रविवार, 28 अगस्त 2016

शमी...सूख गये, रह गये

छत के गमले का शमी सूख कर काँटा रह गया है, बाकी सभी पौधे हरे भरे फूले फुलाये बने हुये हैं। यह शमी उसी की संतान था जिसकी छाँव पिताजी प्रतिदिन बैठते थे और जहाँ मैंने भी अपने बुढ़ापे में बैठ कर ठहरे समय को सोखने की कल्पनायें की हैं।
गाँव दुआरे वाला शमी अभी भी है जिसकी निचली टहनियों को मैंने स्वयं पाँग दिया था, तेरही के दिन किसी को काँटे लग गये तो! जटिल कर्मकाण्डों को अबूझ पत्थर की तरह सम्पन्न करते मुझे बस अपना यही कार्य समझ में आया ... शमी आसानी से नहीं सूखते, उसे कुछ नहीं होगा... और यहाँ वाला सूख कर संतान के दुःख को साझा कर गया! इसके सान्निध्य में तो काफ्का का पिता के नाम पत्र भी मैंने उन्हें नहीं सुनाया था, फिर भी।    
पिताजी के देहावसान को आज 21 दिन हो गये हैं, मेरे भीतर बालकनी का वह समय वहीं का वहीं है जब साँझ को उनके बारे में बाते करते हुये ही मोबाइल पर समाचार मिला था। पीछे से माँ का रूदन और भैया का रूँधा स्वर – Guru ji is no more. चुपचाप मैंने मोबाइल ऑफ किया और चिंतित पत्नी को संकेत भर किया। वह फूट फूट कर रोने लगीं, मैंने द्वार बन्द कर दिया कि स्वर दीवारों में रूँध कर रह जाय या जाने क्यों ...
...बाहर रेलिंग के सहारे खड़े सूखी आँखों से मैंने देखा, संसार साथ साथ तपता और ठिठुरता बहुत बड़ा कैनवस हो गया है, अचानक... जिसके एक किनारे खड़ा मैं अकस्मात एक दशक बूढ़ा हो गया हूँ - घर का बड़ा सवाँगजिसे सबके दुःख को कन्धा देना है, जिसकी देह सबके आँसुओं से भीगनी है लेकिन जिसके स्वयं के भाग्य में कोई कन्धा नहीं, जिसकी आँखों की नमी को कोई धार नहीं! ...
... नहीं, उस समय ऐसा कुछ नहीं लगा था, सम्भवत: यह अनुभूति किसी अनंतर अवसादी क्षण द्वारा उस मेरु-प्रश्न के लिये प्रस्तुत एक असफल समाधान भर हो जिसका कोई आकार नहीं, जिसमें कोई शब्द नहीं, वाक्य नहीं, विन्यास नहीं... ओसारे के वे लगभग दस मिनट, कह सकता हूँ कि पुराणों के दस हजार वर्ष ...
...अब मैं किससे लड़ूँगा? कौन मुझसे सुलह करेगा और मनावन में किसकी गोद सिमट कर सोऊँगा? अंतिम वर्ष में तो मैंने वह भी छोड़ दिया था, वृद्ध देह का ढीलापन यातना से भर देता था...वह घुमा फिरा कर उपेक्षाकहते और मेरे प्रतिवाद पर हँस देते। मैं अपने भीतर का कैसे कहता? ...कह पाता भी
...चेन्नई से रात के विमान से दिल्ली, संतप्त पुत्री को सँभालना, प्रात:काल विमान से गोरखपुर, गोरखपुर से समय रहते गाँव। कई बार गला रूँधा, आँखें छलछलाईं, नम हुईं, बहीं भी लेकिन वह भीत अभी तक टूट कर नहीं बही है जिसके पीछे जाने कितने गुंजलक हैं, कुछ है जिसे कहना असम्भव है। असम्भवा पीर धँसी है, ऐसी कि निकल ही नहीं रही!...
...लोकाचार, भूखे प्यासे परिवारी जन। आकुल पुकारें कहाँ तक पहुँचे? दाहा हो जाये तो कुछ मिले, जीवित देह की आग को तो अन्न आहुति चाहिये न, जो मृत हुई उसे तो स्वयं आहुति होना है। राह में बारिश, अग्नि संस्कार कैसे होगा? ... यहाँ तो दिन खुला है, शीघ्र पहुँचो।
...रोती कलपती अम्मा तोहरे पिताजी के केहू नहीं बचावल ए बाबू! क्या कहूँ? कितने लोग रो रहे हैं उस भीत के पीछे, नहीं देख सकता। आँखें सूखी हैं.. चलु अम्मा, घर में चलु! ... अम्मा को भरपूर आलिंगन में लिये घर में खींच ले गया हूँ। श्रीमती जी जाने रो रही हैं या सांत्वना दे रही हैं। बाहर नहवावन का हल्ला, मेरे भीतर हाहाकार चुप रहो सब लोग, सूर्यास्त में अभी दो घण्टे शेष हैं।
...गंगा जल से मृत देह का स्नान। स्नान के समय प्रतिदिन पिताजी का गाता स्वर मन की भीत के पीछे चुप है:
नागेन्द्र हाराय त्रिलोचनाय, भस्मांगरागाय महेश्वराय।
नित्याय शुद्धाय दिगम्बराय, तस्मै '' काराय नमः शिवाय॥
...आड़ है, मृत देह दिगम्बर। मेरे मस्तक से स्वेद का प्रवाह है, आँखों में आँसू नहीं। धीर धरो, धीरे धीरे पोंछो, त्वचा छिल जायेगी... क्या धरा है इस धराशायी मिट्टी में? ... नहीं, देखो, कितनी शांति से सोये हैं जैसे समाधि में हों विकारहीन शांत मुख।
 गंगा जी! स्वेद मिली धार से किसे शुद्ध करेंगी? क्या कारूँ? क्या सकारूँ?? ...नागपंचमी के दिन ही उन्हें जाना था? अच्छे भले थे, छ: दिन पहले ही तो गया था। उस दिन की खीर के लिये तो स्वयं दूध बढ़ा कर देने के लिये कहने गये थे, पकवान बनवाये थे ... शिव ने उन्हें ही ग्रस लिया!
... मेरे जन्म के समय में उनके एक प्रिय शिष्य साथ थे – Guru ji! perhaps the time has come और उनके अवसान के समय दूसरे शिष्य भैया अब एकदम स्वस्थ हैं, सुनो न, हँसता हुआ स्वर। आज ही हॉस्पिटल से छुट्टी मिल जायेगी।
भावुक होंगे इसलिये उस समय बात नहीं किया और बस दो घड़ी बाद ही सुनने को मिला – Guru ji is no more...
...दो-तीन किलोमीटर के भीतरी घेरे में सूखा रहा, बाहर वर्षा होती रही। देह भस्म हुई लेकिन चिता वैसे ही दहक रही थी। वापस होते जन के सबसे पीछे अंतिम मैं। उल्टी कुल्हाड़ी से मैंने राह काटी और मूसलाधार वर्षा प्रारम्भ हो गई। गंगा स्नान, अग्नि स्नान और अंत में इन्द्रजल स्नान।
 यज्ञा यज्ञा ..अग्नये..गिरा गिरा..गच्छ... पर्जन्य बरसे किंतु अग्निदेव शांत नहीं हुये, तीसरे दिन भी अंगार यथावत रहे। लकड़ियों में हीर अधिक थी या कोई और बात थी

