रविवार, 20 सितंबर 2015

बाऊ और नेबुआ के झाँखी - 29

पिछले भाग से आगे...

रमैनी काकी माने माया छाया एक देह। कुछ पहर पहले ही जिस नगिनिया भउजी के लिये मन में माया हिलोर ले रही थी वह जुग्गुल की एक बात से अपनी पुरानी छाया में आ गई थी। रक्कत देख सन्तोख नहीं पूरा था, काकी तमाशा देखने को गोहरा रही थी!

घेरा तोड़ते खदेरन आगे पहुँचे तो जो वीभत्स दिखा वह कहीं नहीं, कभी नहीं दिखा था, कमख्खा में भी नहीं। एक नवजात मानुष देह क्षत विक्षत पड़ी थी, पास ही मझोले कद का एक कुत्ता किसी धारदार हथियार से कटा पड़ा था और जुग्गुल भ्रष्ट भैरव बना एक हाथ में टाँगी और दूसरे में नवजात की टाँग लिये उछ्ल रहा था। लाल कपड़े पर भी रक्त के छींटे स्पष्ट थे, धरती पर खून ही खून। रमैनी काकी को पंडिताइन के लाल गोड़ निसान याद आ गये, खुद को सँभालने को लबदी का सहारा ले धीरे धीरे वहीं बैठ गयी। दोनो गोड़ पानी जैसे हो गये थे!

जुग्गुल चिघ्घाड़ उठा – महापातक भइल बा गाँव में, महापातक! मुसमात देवर संगे सुहागिन भइल, केहू जानल? नाहीं। नागिन पेटे जीव परल, केहू जानल? नाहीं। भवानी पैदा भइल, केहू जानल? नाहीं। खेला देख जा पंचे, खेला! भवनिया के मुआ के एहिजा, भरल गाँव के बिच्चे गाड़ देले रहलि हे नगिनिया! बसगित में मुर्दा गड़ले रहलि हे नगिनिया खोनि के पिल्ला नोचत रहलें हँ सो, आपन पलिवार त खाही घरलसि, गाँव के सत्यानास करे चललि बा नागिन। रउरा पाछ्न के लइके फइके कुँवारे रहि जइहें, के बियही ए गाँवे जब ई खिस्सा चहुँ ओर फइली? कुलटा हे नगिनिया, कुलटा!...

(गाँव में बहुत बड़ा पाप हुआ है, महापातक! विधवा देवर संग सुहागिन हुई, किसी ने जाना? नहीं। नागिन गर्भवती हुई, किसी ने जाना? नहीं। बेटी पैदा हुई, किसी ने जाना? नहीं। तमाशा देखो पंचों! तमाशा। बेटी को मार कर यहीं, भरे पूरे गाँव के बीच नागिन ने गाड़ दिया था! बस्ती में नागिन ने मुर्दा दफन किया था, कुत्ते खोद के नोच चोथ रहे थे! अपना परिवार तो खा ही गयी, नागिन अब गाँव का सत्यानाश करने चली है। जब यह किस्सा आस पास फैलेगा तो उसके बाद कौन अपनी संतान इस गाँव में ब्याहेगा? आप सब के बच्चे कुँवारे रह जायेंगे। नागिन कुलटा है, कुलटा!...)

... कुलटा हे नगिनिया कुलटा! – सोहित के कान बस यही स्वर पड़े। बुढ़िया आँधी भरे मन ने स्वर पहचाना – जुग्गुल काका? एक ही सहारा था, वह भी...गद्दार...हमार भउजी कुलटा?

नयनों के आगे भीड़ दिखी, लाल लाल जुग्गुल दिखा, लाल आँखें, भउजी की काली आँखें, करिखही राति, बबुना... ढेबरी की लौ सम भक भक करिखही आँख... मस्तिष्क में भरे अरबों तंतुओं का आपसी संतुलन टूटा और काला पर्दा तन गया। सोहित के गले से माँ से बिछड़े पड़वे सी गुहार निकली – हमार भउजी कुलटा नाहीं, कब्बो नाहीं रे जुगुला! नरखा फाड़ते, केश नोचते सोहित जुग्गुल पर टूट पड़ा। लँगड़ा कहाँ सँभाल पाता, जमींदोज हुआ और उसके गले सोहित के हाथ कस गये...  

