कल २१ जून को ग्रीष्म अयनांत है अर्थात शीत अयनांत के दिन से उत्तरायण होते सूर्य कल अपनी उत्तरी यात्रा के चरम पर होंगे। उत्तरी गोलार्द्ध में सबसे बड़ी अवधि का दिन होगा। इस दिन भारत के मध्य से जाती कर्क रेखा पर सूर्य लम्बवत होंगे। प्रेक्षण आधारित ज्योतिष हेतु ये समय एवं स्थान बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। आश्चर्य नहीं कि पुरातन काल से ही उज्जैन, ऐरण आदि स्थानों पर प्रेक्षण मंदिर एवं निर्माण रहे जिन्हें मुसलमान आक्रमणकारियों ने ध्वस्त कर दिया।
कर्क रेखा का यह नाम ही क्यों है? जिस समय इस रेखा का नामकरण किया गया, उस समय आज के दिन सूर्य कर्क राशि में होते थे। आज पश्चाभिगन के कारण इस समय वृष राशि में होते हैं एवं अगले ही दिन मिथुन राशि में प्रवेश कर जाते हैं। मैं पश्चिमी फलित ज्योतिष वाले राशि की बात नहीं कर रहा, आकाश में प्रेक्षणीय तारकसमूहों की बात कर रहा हूँ जो तुलनात्मक रूप से स्थिर माने जा सकते हैं। अर्थात किसी निश्चित दिनांक को सूर्य की स्थिर राशियों के सापेक्ष स्थिति कालक्रम में परिवर्तित होती रहती है। इस प्रकार किसी निश्चित अयन सापेक्ष (सायण) दिनांक को सूर्य की विविध राशियों में 'गति' का आवर्ती काल आज कल २५७७२ वर्ष पाया गया है। किसी निश्चित दिन को सूर्य जिस स्थिति में होता है उसी पर पुन: पहुँचने में इतने वर्ष लगते हैं अर्थात एक राशि से दूसरी राशि तक जाने में २५७७२/१२ = २१४७ वर्ष लगते हैं। कर्क से मिथुन तक एक राशि का अंतर है अर्थात कर्क रेखा का यह नाम आज से लगभग दो हजार वर्ष पूर्व रखा गया था।
भारत में प्रेक्षण ज्योतिष का इतिहास बहुत पुराना है तथा ऋग्वेद में आज से नौ हजार वर्ष पूर्व के प्रेक्षण भी मिलते हैं। ऋग्वेद का जो पाठ आज मिलता है, वह इतना प्राचीन होते हुये भी अपना प्राचीनतम रूप नहीं लिये हुये है। बीच के मण्डलों में उस प्राचीनता के संकेत मिलते हैं तथा अन्य मण्डलों में 'पूर्वे', 'पूर्व' आदि शब्द उस प्राचीनता के संकेतक हैं जिसके बारे में पुराण कहते हैं कि वेद लुप्त हुये, भगवान ने उद्धार किया। अस्तु।
एक बात स्पष्ट हो जानी चाहिये कि जहाँ भी कर्क रेखा नाम मिले, वह अंश दो हजार वर्ष से पुराना नहीं हो सकता। ऐसे तथ्यों को काल निर्धारण में आंतरिक प्रमाण कहा जाता है।
प्राचीनतम उपलब्ध ज्योतिष ग्रंथ वेदांग ज्योतिष के आज से लगभग तीन हजार तीन सौ वर्ष पुराने होने के आंतरिक प्रमाण हैं।
ग्रीष्म अयनांत से शीत अयनांत तक छ: महीने की अवधि होती है। शीत अयनांत वही है जिसे आज उत्तरायण संक्रांति से मनाया जाता है। किसी समय शीत अयनांत एवं मकर संक्रांति सम्पाती थे, आज नहीं हैं।
वेदांग से सैद्धांतिक ज्योतिष पर आते समय शीत अयनांत का वैदिक महाव्रत संक्रांति संक्रमित हो गया। शीत अयनांत जहाँ ज्योतिष विद्वानों हेतु नववर्ष होता, वहीं वसंत विषुव जब कि वसंत ऋतु में सम पर दिन रात समान अवधि के होते, ऋतु सुखद होती, जनसामान्य का नववर्ष होता। चंद्रआधारित मास नाम से समन्वय होने पर इसे वर्ष प्रतिपदा, गुड़ी पड़वा, युगादि नामों से मनाया जाता है।
