बीत गये!

कुछ ही हाथ की दूरी पर चमकती भुइँया हिसाब की रेखायें थीं जिन्हें मिटाना मतवा भूल गयी थीं। दलिद्दर की घरनी – खदेरन ने मन ही मन सोचा और दुवार पर ही टहलने लगे। घरनी उनकी भेदिया थी। इन दिनों ऐसे बतियातीं जैसे कोई बहुत ही गोपनीय बात कर रही हों लेकिन उसमें गाँव गिराम की रोजमर्रा की खोज खबर ही होती। चिंता असवार स्वर कहीं पंडित फिर से भाग न जायँ! ... तीसरे दिन ही जुग्गुल ने सोहित का गोंयड़े का खेत जोतवा लिया था – पगलेट का क्या ठिकाना, जाने कब ठीक हो?  ये रहा रेहन का कागद। गाँव चुप्प रहा लेकिन खदेरन की हड़पने वाली बात सबको समझ आ गयी थी। ... सोहित, इसरभर और भउजी का कहीं अता पता नहीं। लोगों में सन्देह पुख्ता था कि कोई बड़ा कांड उनकी नाक नीचे हो चुका है और पता ही नहीं! ...रमेसरी से मतवा की रार भी हुई। उसने बस यह कहा था कि खदेरन पंडित को सब पता है। खदेरन किस से कहें कि न तो वे अगमजानी हैं और न ही भविस्स देख सकते हैं? अपनी बिद्या का आतंक तो उन्हों ने खुद फैलाया था। उसके आगे खुद असहाय थे – नेबुआ वाला टोटका इतना असरदार कैसे हो गया? ... हरदी ओरा गयी है, साहुन के यहाँ से मँगानी पड़ेगी ...हल्दी शुभ होती है खदेरन! शुभ खत्म हो गया! ... लोग नेबुआ मसान वाला रास्ता फिर से बराने लगे हैं ... सही कही बेदमुनि की महतारी, वह मसान ही है जिसकी चौकीदारी में सबसे बड़ा झुठ्ठा नीच जुग्गुल लगा हुआ है।

... नीचे धोती की खींच का अनुभव कर खदेरन थम गये। पीछे मुड़ कर देखे तो परसू पंडित की बेटी सुनयना थी। बिहाने बिहाने भवानी घर छोड़ यहाँ कैसे आ गई? सुहावन गौर चेहरे पर लाल बाल अधर – देवी स्वयं पधारी हैं, खदेरन सब भूल वर्तमान में पूरी तरह पग गये!  मुस्कुराती बच्ची हाथ फैलाये निहोरा सी कर रही थी – हमके कोरा ले ल! कितना भोला मुख, सम्भवत: घर का कोई बड़ा आसपास ही हो, खानदानी शत्रुता भूल खदेरन ने भवानी को गोद में उठा लिया – एन्ने कहाँ रे, बिहाने बिहाने? दूध पियले हउवे की नाहीं? उसे गोद में लिये कोला की और आगे बढ़ गये। शिउली गाछ के नीचे बेदमुनि धूलधूसरित जमीन पर बैठा कुछ करता दिखा। खदेरन पास पहुँचे – देख तs के आइल बा?

हाथ में लकड़ी लिये बेदमुनि तल्लीन भुँइया कुछ खींचने में लगा हुआ था। त्रिभुजों की शृंखला जो कि क्रमश: सुगढ़ होती आकृतियाँ दर्शा रही थी। बेदमुनि जैसे आखिरी खींचने में लगा हुआ था – एक दूसरे में प्रविष्ट दो त्रिभुज, षड्भुज आकार। यह तो यंत्र है, किसने इस बच्चे को सिखाया?... अवाक खदेरन ने सुनयना को गोदी से नीचे उतार दिया। वह जा कर बेदमुनि के सामने बैठ गयी – भइया! ... यंत्र के दो सिरों पर अब बेदमुनि और सुनयना बैठे थे। ऊपर से एक शिउली पुहुप गिरा – ठीक केन्द्र में। प्रात:काल हरसिंगार! इस महीने?  चौंक कर सिर ऊपर उठाये। झाड़ एकदम खाली था, भूमि पर भी कोई दूसरा फूल नहीं लेकिन यह भीनी सुगन्ध? खदेरन स्तब्ध थे, कैसा संकेत! ...सुनयना की जन्मकुंडली देखने पर उपजी भविष्यवाणी मन में मुखर थी – विलासिनी... ऋतेनादित्यास्तिष्ठंति दिवि सोमो अधि श्रित:

स्वयं को सम्बोधित कर बुदबुदाये - ऋतावरी प्रज्ञा का आह्वान करो खदेरन! ... दोनों बच्चे एक दूसरे का हाथ थामे दूर भागे जा रहे थे। पंडित ने आह भरी – रक्त अपना ठौर पा ही जाता है।

(जारी)       

8 टिप्‍पणियां:

  1. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, लकीर बड़ी करनी होगी , मे आपकी कमाल की पोस्ट का सूत्र हमने अपनी बुलेटिन में पिरो दिया है ताकि मित्र आपकी पोस्ट तक और आप उनकी पोस्टों तक पहुंचे ..आप आ रहे हैं न ...
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  2. लग रहा है कि लिखना दुश्वार होता होगा लेकिन जारी रहें।

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    1. आप भी यात्रा शुरू करे....लम्बा विश्रांत हो गया...
      प्रतिक्षारत...

