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भविष्यपुराण लिखे जाने तक कथावाचकों द्वारा व्यासपीठ से रामायण एवं महाभारत को भी सुनाने का प्रचलन था -
भगवन्केन विधिना श्रोतव्यं भारतं नरैः । चरितं रामभद्रस्य पुराणानि विशेषतः ॥
अर्थात महाभारत को लेकर प्रचलित रूढ़ि कि 'घर में रखना ही नहीं चाहिये' इस पुराण से परवर्ती है। यह भी कह सकते हैं कि कथावाचकों में उतनी योग्यता ही नहीं रही कि महाभारत को सुना सकें।
कथा का माह पूर्ण होने पर द्क्षिणा का विधान है। माष कहते हैं उड़द को जोकि भार-मापन की एक इकाई थी तथा आठ रत्ती या चौसठ धान के दानों के समान होती थी। स्पष्टत: यह साधारण उड़द न हो कर राजमाष या राजमा रहा होगा। वर्तमान में इसका तुल्य भार लगभग एक ग्राम होता है।
मासि पूर्णे द्विज श्रेष्ठे दातव्यं स्वर्णमाषकम् । ब्राह्मणेन महाबाहो द्वे देये क्षत्रियस्य तु ॥ वाचकाय द्विजश्रेष्ठ वैश्येनापि त्रयं तथा । शूद्रेणैव च चत्वारो दातव्याः स्वर्णमाषकाः ॥
ब्राह्मण एक माष, क्षत्रिय दो माष, वैश्य तीन माष एवं शूद्र चार माष भार सोने की दक्षिणा दे। यहाँ दलहितवादी शूद्रों के शोषण की बात उठा सकते हैं किंतु मेरा ध्यान उत्पादन व धनसम्पदा पर जाता है। शूद्र कुशीलव, शिल्पी आदि थे जिनके अपने गण होते थे। ये धनी होते थे। वैश्यों को कृषि एवं सार्थवाह व्यापारादि से पर्याप्त आय थी। सामान्य धारणा के विपरीत राजकर्म से इतर क्षत्रिय या तो सैनिक होता था या रक्षक, वेतनभोगी। राजसत्ता से इतर ब्राह्मण वह भी नहीं, मुख्यत: शिक्षा दीक्षा में लगा। अत: यह विधान विविध वर्णों की आर्थिक स्थिति को ध्यान में रख कर बनाया गया हो सकता है। अर्थशास्त्र भी सम्पत्ति विभाजन के विधान के समय इसी आर्थिक स्थिति का आभास देता है - ब्राह्मण की बकरी, क्षत्रिय का अश्व, वैश्य की गौ एवं शूद्र की भेड़। आज हम जिन्हें शूद्र मान बैठे हैं, वे वस्तुत: अन्त्यज या पञ्चम हैं, वर्णव्यवस्था से बाहर के श्वपच आदि।
व्यास को सर्वोत्तम ब्राह्मण बताया गया है तथा पूजन के पश्चात श्रोताओं द्वारा उसे अर्पण के विधानों में ये पङ्क्तियाँ चकित करती हैं -
अन्नं चापि तथा पक्वं मांसं च कुरुनंदन ।दातव्यं प्रथमं तस्मै श्रावकैर्नृपसत्तम ॥
पक्वं मांसम् का अर्थ हिंदी अनुवादक ने 'पका हुआ मांस' किया है किन्तु मांस पर अपने एक पूर्ववर्ती लेख में मैं बता चुका हूँ कि इसका अर्थ फलों का गूदा भी पुरातन वैदिक परम्परा से ही चला आ रहा है। अत: इसका अर्थ पका हुआ फल भी किया जा सकता है।
भविष्यपुराण को राजस श्रेणी में रखा जाता है। यह भी सम्भव है कि सूतों से ब्राह्मणों तक के सङ्क्रमण काल में राजस प्रभाव रह गया हो। तब पका हुआ मांस अर्थ भी सम्भव है।
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