रविवार, 30 सितंबर 2018

ऋग्वेद मण्डल गोत्रानुसार अध्ययन क्रम, सप्तर्षि, सप्तछन्द, सप्तसिन्धु : एक अनुमान

ऋग्वेद 10 मण्डलों में विभाजित है जिसमें 2 से ले कर 8 तक विशिष्ट ऋषिकुलों के मुख्यतया अपने सूक्त हैं, नवाँ सोम पवमान को समर्पित है एवं पहले तथा अंतिम दसवें मण्डलों में विविध ऋषि मंत्र हैं।
- अध्ययन गोत्र अनुसार करें। जो नाम दिये हैं वे मुख्य हैं। आप को आश्चर्य नहीं होना चाहिये कि दो से ले कर आठ तक सात ऋषि हो जाते हैं - सप्तर्षि। यह प्राचीनतम बीज रहा होगा ।
- ऋग्वेद में प्रयुक्त मुख्य छंद भी सात ही हैं - गायत्री, उष्णिक्, अनुष्‍टुभ, बृहती, पङ्क्ति, त्रिष्टुभ, जगती जिनमें 4 की समान्तर श्रेणी से क्रमश: 24, 28, 32, 36, 40, 44 एवं 48 पूर्ण वर्ण होते हैं।
देखें तो इन्हें 4 x (6, 7, 8, 9, 10, 11, 12) की भाँति भी लिखा जा सकता है। मात्रा तो आप सब जानते ही होंगे, छ्न्दों को अंग्रेजी में meter कहा जाता है। आप को आश्चर्य होगा कि इन का प्रयोग मापन हेतु भी होता था । छ: ऋतुयें हों या बारह मास, चार के गुणक से संवत्सर मापन की दो सीमायें निर्धारित हैं। दिनों की गणना हो या चंद्र आधारित तिथियों की, उनकी संख्या को छन्दों की वर्ण संख्या से भी अभिव्यक्त किया जाता था।
छन्‍द वह छाजन थे जिनमें देवता शरण पाते थे। यह प्राचीन पद्धति एवं भाषा आधुनिक जन को कूटमय इस कारण लगते हैं कि अब प्रयोग में नहीं रहे।
- सप्तसिन्धु या सात नदियाँ जानते ही हैं।
मेरा अनुमान है कि त्रि षप्ता: का - सम्बंध सात ऋषियों, सात छंदों एवं सात नदियों से अवश्य रहा होगा।
...
आगे जो कहने जा रहा हूँ उसका कोई शास्त्रीय आधार नहीं है, अनुमान मात्र है। मण्डल का एक अर्थ वृत्त होता है एवं यह शब्द भारतीय विद्याओं का एक बहुत ही प्रिय शब्द रहा है।
दिये गये चित्र में वृत्त की परिधि पर दस मण्डलों में से सात के ऋषिकुलों के नाम हैं। ऋग्वेद पढ़ते समय आरम्भ नवें से करें (सोम पवमान)।

नौ का अङ्क सबसे बड़ी एकल संख्या होने के साथ साथ गुणा का एक अद्भुत गुण लिये हुये है कि परिणाम के अंकों का योग भी 9 ही होता है।
सोम पवमान से अपने गोत्र (जिनके नहीं मिलते हों वे भी इन मूल गोत्रों से अपने गोत्र के सम्बंध जान सकते हैं) वाले मण्डल पर पहुँचें तथा दक्षिणावर्त दिशा में पढ़ते हुये आगे बढ़ें। अपने गोत्र से पूर्व वाले गोत्र के पश्चात पुन: वृत्त के केन्द्र से होते हुये उस मण्डल तक पहुँचें जो सबसे बायें हो वहाँ से दक्षिणावर्त घूमते हुये इस प्रकार अन्त करें कि अन्तिम दसवाँ मण्डल सबसे अंत में पढ़ा जाय एवं उससे ठीक पहले पहला।
उदाहरण हेतु यदि आप का गोत्र वसिष्ठ (सातवाँ मण्डल) या उनसे उद्भूत कोई अन्य गोत्र है तो आप का क्रम होगा :
9
7, 8
2, 3, 4, 5, 6
1, 10

यदि आप का गोत्र वामदेव गौतम (चौथा मण्डल) या उनसे उद्भूत कोई अन्य गोत्र है है तो क्रम होगा :
9
4, 5, 6, 7, 8
2, 3
1, 10
...
[दुहरा दूँ कि इसका शास्त्रीय आधार नहीं है, मुझे तो नहीं मिला, यदि है तो इसे सुखद संयोग मानूँगा। हाँ, सम्‍भवत: परम्परा में सोम पवमान से ही अध्ययन आरम्भ का विधान है जिसकी पुष्टि कोई ऋग्वेदीय आचार्य ही कर पायेंगे।]
ऋग्वेद की गढ़न मुझे चमत्कृत करती रही है, अनेक परिकल्पनायें मेरे मन में हैं, चलती रहती हैं, जिनमें से एक यह है।]

