भारत में पञ्चाङ्गों की बड़ी समृद्ध परम्परा रही। एक साथ सौर एवं सौर-चंद्र तथा शीत अयनान्त एवं बसन्त विषुव के साथ आरम्भ होने वाले पञ्चाङ्ग प्रचलित रहे। जन सामान्य में चंद्र आधारित महीने यथा चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ इत्यादि ही प्रचलित रहे जोकि पूर्णिमा के दिन चंद्रमा की नक्षत्र विशेष के साथ संगति पर आधारित थे, यथा चैत्र में चित्रा पर, वैशाख में विशाखा पर। चंद्र की घटती बढ़ती कलाओं से बीतते दिनों की गिनती में सुविधा रहती थी।
सौर आधारित महीने मधु, माधव इत्यादि मुख्यत: श्रौत सत्र आधारित गतिविधियों में प्रचलित रहे जिनकी चंद्र आधारित महीनों से संगति जन सामान्य में भी प्रचलित थी यथा चैत्र का महीना मधु है। तुलसीदास ने लिखा - नवमी तिथि मधुमास।
ग्रेगरी का प्रचलित कैलेण्डर सौर गति आधारित है जिसका चंद्र कलाओं से कोई सम्बंध नहीं। आप के यहाँ जो अब संक्रांतियाँ मनाई जाती हैं, वे भी सूर्य गति से सम्बंधित हैं जिनका चंद्र कलाओं से कोई सम्बंध नहीं। इस कारण ही मकर संक्रांति प्रति वर्ष 14/15 जनवरी को ही पड़ती है तथा मेष संक्रांति 13/14 अप्रैल को।
मेषादि राशिमाला का प्रथम बिंदु होने से यह सौर नव वर्ष होता है जिसे सतुवानि के रूप में भोजपुरी क्षेत्र में मनाया जाता है तो तमिलनाडु में नववर्ष के रूप में। पञ्जाब में बैसाखी के रूप में मनाया जाता है।
रबी की सस्य के अन्न से जुड़े इस पर्व में जौ, चना इत्यादि का सत्तू ग्रहण करने का पूरब में प्रचलन है।
अब आप पूछेंगे कि तब युगादि वर्ष प्रतिपदा क्या थी? नाम से ही स्पष्ट है - चंद्र मास का पहला दिन अर्थात वह नववर्ष चंद्र-सौर पञ्चांग से है। दोनों में क्या समानता है या दोनों कैसे सम्बंधित हैं?
उत्तर है कि दोनों वसंत विषुव के दिन के निकट हैं जब कि सूर्य ठीक पूरब में उग कर ठीक पश्चिम में अस्त होते हैं। यह 20 मार्च को पड़ता है, उसके निकट की पूर्णिमा को चंद्र चित्रा पर होते हैं तो चैत्र शुक्ल प्रतिपदा चंद्र-पञ्जाङ्ग से नववर्ष होती है।
20/21 मार्च से 13/14 अप्रैल के बीच ~ 24 दिनों का अंतर है तो शीत अयनांत 21/22 दिसम्बर से 14/15 जनवरी के बीच भी इतने ही दिनों का। ऐसा क्यों है?
वास्तव में हमलोग उत्तरायण मनाते थे, उसे सूर्य के अधिकतम दक्षिणी झुकाव से उत्तर के दिन से मानने का प्रचलन था तो वासंती विषुव के सम दिन से उत्तर की ओर बढ़ने का दिनांक भी महत्त्वपूर्ण था।
जब 27 नक्षत्र आधारित गणना पद्धति में 12 राशि आधारित गणना पद्धति का प्रवेश हुआ तो उस समय मकर संक्रांति एवं मेष संक्रांतियाँ क्रमश: शीत अयनांत 21/22 दिसम्बर एवं वसंत विषुव 20/21 मार्च की सम्पाती थीं अर्थात सम्बंधित संक्रांति, अयन, विषुव एक ही दिन पड़ते थे।
12 राशियों में सूर्य की आभासी गति का प्रेक्षण 27 की अपेक्षा सरल था जिसे तत्कालीन ज्योतिषियों ने बढ़ावा भी दिया। सदियों में लोकस्मृति में संक्रांतियाँ ही रह गयीं, उत्तरायण को लोग उनसे ही जानते लगे किंतु धरती की धुरी की एक विशिष्ट गति के कारण सम्पात क्रमश: हटता जा रहा है। अब अंतर ~24 दिनों का हो गया है जो आगे बढ़ता ही जायेगा।
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गणित हो गया, अब प्रेक्षण।
कल सतुवान के दिन प्रात: साढ़े चार बजे उठ कर पूर्व उत्तर दिशा में देखें। तीन चमकते तारे दिखेंगे - सबसे ऊपर अभिजित, नीचे हंस एवं गरुड़ नक्षत्र मण्डल के सबसे चमकीले तारे। इन तीनों को मिला कर जो त्रिभुज बनता है उसे 'ग्रीष्म त्रिभुज' कहते हैं। अप्रैल आधा बीत गया। मई जून की झुलसाती धूप तो आने वाली है न, बैसाख जेठ की तपन के पश्चात आषाढ़ सावन भादो की झड़ी भी आयेगी।
वर्ष को वर्षा से ही नाम मिला। किसी विश्वामित्र के पत्रे में 21 जून से नववर्ष मिल जाय तो आश्चर्य चकित न हों, उस दिन ग्रीष्म अयनांत होता है, सूर्य देव अधिकतम उत्तरी झुकाव से दक्षिण की यात्रा आरम्भ करते हैं अर्थात घनघोर बरसते पर्जन्य की भूमिका। मानसून कब प्रबल होता है?
वर्षा न हो तो धरा कैसे तृप्त हो? स्थावर जङ्गम को जीवन कैसे मिले? हरियाली कैसे हो?
21 जून से नववर्ष मनाने की तुक तो है ही, देखें तो उसके निकट कौन सी संक्रांति है? कहीं मनायी जाती है क्या?
ज्ञान की बातें..
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