शीत अयनांत से कल के ग्रीष्म अयनांत तक की अवधि गवां अयन कहलाती थी। अयन का अर्थ गति है, यथा रामायण राम की अयोध्या से लंका एवं लंका से पुन: अयोध्या तक की गति है। शीत अयनांत से छ: महीने की दूरतम झुकाव तक अर्थात पुनरावर्तन के बिंदु ग्रीष्म अयनान्त को विषुवंत कहा जाता था। विषुव एवं विषुवंत में अंतर है।
प्रश्न यह उठता है कि क्या दो विषुव एवं दो अयनांत, इन चारो बिंदुओं से नववर्ष आरम्भ होते थे? उत्तर सकारात्मक है। ग्रीष्म अयनांत से ही वर्षा का आरम्भ ब्रह्मावर्त में होता। अत: एक वर्ष वर्षा से भी आरम्भ होता था। वर्ष नाम से वर्षा को मिला कर देखें। उस प्राचीनतम वर्ष को हम भुला चुके हैं।
बच गया सितम्बर का विषुव, शरद विषुव। क्या उससे भी नववर्ष आरम्भ होता था? यहीं वे विश्वामित्र ध्यान में आते हैं जिन्होंने समांतर विश्व 'रच' दिया था। रचना को बनाने से न समझ एक नयी व्यवस्था के चलन से समझें। इस बात के उल्लेख मिलते हैं कि विश्वामित्र से श्रावण नक्षत्र से नववर्ष बताया। यदि इस पर शोध हो कि शरद विषुव कब श्रावण नक्षत्र पर था तो इस बात के काल पर किसी परिणाम पर पहुँचा जा सकता है। आजकल २३ सितम्बर के शरद विषुव पर सूर्य उत्तरा फाल्गुनी पर हैं। उत्तरा फाल्गुनी से श्रावण दस नक्षत्र की दूरी पर है अर्थात यह बात २५७७२/२७ x १० = ९५४५ वर्ष पुरानी बैठती है। सम्भव है कि उस समय अभिजित को ले कर २७ के स्थान पर २८ नक्षत्र रहे हों, ऐसी स्थिति में अभिजित की स्थिति महत्त्वपूर्ण होगी तथा यह समय १०१२४ वर्ष पूर्व तक हो सकता है, यह इस पर निर्भर है कि अभिजित को श्रावण से पूर्व मानते हैं या नहीं। इसकी संगति ऊपर ऋग्वेद के बारे में बताये गये से भी बैठती है। महाभारत में अभिजित के पतन की कथा है, उस पर पुन: कभी। यह सदैव ध्यान रखें कि पोषण सबसे महत्त्वपूर्ण है तथा कोई भी नववर्ष आरम्भ कृषि चक्र के किसी महत्त्वपूर्ण बिंदु से ही जुड़ा होगा। वर्षा का कृषि हेतु महत्त्व बताना होगा क्या?
नववर्ष के पूर्व दिवस पर शुभकामनायें। प्यासी धरा पर्जन्य को जोह रही है। वर्षा हेतु कल सामूहिक प्रार्थना करें। भूजल का दोहन नियंत्रित करें तथा उसकी पूर्ति हेतु उपाय करें।
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यस्यां पूर्वे भूतकृत ऋषयो
गा उदानृचुः ।
सप्त सत्त्रेण वेधसो यज्ञेन
तपसा सह ॥
सा न: पशून् विश्वरूपां
दधातु दीर्घमायुः सविता कृणोतु ।
यस्यामन्नं व्रीहियवौ
यत्रेमा: पञ्च कृष्टयः ।
भूम्यै पर्जन्यपत्न्यै
नमोस्तु वर्षमेदसे ॥
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(अथर्ववेद पैप्पलाद शाखा, १७.४.११-१२)
सुंदर चित्रों से सुसज्जित शोधपरक पोस्ट
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