आजकल एक कथावाचिका द्वारा अजान के समय भजन पूजन को विराम दे उसे पढ़ने का अनुमोदन सुन कर लोग उत्तेजित हैं। इससे पूर्व अन्य कथावाचक भी अली अली, मौला मौला आदि के गायन के कारण चर्चित हुये हैं। पूर्व-निश्चित न्यूनतम संख्या से अधिक श्रोता व भव्य व्यवस्था की माँग करने वाले इन कथित व्यासपीठों के अन्य धत्कर्म भी कुख्यात हुये हैं। यथार्थ में ये सभी धन, सम्पदा एवं प्रतिष्ठा प्राप्त करने के उद्योग बन कर रह गये हैं।
सबके होते हुये भी यह एक कटु सचाई है कि परम्परा के जो लोग इनका विरोध करते हैं, वे कोई अनुशासन या कोई विकल्प उपलब्ध नहीं करा पाये हैं। जब तक विकल्प नहीं होगा, कौतुक प्रिय भावुक हीनू समाज में विकृतियाँ बढ़ती ही रहेंगी। इन सबके नेपथ्य में कहीं न कहीं सूफियत का प्रभाव है तथा राधे राधे जपने वाली उस मानसिकता का भी जो इसामसीह को भी भारतीय योगी सिद्ध करने में लगी रहती है। कल्पनाशक्ति किसी जीवंत समाज की विशेषता होती है, हमारे यहाँ दुर्भाग्य से उसकी दिशा अनर्गल व अवांछित हो चुकी है। अस्तु।
'व्यासपीठ' की अवधारणा कोई बहुत पुरानी नहीं है। तब की है जब उत्तरभारत से वैदिक यजन कर्मकाण्ड या तो लुप्त हो गये या अति धनाढ़्यों तक सीमित रह गये। जनसामान्य हेतु सूत चारण कथा परम्परा को नवीन रूप में योजित किया गया, आर्चिक अनुशासनों में बाँध कर उसे आगे बढ़ाने हेतु ब्राह्मणों को सौंप दिया गया।
अग्निपुराण के परिशिष्ट में व्यासपीठ का उल्लेख मिलता है -
कुरुक्षेत्रे महापुण्ये व्यासपीठौ वराश्रमे । तत्रासीनं मुनिश्रेष्ठं कृष्णद्वैपायणं मुनिं ॥
ध्यान रहे कि यह परिशिष्ट में है, न कि मूल ग्रंथ में। परवर्ती भविष्यपुराण इसे सम्पूर्णता प्रदान करता है -
वन्दनीयं प्रपूज्य च श्रोतृभिः कुरुनन्दन । व्यासपीठं तु तत्प्रोक्तं गुरोरासनमादिशेत् ॥
भविष्यपुराण वेदों के बारे में क्या धारणा रखता है, यह इससे पता चलता है कि वह वेदों को आगम बताता है अर्थात यह तब का है जब आगम ग्रंथों को ज्ञान का, शास्त्र का पर्याय मान लिया गया था -
यथा वेदसमो नास्ति आगमो भुवि कश्चन
उक्त पुराण वैदिक यज्ञों के तुल्य व्यासपीठ की कथा को बताता है -
अग्निष्टोमं गोसवं च ज्योतिष्टोमं तथा नृप
सौत्रामणिं वाजपेयं वैष्णवं च तथा विभो
माहेश्वरं तथा ब्राह्मं पुंडरीकं यजेत यः
आदित्ययज्ञस्य तथा राजसूयाश्वमेधयोः
कथा वर्णसंकरों सहित समस्त वर्ण सुन सकते हैं। ब्राह्मण सबसे आगे बैठें तथा उसी क्रम में वर्णसंकर सबसे पीछे -
शूद्राणां पुरतो वैश्या वैश्यानां क्षत्रिणस्तथा । मध्यस्थितोऽथ सर्वेषां वाचको व्याहरेन्नृप ॥ ये च संकरजा राजन्नरास्ते शूद्रपृष्ठतः ।
ब्राह्मण के अतिरिक्त किसी अन्य वर्ण को वाचक नहीं बनाना चाहिये, किसी अन्य वर्ण से सुनने पर श्रोता को नरक की प्राप्ति होती है -
ब्राह्मणं वाचकं विद्यान्नान्यवर्णजमादरेत् । श्रुत्वान्यवर्णजाद्वाचं वाचकान्नरकं व्रजेत् ॥
वाचक को रसयुक्त मधुर वाणी में कथा कहनी चाहिये तथा समय समय पर सात स्वरों से युक्त गायन भी करना चाहिये -
असंसक्ताक्षरपदं रसभावसमन्वितम् ॥ सप्तस्वरसमायुक्तं कालेकाले विशांपते ।
जिस वाचक की जिह्वा पर समस्त शास्त्र विराजते हैं, उससे श्रेष्ठ कोई द्विज नहीं!
