जुरासिक पार्क फिल्म में लुप्त डाइनासॉरों को पुनर्जीवित करने के उद्योग में खण्डित गुणसूत्र ही मिल पाते हैं। जो अंश नहीं मिलते, उनके स्थान पर मेढक के सूत्र जोड़ कर लड़ी पूरी की जाती है और डाइनासॉर पुन: रचे जाते हैं। पुराण परम्परा के साथ भी यही हुआ। शताब्दियों के अंतर पर स्थित विविध सत्त्रों में लुप्तप्राय परम्परा को कथा कहानियों से जोड़ पुन: पुन: जीवित किया गया। कालान्तर में आई जातिवादी प्रवृत्ति ने इसमें अपने दुराग्रह भी जोड़ दिये। सूत लो(रो)महर्षण का अंत प्रकरण भी वही है।
अब उपलब्ध 'हरिवंश पुराण' व्यास परम्परा का ग्रंथ है किंतु द्वैपायन व्यास द्वारा रचा हुआ नहीं है। जनमेजय के आग्रह पर वैशम्पायन ने वृष्णिवंशियों का पुराण सुनाया। इतिहास पहले से उपलब्ध था, उसे पौराणिक रूप वैशम्पायन द्वारा दिया गया।
सूत शब्द के विविध अर्थ हैं - जन्मा, प्राप्त किया हुआ, जन्म दिया हुआ, उत्पन्न, विमुञ्चित, नियोजित। इतिहास का गायन परम्परा से ही घुमन्तू चारण वर्ग किया करता था। चारण शब्द भी बहुअर्थी है। एक अर्थ है जो चारो वेदों में प्रवीण हो, एक चरैवेति चरैवेति से जुड़ा हुआ है। वह दीक्षित शिक्षित वर्ग जो परम्परा द्वारा ही इतिहास गायन हेतु नियुक्त किया गया था, सूत कहलाता था।
शस्त्र व शास्त्र परम्परा से ही रथ आदि का जो शिल्पी वर्ग विमुञ्चित हुआ, नियुक्त हुआ वह सूत सारथी कहलाया।
सूत शब्द एक प्रकार के प्रतिलोमज हेतु भी प्रयुक्त होता था - क्षत्रिय पिता व ब्राह्मण माता की संतान। कौटल्य तक इस वर्ग की पौराणिक सूत से भिन्नता ज्ञात थी किंतु जातिवादी आग्रहों के कारण भेद को तनु करने का प्रयास आरम्भ हो गया था। अर्थशास्त्र में कौटल्य को बताना पड़ा - पौराणिकस्त्वान्यो सूतो।
सूत लोमहर्षण सबसे प्रसिद्ध थे क्योंकि उनकी कथा गायन की शैली इतनी प्रभावी थी कि श्रोताओं के रोंये खड़े हो जाते थे। मूल लुप्त हुआ किंतु सूतों ने अपना काम जारी रखा। परिणाम यह हुआ कि बहुत लम्बे अंतराल के पश्चात जब पुराणों व इतिहास को पुन: संयोजित करने की आवश्यकता पड़ी तो विद्वत् परिषद को उन्हीं सूतों के चरणों में बैठना पड़ा। ऐसा अनेक बार हुआ जिसके स्पष्ट अंत:प्रमाण पुराणों में ही मिलते हैं। धीरे धीरे सूतों के स्थान पर छंद सुव्यवस्थित व संस्कृत कथ्य प्रभावी होता चला गया। कालक्रम में सूत चारण लुप्त हुये। पौराणिकों द्वारा मेढक के सूत्रों की भाँति जोड़े गये जातिवादी सूत्र मुख्य कथ्य हो गये।
भागवती व आधुनिक चूना कली सम्प्रदाय द्वारा औचित्य स्थापन के चक्र में उलझे गल्प गढ़े गये।अर्थशास्त्र तो जाने कब से लुप्त था, उसके स्थान पर कामंदकीय सार पढ़ाया जाता था। जब मूल ही बिला गया था तो सूत सूत में भेद जैसी सूक्ष्म बात की स्मृति कैसे रहती?
एक वर्ग को यह सदैव खटकता था कि नीच सूतों से कैसे शिक्षा ली जा सकती है! सूत परम्परा तो भुला ही दी गयी थी, भागवती भक्ति उत्साहवश पुराण में जोड़ कर सूतों के मुख से कहलाया गया कि भगवच्चरित्र की महिमा है कि हम नीच उत्पन्न भी ऋषि मुनियों को कथा सुनाने के अधिकारी बन गये! अरे बंधु! वे नीच थे ही कब?
सिद्ध होता है कि यह अंश तब जोड़ा गया जब कौटलीय अर्थशास्त्र ही नहीं, उसकी स्मृति तक विलुप्त हो चुकी थी अर्थात बहुत ही नया है।
इसी क्रम में मदोन्मत्त बलराम द्वारा लोमहर्षण का वध दर्शाया गया। आजकल चूना कली करते हुये चाहे जो लिखा या बताया जाय, वास्तविकता यह है कि लोमहर्षण का वध कथा सुनाते समय इस कारण हुआ बताया गया कि नीच जाति के हो कर श्रेष्ठ ब्राह्मणों को कथा सुनाने का दुस्साहस कैसे किया! वैष्णव भक्तों को यह खटकता रहा है तो उस पर चूना कली लगाया जाता है कि ऋषियों का अनादर देख कि व्यासपीठ पर ऊँचे बैठ नीच उन्हें कथा सुनाता है! ऐसा सोच बलराम ने उन्हें मारा। बलराम को व्यासपीठ की महिमा ज्ञात ही नहीं थी! अरे भई, जिन्हें अवतार बताते नहीं थकते, वे इतने अज्ञानी थे! वास्तविकता यह है कि व्यासपीठ की अवधारणा बहुत परवर्ती है, बलराम के समय इसके होने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता!
इतिहास, नाराशंसी व पुराण कथायें वैदिक यज्ञों तथा सत्रों में मुख्य कर्मकाण्डों से विराम के समय सुनने सुनाने का प्रचलन था। उनके लुप्त होने के उपरांत जो निर्वात हुआ, उसे व्यासपीठ की रचना द्वारा भरा गया और ऐसा होने के बीच में शताब्दियों का सङ्क्रमण काल रहा। यही सच है। शुकदेव, भागवत कथा, व्यासपीठ आदि विशिष्ट पौराणिक शैली की परवर्ती स्थापनायें हैं जिनके नेपथ्य में जातिवादी कलुष भी अपने खेल खेलता रहा।
'हरि अनन्त हरिकथा अनंता' गाते हुये जो सर्वसमावेशी उत्साह में सब कुछ स्वीकार करने के पक्ष में हैं, यह लेख उनके लिये नहीं है। कृष्ण और शुक्ल का अंतर स्पष्ट करना बहुत आवश्यक है। कभी कभी 'धूसर' रंग विष के अतिरिक्त कुछ नहीं होता, त्याज्य।