By Meinolf Wewel [CC BY 3.0 (https://creativecommons.org/licenses/by/3.0)], from Wikimedia Commons |
जमदग्नि एवं ऋग्वैदिक ऋचा 'य॒ज्ञाय॑ज्ञा वो अ॒ग्नये॑ गि॒रागि॑रा च॒ दक्ष॑से । प्रप्र॑ व॒यम॒मृतं॑ जा॒तवे॑दसं प्रि॒यं मि॒त्रं न शं॑सिषम् ॥' पर विचरते आगे बढ़ा तो उसी सूक्त में मुझसे एक खोई हुई कड़ी मिल गयी। शिशिर के पश्चात बसंत ऋतु आती है। शिशिर में पत्ते झड़ने आरम्भ होते हैं तो बसंत तक वृक्ष वसन वस्त्र हीन हो पुन: नये धारण करने लगते हैं, संक्रमण काल होता है नवरसा का। उस सूक्त की आठवीं ऋचा रोचक है:
विश्वा॑सां गृ॒हप॑तिर्वि॒शाम॑सि॒ त्वम॑ग्ने॒ मानु॑षीणाम् ।
श॒तं पू॒र्भिर्य॑विष्ठ पा॒ह्यंह॑सः समे॒द्धारं॑ श॒तं हिमा॑: स्तो॒तृभ्यो॒ ये च॒ दद॑ति ॥
शत शरद जीने के आशीर्वाद तो आप ने बहुत देखे होंगे। वर्षा के पश्चात शरद ऋतु आती है। वर्षा नवजीवन हेतु सृष्टि को समर्थ बनाती है किंतु उसके साथ बहुत कुछ अवांछित भी रहता है। उसका अंत देख एक और सुखदायी शरद देखने की कामना में उस आशीर्वाद का मूल है।
किंतु इस ऋचा में शतं हिमा की बात की गयी है। विद्वानों ने इसे शत हेमंत बताया है। हेमंत, हिम का अंत जिसके आगे कड़ाके की ठण्ड वाला शिशिर होता है।
हेमंत ऋतु वर्ष की सबसे 'स्वास्थ्यकर' ऋतु है। स्वभाव से ही क्षयी शरीर इस ऋतु में पुष्ट हो विस्तारी देह बनती है। जठराग्नि प्रदीप्त होती है त्वमग्ने मानुषीणां को शतं हिमा से मिला कर देखें तो इस आशीर्वाद में स्वस्थ जीवन बिताते हुये एक और पुष्टिकारक ऋतु तक जी लेने की कामना छिपी हुई है।
नवप्रवालोद्रमसस्यरम्यः प्रफुल्लोध्रः परिपक्वशालिः।
विलीनपद्म प्रपतत्तुषारोः हेमंतकालः समुपागता-यम्॥ (कालिदास, ऋतुसंहार)
ब्राह्मण ग्रंथों को देखें तो रोचक तथ्य दिखते हैं। शतपथ में वर्षा एवं शरद को मिला कर पाँच ऋतुओं की बात की गयी है:
ऐतरेय ब्राह्मण में हेमंत एवं शिशिर को मिला दिया गया है: हेमन्तशिशिरयो: समासेन तावान्संवत्सर: संवत्सर: प्रजापति: प्रजापत्यायतनाभिरेवाभी राध्नोति य एवं वेद। आजकल के आधे कार्त्तिक से आधे फाल्गुन तक के इस कालखण्ड में माघ महीना पड़ता है जो कभी संवत्सर का आरम्भ मास था, वही शीत अयनांत वाली उत्तरायण अवधि जिसे अब लोग संक्रांति के रूप में मनाते हैं। पुन: ऐतरेय ब्राह्मण वाला अंश पढ़ें तो! ... शेष पुन: कभी। कहने का तात्पर्य यह है कि हमारी मान्यताओं में जाने कितनी सहस्राब्दियों के अवशेष छिपे हुये हैं। डूबने की आवश्यकता है।
लोको॑वसन्त॑ऋतुर्य॑दूर्ध्व॑मस्मा॑ल्लोका॑दर्वाची॑नमन्त॑रिक्षात्त॑द्द्विती॑यम॑हस्त॑द्वस्याग्रीष्म॑ऋतु॑रन्त॑रिक्षमेवा॒स्य मध्यमम॑हरन्त॑रिक्षमस्य वर्षाशर॑दावृतू य॑दूर्ध्व॑म्न्त॑रिक्षादर्वाची॑नं दिवस्त॑च्चतुर्थम॑हस्त॑द्वस्य हेमन्त॑ऋतुर्द्यउ॑रेवा॒स्य पञ्चमम॑हर्द्यउ॑रस्य शि॑शिर ऋतुरि॑त्यधिदेवतम्।
शतपथ के पुरुषमेध का प्रारम्भ पाँव से होता है और पाँव है ऋतुओं में सर्वश्रेष्ठ बसंत! शतपथ का वर्षा और शरद को मिलाना उस ऋग्वैदिक कूट कथ्य से भी जुड़ता है जिसमें इन्द्र वृत्र को मार कर सूर्य और वर्षा दोनों को नया जीवन देते हैं। पुरुषमेध में यह देह का केन्द्रीय भाग अर्थात कटि है।
ऐसा क्यों? इसमें उस समय की स्मृति है जब वर्ष का आरम्भ वर्षा से था। शरद मिला देने पर शरद विषुव जोकि वसंत विषुव से छ: महीने के अंतर पर पड़ता है, वर्षा के साथ आ जाता है, नाक्षत्रिक एवं ऋत्विक प्रेक्षणों के सम्मिलन से सुविधा हो जाती है। ऐतरेय ब्राह्मण में हेमंत एवं शिशिर को मिला दिया गया है: हेमन्तशिशिरयो: समासेन तावान्संवत्सर: संवत्सर: प्रजापति: प्रजापत्यायतनाभिरेवाभी राध्नोति य एवं वेद। आजकल के आधे कार्त्तिक से आधे फाल्गुन तक के इस कालखण्ड में माघ महीना पड़ता है जो कभी संवत्सर का आरम्भ मास था, वही शीत अयनांत वाली उत्तरायण अवधि जिसे अब लोग संक्रांति के रूप में मनाते हैं। पुन: ऐतरेय ब्राह्मण वाला अंश पढ़ें तो! ... शेष पुन: कभी। कहने का तात्पर्य यह है कि हमारी मान्यताओं में जाने कितनी सहस्राब्दियों के अवशेष छिपे हुये हैं। डूबने की आवश्यकता है।
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