...सोहित के चेहरे की बदलती रंगत किसी ने सबसे पहले पहचानी तो इसरभर ने। उसे जुग्गुल की और झपटते देख इसरभर को चमैनिया अस्थान से जुड़ी सारी पुरानी घटनायें एक साथ याद आ गईं, वह पीछे मुड़ा और भाग चला – जल्दी से कुछु करे के परी,  लेकिन का? इसरभर सिर इसर सवार थे – मन में जाने कितने समीकरण बनने बिगड़ने लगे!  मलकिन के माटी कइसे पार घाट लागी? भइया त पगला गइलें! (मलकिन की मृत देह का संस्कार कैसे होगा? भैया तो पागल हो गये!)  कुलटा मलकिन, नगिनिया मलकिन ... सरापल गाँव में अब के अनरथ करी, खदेरन पंडित? ना, कब्बो ना!...(इस शापित गाँव में अब अनर्थ कौन करेगा? खदेरन पंडित? नहीं, कभी नहीं!)

...”सोहिता रे!” खदेरन पंडित ने स्वर पहचान लिया – बेदमुनि के महतारी? पीछे मुड़े और पियराती मतवा के उठे हाथ ने जैसे समझा दिया कि क्या करना है! झपट कर सोहित पर पिल गये जिसके नीचे गों गों करते जुग्गुल की आँखें बाहर निकल सी रही थीं। खदेरन को देख और लोग भी जुड़ गये। बहुत मुश्किल से सोहित का हाथ छूटा। जुग्गुल आश्चर्यजनक गति से पुन: खड़ा हो गया और सोहित? चुप्प! आँखें दूर तकती, जैसे किसी की तलाश में हों। अधखुले मुँह से लार बह रही थी, सुन्दर चेहरा विकृत हो गया था। खदेरन की आँखें भर आईं – इतने कम समय में कितनी यातना! सोहित लड़खड़ाता चल पड़ा। दूर सधी आँखें, पागल प्रलाप – भइया हो! ले चलs, भउजी के, हमके, गाँव के। घवराई भीड़ ने राह दे दी।

मन्नू बाबू के बाप के प्रचंड स्वर ने भीड़ को यथार्थ पर ला पटका – बरस बरस के नवमी के दीने, कुलदेबी पूजा के दीने अइसन गरहित कांड! थू। दुन्नू के गाँवे से बहरियावे के परी। (वर्ष में एक ही बार आने वाले इस नवमी के दिन, कुलदेवी की पूजा के दिन ऐसा घृणित कांड! थू। दोनों को गाँव से बाहर करना पड़ेगा।) विजयी स्वर में उन्हों ने प्रश्न किया - बोलs खदेरन पंडित! तोहार सास्त्र अब का कहता? कवनो दूसर उपाइ बा? आ कि चमइनियन जइसन फेंसे कुछु ...? (बोलो खदेरन पंडित!  तुम्हारा शास्त्र क्या कहता है? कोई दूसरा उपाय है? या वैसा कुछ करना है जैसा चमाइनों के साथ ...?)   

अधूरे छोड़ दिये गये व्यंग्य वाक्य में अहंकार कम, राक्षसी प्रवृत्ति का कोलाहल अधिक था। निर्बल मतवा को सहारा देते खड़े खदेरन भूत लोक में पहुँच गये। फेंकरनी गा रही थी – राम के कड़हूँ खरउँवा, कन्हैया जी के झूलन हो ... अमा की रात में सुभगा – मैं धरती हूँ बावले जिसकी वासना कभी समाप्त नहीं होती। युगों युगों से मैं तुम्हें भोगती आई हूँ, यहाँ जीवन मुझसे है। हाँ, हाँ, मुझे प्रेम करो, कहो सबसे कि मैंने धरती का सुख भोगा, कहो क्यों कि तुम्हारा कहना मुझे प्रबल करता है। हा, हा, हा...