... पिताजी! दुआर के उदास शमी को क्या कहूँ? जो सूख गया है उसका क्या करूँ? काँटों से तो बच भी नहीं सकता। बहुत कुछ अधूरा रह गया, बहुत कुछ। अभेद्य भीत के पार कब और कैसे पहुँच पाऊँगा? अब तो आप पितर हैं, बतायेंगे न?   

9 टिप्‍पणियां:

  1. बाबूजी को सादर प्रणाम । आज निःशब्द हैं

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  2. _/|\_ श्रद्धांजलि! आंखें फिर भीगी हैं.

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  3. भाई गंगेश ने कुछ दिन पहले परिवार में किसी की मृत्यु का सन्देश दिया था... अचानक बाऊजी के विषय में सुनकर अवाक रह गया... सहसा आपका स्मरण हो आया!
    बिलकुल इन्हीं परिस्थिति में मैंने भी अपने पूज्य पिता को खोया था! मैं आज पुनः निःशब्द हूँ, मौन हूँ और सर झुकाये हूँ गुरूजी की स्मृतियों के समक्ष!
    कायस्थ हूँ, शमी पूज्य है हमारे लिए!
    मेरी संवेदनाएँ और श्रद्धाञ्जलि स्वीकारें!!

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  4. आपकी ब्लॉग पोस्ट को आज की ब्लॉग बुलेटिन प्रस्तुति मेजर ध्यानचन्द और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। सादर ... अभिनन्दन।।

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  5. विनम्र श्रद्धांजलि । धैर्य रखना ही पड़ता है ।

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  6. _/।\_
    मैं भी नहीं रोया था कई महीनों तक। उसके बाद किसी एक दिन हम माँ-बेटा रोये, बिना कुछ बोले।
    सहन करना होगा बंधु।

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