शनिवार, 22 सितंबर 2018

मित्र, दोस्त, विभाषा, तितली के पर एवं हिन्‍दी का नाश


कल यात्रा में था । आजकल लोग यात्रा में सहयात्रियों से बातें नहीं करते परन्तु मैंने अपने पार्श्व के सज्जन से वार्त्तालाप आरम्भ किया जो कि चार घण्टे चलता रहा। वे मुझसे पिछली पीढ़ी के थे, ताम्ब्रम अर्थात तमिळ ब्राह्मण थे - हिन्दी, संस्कृत एवं तमिळ, तीनों में निष्णात । Chartered Accountant थे, दिल्ली जा रहे थे। एक बात जो यहाँ सामान्यत: ही दिख जाती है, ब्राह्मण बहुत ही सुसंस्कृत होते हैं, बातचीत एवं व्यवहार में सभ्यता सहज ही परिलक्षित होती है। ये सज्जन प्राच्य विद्या एवं पाश्चात्य तकनीकी के संयोग से जीवनयापन के समर्थक थे, DOS, Foxpro, DBase, VB, C++ इन सबमें काम कर चुके थे एवं प्रशिक्षक भी रहे।
बात संस्कृत पर जानी ही थी, मुझे नया कुछ तो नहीं मिला किन्‍तु प्रेक्षणजनित निज निष्कर्षों की पुष्टि हुई। उनका उत्साह देखते सुनते ही बनता था !
हमने लैपटॉप पर देखते हुये संस्कृत, वैदिक एवं तमिळ की यूनिकोड फॉण्ट व्यवस्थाओं पर भी बातें की। 

उनकी पीड़ा मुखरित थी कि किस प्रकार तमिळ को पिछ्ले ५० वर्षों में सायास संस्कृत से मुक्त कर दिया गया। उन्हों ने बताया कि सारिणी में जो रिक्त स्थान दिख रहे हैं, वे वस्तुत: उन अक्षरों के लिये हैं जो प्रत्येक वर्ग के बीच के तीन वर्णों के तमिळ में अभाव की पूर्ति हेतु रखे गये हैं, जिनका कि प्रस्ताव यूनिकोड संस्था को भेजा जा चुका है किन्‍तु कथित तमिळ राष्ट्रवादियों ने entry of Sanskrit from backdoor बता कर आपत्तियाँ लगाई हुई हैं एवं काम लम्बित है।
उन्हों ने उसकी पुष्टि की जो मैं कहता रहा हूँ - हिन्‍दी को संस्कृतनिष्ठ बनाये रखें तो शेष भारत के समस्त भाषा भाषी उसे अधिक समझेंगे एवं उत्साह से अपनायेंगे। उनका कहना था कि तमिळनाडु से बाहर होने पर उन्हें उत्तर या पश्चिम भारत की भाषाओं को समझने में कोई समस्या नहीं होती क्योंकि संस्कृत के कारण वह जोड़ कर समझ लेते हैं।
भाषिक क्षेत्र में माँग एवं आपूर्ति में इतना बड़ा अंतर स्यात ही मिले! दक्षिण भारतीय संस्कृतनिष्ठ हिंदी हेतु तड़प रहे हैं जब कि हिंदी जन उसे अरबी फारसी की रखैल बनाने में लगे हुये हैं !
(मुझे ज्ञात है कि इसे पढ़ कर आप के मन में 'भाषा बहता नीर', आधुनिक काल की सबसे अल्प समझी गयी एवं हिंदी के पतित काहिलों द्वारा सर्वाधिक दु:प्रयुक्त उक्ति आ रही होगी किन्‍तु मेरी बात बहुत ही सीधी है, मैं नदी नहीं, जीभ से बहती नाली की बात कर रहा हूँ।)
उनसे अन्य अनेक विषयों पर चर्चा हुई जिनकी परास बड़ी है। यह भी बता दूँ कि उन्हें तमिळ भाषा पर गर्व था एवं वह उसके 'पतन' से व्यथित थे।
आज प्रात:काल (तमिळ में आज भी प्रात या प्रातकालै या कालै, मध्याह्न एवं सायं प्रचलित हैं, साधारण जन बोलते हैं, हिन्‍दी पट्टी में कोई बोलता मिल जाय तो मेरे लिये आठवाँ आश्चर्य होगा) जब मैं संस्कृत पाठों हेतु यूट्यूब पर गया तो यह सुन कर व्यथित हुआ कि सभी 'दोस्तो' सम्बोधन का प्रयोग कर रहे थे न कि 'मित्रो' का।
दोस्त पा(फा)रसी मूल का शब्द है जिसका वास्तविक रूप दूस्त है । मेरा ध्यान ऐंवे दोस्त से गोश्त एवं दूस्त से दुष्ट पर चला जाता है। विचार करें कि जब आप 'मित्र' कहते हैं तो ऋग्वैदिक मित्र-वरुण, सूर्य, मैत्री से जुड़ते हैं एवं मंत्र, मंत्रणा जैसे समान वर्ण वाले शब्द भी आप के अंतर्मन में कहीं न कहीं उमड़ते हैं ।
विभाषा के शब्द अपने 'यार' शब्दों को आकर्षित करते हैं दोस्त कहेंगे तो 'जिगरी' आयेगा ही, परंतु मित्र कहेंगे तो 'परम' एवं 'घनिष्ठ' शब्द ही उसके साथ भाषित होंगे। भाषायें ऐसे ही बिगड़ती हैं, प्रदूषित हो जाती हैं। इसे भिन्न प्रकार का अनुनादी प्रभाव भी कह सकते हैं तथा String Theory की इस व्युत्पत्ति से भी जोड़ सकते हैं कि एक तितली यदि पर फड़फड़ाती है तो उससे सुदूर कहीं कोई अट्टालिका भी ध्वस्त हो सकती है ।
दैनिक जीवन की बातचीत से अरबी फारसी शब्दों के प्रयोग क्रमश:, सायास, हटायें, फड़फड़ाहटें हिन्‍दी को ध्वस्त कर रही हैं।