करुणा की कीच सने मन को ठाँव मिली, उत्तर के पहले चेतना आई – धरती, भोग। यह सब षड़यंत्र है, जमीन हड़पने का। पंडितों की जमीन हड़पे, अब पट्टीदारों की जमीन हड़पने को ये नीच लगे हैं। खदेरन! तुम्हें यह सब समाप्त करना है। जाने कितनी बलियाँ इस गाँव में और होंगी। तुम्हारी करनी यह जगह शापित है, कुछ करो, कुछ करो!

“गाँव से बाहर कोई नहीं जायेगा बाबू! कोई नहीं। इस गाँव का शाप जायेगा!” खदेरन थम गये। चढ़े सूरज को घूरते तांत्रिक खदेरन का वही पुराना कौवे जैसा कर्कश स्वर भीड़ ने बहुत दिनों के बाद सुना:  

“त्वं जानासि जगत् सर्वं न त्वां जानाति कश्चन

त्वं काली तारिणी दुर्गा षोडशी भुवनेश्वरी

धूमावती त्वं बगला भैरवी छिन्नमस्तका

त्वमन्नपूर्णा वाग्देवी त्वं देवी कमलालया

सर्वशक्तिस्वरूपा त्वं सर्वदेवमयी तनु:”     

 

तेज स्वर की सहम दस दिशाओं को मथती चली गयी, एक विकार से दूसरे विकार में प्रवेश करते जन जड़ हो गये थे!

“तव रूपं महाकालो जगत्संहारकारक:

महासंहारसमये काल: सर्वं ग्रसिष्यति

कलनात् सर्वभूतानां महाकाल: प्रकीर्तित:

महाकालस्य कलनात् त्वमाद्या कालिका परा ...

साकाराsपि निराकारा मायया बहुरूपिणी

त्वं सर्वादिरनादिस्त्वं कर्त्री हर्त्री च पालिका

... जो भवानी भूमि पर क्षत विक्षत पड़ी है, उसकी साक्षी मान मैं इस स्थान पर अब तक हुये सारे पापों को अपने सिर लेता हूँ। साथ ही यह शाप देता हूँ कि आज के बाद अगर किसी ने यहाँ कुछ भी टोना टोटका किया तो उसका और उसके परिवार का सर्वनाश हो जायेगा।“

धीमे स्वर में सबको सुनाते हुये खदेरन ने कहा – यह सब जमीन हड़पने की गर्हित कुचाल है। आप लोग खुद विचारें और समझें। विधि की विधना जो होनी थी, हो गयी, आगे आप सब के हाथ लेकिन अगर किसी ने यहाँ कोई टोना टोटका किया तो माँ काली की सौंह... ।

मतली आते हुये भी खदेरन ने नवजात की देह के टुकड़ों को उठाया, गमछे में लपेट भीड़ को चीरते चँवर की ओर चल पड़े। मतवा उनके अनुसरण में थीं।

 

जुग्गुल को चेत हुआ, उसने भीड़ को ललकारा – ई पखंड कवनो नया थोड़े ह, सोहिता त भटकते बा, नगिनिया के पकड़ि के बहरे कर के परी!

प्रतिक्रिया नहीं होते देख उसने पट्टीदारों को पुकारा – खून खनदान के फिकिर बा कि नाहीं? एक छोटा सा समूह सोहित के घर की ओर चल पड़ा। लोग घर में घुसे, जुग्गुल सबसे आगे भउजी की कोठरी में।

कोठरी एकदम व्यवस्थित साफ सुथरी थी, जैसे कुछ हुआ ही न हो! न तो नागिन का अता पता था और न ही इसरभर का!

