बुधवार, 13 फ़रवरी 2019

भार्गव वाल्मीकि एवं जातीय गतिशीलता

जातीय गतिशीलता को नहीं समझने से, काल की बृहद परास में घटित की विस्मृति से या उपेक्षा करने से आज कल की बहुत सी समस्यायें उत्पन्न हुई हैं। भारत तोड़क प्रचार तंत्र की भी इसमें बहुत बड़ी भूमिका है।
भार्गव कुल एवं संततियाँ नवोन्मेष हेतु जानी जाती हैं। पनही, छाता, आँवा में पकाये मृद्भाण्ड, परशु आदि कुछ ऐसे क्रांतिकारी नवोन्मेष हैं जिनका उन्हें श्रेय है। महाभारत में कुम्भकार का कर्मस्थल 'भार्गवकर्मशाला' कहा गया है। 
गत्वा तु तां भार्गवकर्मशालां; पार्थौ पृथां प्राप्य महानुभावौ।
तां याज्ञसेनीं परमप्रतीतौ; भिक्षेत्यथावेदयतां नराग्र्यौ॥
[महाभारत (बड़ौदा संस्करण), ०१.१८२.००१]
भार्गवों ने ही स्मृति, पुराण, आख्यान आदि का पुनर्सम्पादन किया, लुप्तप्राय को पुनर्जीवित किया। वाल्मीकि भी भार्गव थे। यदि अतिप्राचीन एकत्त्व से कोई वर्ग आज कहता है कि वाल्मीकि 'वाल्मीकि समाज' से थे तो उसे आज के परिप्रेक्ष्य में नहीं, सहस्राब्दियों पूर्व के एकत्त्व से समझा जाना चाहिये। क्या यह सम्भव नहीं कि कुछ भार्गवों ने शिल्प व्यवसाय चुना हो तथा उसी में रह गये हों? गोत्र की अवधारणा को ही देखिये, क्या सभी समान गोत्र वाले एक ही पुरुष की संतान हैं या एकसमान गुरु, शिक्षा एवं दीक्षा परम्परा के कारण एक गोत्र के कहलाते हैं?
विविधता एवं विविध घटित की उपेक्षा कर अपेक्षतया नये रूपों की संकीर्णता में देखेंगे तो सामाजिक विघटन ही होगा, संगठन नहीं। सनातन शत्रु यही चाहते हैं। कोई आवश्यक नहीं कि सदैव प्रतिक्रिया दी ही जाय, मौन का अपना महत्त्व है। अध्ययन की परास लम्बी अवश्य होनी चाहिये जिससे कि समझ विकसित हो सके।

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