तिष्ठंति यस्य शास्त्राणि जिह्वाग्रे पृथिवीपते । दृष्टश्च गोचरस्तात कस्तेन सदृशो द्विजः ॥
उल्लिखित विधि विधानों के अनुसार कथा सुनाने वाले विप्र को 'व्यास' कहते हैं, अन्य को 'वक्ता' मात्र ।
य एवं वाचयेद्राजन्य विप्रो व्यास उच्यते । अतोऽन्यथा कथयिता ज्ञेयोऽसौ वक्तृनामकः ॥
व्यास सर्वोच्च ब्राह्मण है। वह प्रधान पङ्क्तिपावनों में आता है।
वाचकश्च यतिश्चैव तथा यश्च षडंगवित् ॥ एते सर्वे नृपश्रेष्ठ विज्ञेयाः पंक्तिपावनाः ।
कथावाचकों के तीन प्रकार हैं - व्यास, वाचक एवं वाचकाधम। इसी प्रकार से श्रोताओं के भी तीन प्रकार हैं - तामसिक, राजस व सात्त्विक।
य एवं वाचयेद्राजन्य विप्रो व्यास उच्यते
अतोऽन्यथा वाचयिता न गच्छेद्व्यासतां क्वचित्
त्रिविधं वाचकं विद्यात्सदा गुणविभेदतः
श्रावकं च महाबाहो त्रिविधं गुणभेदतः
द्वावेतौ कथ्यमानौ तु निबोध गदतो मम
अभिद्रुतं तथास्पष्टं विस्तरं स्वरवर्जितम्
पदच्छेदविहीनं च तथा भावविवर्जितम्
अबुध्यमानो ग्रंथार्थमभीष्टोत्साहवर्जितः
ईदृशं वाचयेद्यस्तु वाचकः क्ष्माधिपेश्वर
क्रोधनोऽप्रियवादी च अज्ञानाद्ग्रंथदूषकः
बुध्यते न च कष्टाच्च स ज्ञेयो वाचकाधमः
विस्पष्टमद्भुतं शांतं रसभावसमन्वितम्
अबुध्यमानो ग्रंथार्थं वाचयेद्यस्तु वाचकः
स ज्ञेयो राजसो राजन्निदानीं सात्त्विकं शृणु
विस्पष्टमद्भुतं शांतं स्पष्टाक्षरपदं तथा
कलस्वरसमायुक्तं रसभावसमन्वितम्
अत्त्यर्थं बुध्यमानस्तु ग्रंथार्थं कृत्स्नशो नृप
ब्राह्मणादिषु वर्णेषु आचार्यो विधिवन्नृप
य एवं वाचयेद्राजन्स ज्ञेयः सात्त्विको बुधैः
श्रद्धा भक्तिविहीनो यो लोभिष्ठः कटुको यथा
हेतुवादपरो राजंस्तथासूयासमन्वितः
नित्यां नैमित्तिकां काम्यामाददद्दक्षिणां नृप
वाचको यो महाबाहो शृणुयाद्यस्तु मानवः
स ज्ञेयस्तामसो राजञ्छ्रावको मानवोऽपि सः
न तस्य पुरतो वीर वाचये त्प्राज्ञ एव हि
प्रसंगाच्छृणुयाद्यस्तु श्रद्धाभक्तिविवर्जितः
राजन्कौतुकपात्रं तु स ज्ञेयो राजसो भवेत्
संत्यज्य सर्वकार्याणि भक्त्या श्रद्धासमन्वितः
कहीं भी नाचने की अनुशंसा नहीं है, कथावाचक द्वारा तो सोच भी नहीं सकते। रस एवं स्वर का आधार ले कर हारमोनियम आदि को भले उचित बता दें, वाद्ययंत्रों का भी अनुमोदन नहीं है। वैदिक पाठ परम्परा में भी वाद्ययन्त्रों का निषेध है।
उपर्युक्त से तुलना करने से स्पष्ट होता है कि आजकल के वाचक बहुधा 'वाचकाधम' की श्रेणी में ही आते हैं और श्रोता राजस या तामस श्रेणी में।
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