 

बचे दिन गाँव सरेह में दोनों की खोज चलती रही लेकिन वे नहीं मिले तो नहीं मिले! साँझ को दिया बारी पूजन के बेरा दक्खिन कोने किसी घर एक फुसफुसाहट उभरी – ऊ भवनिया देवरा के नाहीं, भरवा के रहलि हे। एहि से सोहिता पगला गइल हे अउर नगिनिया सँगे भरवा नपत्ता बा! धुँअरहा के धुँये और चूल्हे की आग के साथ यह बात घर घर में बँटती चली गयी। (वह भवानी देवर से नहीं, इसरभर के साथ हुये संबंध से थी। इसी से सोहित पागल हो गया और नागिन संग इसरभर लापता है!)  

 

शुद्धिस्नान और कर्मकांड के पश्चात कार्त्तिक शुक्ल पक्ष नवमी की उस सन्ध्या यह बात खदेरन पंडित के कान पड़ी और वह कराह उठे। शांति अब बस भ्रम थी। भीतर दाह उठने लगा। वहीं निखहरे चौकी पर लेट गये। मतवा ने हाथ लगाया तो जाना अब खदेरन की बारी थी। फीकी मुस्कान के साथ खदेरन बड़बड़ाये, सतमासी भवानी थी, नवमी के दिन सात महीनों की सँभाल व्यर्थ हुई। वे गलदश्रु हो उठे – आह, कहीं से भी सतमासी नहीं लगती थी... सुभगा!

... बेदमुनि की माँ, यह इकट्ठे पापों की ताप है, जल्दी नहीं जायेगी। धीरज रखना। जब भी यह काया ठीक हुयी, शिकायत ले थाने तो जाऊँगा ही।       

 

छिप कर सुने गये खदेरन के निश्चय के साथ लोगों की थू थू को जुग्गुल अपनी कोठरी में दुहरा रहा था।  उसके हाथ पीले बस्ते के वही कोरे कागज थे जिन पर अंगूठों की छाप थी। चेंचरा बन्द कर ढेबरी जला वह कुटिल मुस्कान लिये लिखता जा रहा था - हम कि सोहित सिंह वल्द ...

 

(अगले भाग में जारी)

5 टिप्‍पणियां:

  1. Bahut Lamba intezar karna pada is baar .katha to Sundar hai hi.----- Bau Ka deewana.

    जवाब देंहटाएं
  2. खुद को रोक कैसे पाते हैं आप?

    जवाब देंहटाएं
  3. आदरणीय गिरजेश राव जी ,सादर सप्रेम हरी स्मरण ,
    आपकी इस रचना को हम बहुत सराहे किन्तु आपकी लेखन कि गति अत्यंत धीमी होने के कारण हम आपके आलसीपन की घनघोर निंदा करते है एवं आपके site पर आना बंद ही कर दिए .अधूरी रचना लिख कर पाठक के मन में उत्सुकता जगा कर आप कुम्भकर्णी नींद में सो जाते है -यह एक अपराध है .रेणु जी के बाद उनकी शैली की एक झलक आप की इस रचना में मिलती थी एवं इसी कारण हम पाठको को पसंद भी थी .किन्तु अत्यधिक विलम्ब के कारण अब हम आपको कतई पसंद नही करते एवं न ही आपके site पर आते है .
    सादर व सप्रेम.- डॉ गोविन्द पाण्डेय

    जवाब देंहटाएं
  4. आदरणीय गिरजेश राव जी - सादर सप्रेम हरी स्मरण
    आपकी अप्रतिम लेखन शैली में रेणु जी की झलक मिलने के कारण मुझे बहुत पसंद रही है . किन्तु बिलम्ब काफी अखरता है . अतः प्रार्थना यही है कि कृपया नियमितता बनाये रखे.
    सादर एवं सप्रेम आपका – डॉ गोविन्द पाण्डेय

    जवाब देंहटाएं

कृपया विषय से सम्बन्धित टिप्पणी करें और सभ्याचरण बनाये रखें। प्रचार के उद्देश्य से की गयी या व्यापार सम्बन्धित टिप्पणियाँ स्वत: स्पैम में चली जाती हैं, जिनका उद्धार सम्भव नहीं। अग्रिम धन्यवाद।