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  3. आदरणीय गिरजेश राव जी - सादर सप्रेम हरी स्मरण
    इस उत्तम कथा में आपके नियमित लेखन को पाकर प्रसन्न होकर पुनः आपके ब्लाग पर आना शुरू कर दिया हूँ .प्रार्थना है कि नियमितता बनाये रखे .आपके कमाल की उत्तम लेखन शैली के घनघोर प्रशंसक , किन्तु आपके आलसीपन के हम घनघोर निंदक रहे हैं . अंत में पुनः प्रार्थना है कि कृपया नियमितता बनाये रखे .बिलम्ब काफी अखरता है .
    सादर एवं सप्रेम आपका – डॉ गोविन्द पाण्डेय

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  4. आनंद आ गया। इतने दिनों बाद फिर वही लय ! ...बधाई।

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  5. आदरणीय गिरजेश राव जी - सादर सप्रेम हरी स्मरण
    आपकी अप्रतिम लेखन शैली में रेणु जी की झलक मिलने के कारण मुझे बहुत पसंद रही है . किन्तु बिलम्ब काफी अखरता है . अतः प्रार्थना यही है कि कृपया नियमितता बनाये रखे.
    सादर एवं सप्रेम आपका – डॉ गोविन्द पाण्डेय

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  6. आदरणीय गिरजेश राव जी - सादर सप्रेम हरी स्मरण
    राउर लेखनी पर निसार बानी जी .का बढिया रुउया लिखिला .गावं के माटी गावं के भाखा इ सहर में रहके याद आ जाला.
    मोरे पिछवरवाँ चन्दन गाछ औरन से चन्दन हो
    रामा सुघर बढ़ैया मारे छेव लालन जी के पालन हो
    राम के कढ़ऊँ खड़उवाँ कन्हैया जी के पालन हो
    रामा ठाढ़ि जशोदा झुलावें लालन जी के पालन हो
    झूलहु हे लाल झूलहु...

    -झूलहु हो लाल झूलहु, झुलुवा झुलाइब जमुन जल लाइब..
    जमुना पहुँचहूँ न पवलीं,
    घड़िलओ न भरलीं
    महल मुरली बाजे हो।
    झूलहु हो लाल झूलहु कन्हैया जी के पालन हो। ...
    चुप रहु जशुमति चुप रहु दुशमन जनि सुने हों, जशुमति ईहे कंस के मरिहें गोकुला बसैहें हो
    पंडित हो! चन्दन गाछ पर झुलाओ
    माई को कन्हैया बलराम ध्यान में आये - एक भैया साँवर एक भैया गोर...झूलहु हो लाल झूलहु लेकिन झुलाने वाली फेंकरनी तो निढाल पड़ी हुई थी और चन्दन गाछ? नपत्ता!
    का लिखेल हो कि करेजा फट जाला और आँख में से आंसू आ जाला .जुगुला सारे के का होई इहे जाने के उत्कंठा बा .
    सादर एवं सप्रेम आपका – डॉ गोविन्द पाण्डेय

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  7. हाथ कान तक पहुँचने को थे कि फेंकरनी ने एक हाथ पकड़ लिया – पंडित हो! तोहरे आस...आँखें उलट गईं। प्राण पखेरू उड़ गए।
    .......................................... .फेंकरनी! साँवर कन्हैया मिलेगा तुम्हें।.......................................
    .........................नींबू श्मशान में दो टटके प्रेत नाच उठे –
    जमुना पहुँचहूँ न पवलीं,
    घड़िलओ न भरलीं महल मुरली बाजे हो।
    झूलहु हो लाल झूलहु कन्हैया जी के पालन हो। ...
    पंडित हो! चन्दन गाछ पर झुलाओ।

    हे सइयाँ चँवरे पूरइन बन फूले, एगो फुलवा हमार हे
    लाउ सइयाँ फुलवा आनहु जाई, पाँखुर जइहें कुम्हलाइ हे
    पाँखुर भीतर कार भँवरवा, लीहें रस रसना लगाइ हे
    हे सइयाँ फुलवा महादेव देवता, पाँखुर गउरा सराहि हे!

    ...हे सइयाँ फुलवा महादेव देवता, पाँखुर गउरा सराहि हे!
    दुसमन फुलवा खाँच भर दुनिया, आनहु देवता दुआर हे!

    बड़ा रस बा जी राउर रचना में ,हम शहरी लोगन के यंत्रवत , झूठा , बनावटी , एवं रसहीन जिन्दगी में राउर रचना पढ़ के गाँव में बितावल बिना बनावट के रस भरल जिन्दगी के मिठास मन में घुल के एगो अव्यक्त प्रसन्नता दे जाला .शिकायत और गुस्सा ऐह बात के बा कि इ रस , काहें कई दिन के बाद बरसावेल .इंतजार करत -2 थक जावेनीजा .2011 से इ रस के लालच में रउरे blog पर आवत रहल हई .परन्तु रउरे कुम्भकर्णी नींद में सुतल रहे के कारण निराश होके लौट जात रही .अब निराश मत करीं .
    सादर एवं सप्रेम राउर आपन – डॉ गोविन्द पाण्डेय

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