गुरुवार, 14 मई 2020

Twenty Lakh Crore बीस लाख करोड़, मनु, कौटल्य, रामायण व महापद्मनन्द

आपदा के समय शासन राजकोश से जो धन जनसामान्य सहित सकल राष्ट्र के कल्याण हेतु निर्गत करता है उसके उचित विनियोग एवं उपयोग पर सनातन परम्परा की दृष्टि से इस लेख में विचार करेंगे। साथ ही बड़ी संख्याओं यथा वर्तमान में केंद्र सरकार द्वारा अर्थव्यवस्था को ढर्रे पर लाने हेतु प्रस्तावितबीस लाख करोड़ के निषिञ्चन की राशि हेतु प्रयुक्त संस्कृत सञ्ज्ञाओं पर भी।

 र्थस्य मूलम्‌ राज्यम्‌ ।

(स्थिर) राज्य ही अर्थ (धन, धान्य, सम्पदा आदि) का मूल है। 

अर्थसम्पत्‌ प्रकृतिसम्पदम्‌ करोति।

(राजा की) अर्थसम्पत्ति से प्रजा के अर्थ की वृद्धि हो जाती है।

(चाणक्यनीति)

राजा द्वारा कराधान हेतु भारतीय आदर्श अल्प ले कर अधिक कल्याण करने का है। मनुस्मृति (सातवें अध्याय) के अनुसार -

जो राजा को जनकल्याण निर्वहन करने हेतु समर्थ बनाये तथा करदाताओं को उनके कर्म का उचित प्रसाद भी पाते रहने दे, इस पर भली भाँति से विचार कर राजा को कर लगाना चाहिये।
जिस प्रकार से जोंक, बछड़ा और मधुमक्खी अपने अपने आहार स्रोत से अत्यल्प ले कर पोषण प्राप्त करते हैं, उसी प्रकार राजा को अपने राष्ट्र की प्रजा से अल्पतम कर का आदेश देना चाहिये।

राजा को अति लिप्सा वश (अनुचित व भारी कर लगा कर) अपनी व अपनी प्रजा की जड़ों का नाश नहीं करना चाहिये क्योंकि ऐसा कर के वह स्वयं एवं प्रजा, दोनों को कष्ट में डाल देता है।

कौटलीय अर्थशास्त्र में कहा गया है - 
पक्वं पक्वमिवारामात्फलं राज्यादवाप्नुयात् । (०५२७०)  ‌ 
राजा को प्रजा से कराधान वैसे ही करना चाहिये जैसे उद्यान से पके हुये फल तोड़े जाते हैं तथा जो पके नहीं होते उन्हें सुरक्षित रखते हुये पकने की प्रतीक्षा की जाती है। जो राजा ऐसा नहीं करता, वह नाश की नियति को प्राप्त होता है।

इस उदाहरण सूत्र में अनेक बातें छिपी हुई हैं, प्रथमत: कराधान योग राज्य का निर्माण (उद्यान), कर देने में समर्थ जन को विकसित करना (उसके वृक्षों की देखभाल एवं सुरक्षा), उचित अवसर यथा सस्य पकने पर या श्रेष्ठि शिल्पी जन द्वारा व्यापार में लाभ के अवसर पर कर सङ्ग्रह करना (पके फल तोड़ना), जो अभी निर्माण प्रक्रिया में हैं तथा कर देने की स्थिति में नहीं हैं, ऐसे उपक्रमों से बलात करसङ्ग्रह न कर उनका संरक्षण करना (कच्चे फलों को सुरक्षित रखते हुये उनके पकने की प्रतीक्षा करना)।

जब सङ्कट या आपदा हो तो राजकोश से सहायता राशि का वण्टन कैसे हो? इस हेतु अथर्ववेद का यह मन्त्र देखें -  

त्वां विशो वृणतां राज्याय त्वामिमाः प्रदिशः पञ्च देवीः ।

वर्ष्मन् राष्ट्रस्य ककुदि श्रयस्व ततो न उग्रो वि भजा वसूनि ॥

त्वां वृणताम्‌ - तुम्हारा वरण करें;

-    विशं राज्याय  - प्रजायें राज्य हेतु | 

और

-    इमा देवी पञ्च प्रदिश: - ये दिव्य पाँच दिशायें। 

राष्ट्रस्य वर्ष्मन्‌ कुकुदि श्रयस्व -

राष्ट्र के शरीर (रूप) पर श्रेष्ठ स्थान का आश्रय ले।

तत: उग्र: -

आप उग्रवीर होकर

न: वसूनि वि भज

हम सब में योग्यतानुसार धन का भाजन (वण्टन) करें।

राजा द्वारा प्रजा हेतु धन के वण्टन का यह वैदिक आदर्श है।

यह मन्त्र प्रजा द्वारा स्वयं के कल्याण हेतु पुरोहित के माध्यम से राजा को दिया गया आशीर्वाद भी है। प्रशंसा व निन्दा से परे हो कर प्रधानमन्त्री को आशीर्वाद देने पर भी विचार करें, ₹ २० लाख करोड़ अल्प नहीं होते!

शब्दों पर ध्यान दें जिससे कि पता चले कि केवल अनुवाद से मर्म नहीं जाना जा सकता। विश् शब्द जनसामान्य हेतु प्रयुक्त है। उस काल को बताता है जब वर्णविभाजन न होकर केवल एक ही वर्ण था। विश् से ही वैश्य है, उससे क्षत्रिय हुये, दोनों से ब्राह्मण व अन्त में शूद्र। तैत्तिरीय परम्परा इसी को आलङ्कारिक रूप में कहती है, ऋग्वेद से वैश्य, यजुर्वेद से क्षत्रिय व सामवेद से ब्राह्मण।

दिव्यता हेतु देवी शब्द पुरातन प्रयोग है। पाँच दिशायें वस्तुत: पुराने पाँच जन हैं। दिश: भौगोलिक अर्थ में प्रयुक्त। अगला अंश और महत्त्वपूर्ण। वर्ष्मन् व ककुद पर ध्यान दें। दोनों, वृष् धातु के वृषभ से जुड़ते हैं। रूप विस्तार हेतु बली बैल के रूपक सामान्य थे और विशिष्टता दिखाने हेतु भी। यथा, द्विजवृष, वृषस्कन्ध, पुरुषर्षभ। यहाँ प्रजा ही कृषिकर्म द्वारा उत्पादन में लगी वृषशरीर है, जिसके ककुद अर्थात देह के सबसे ऊँचे भाग पर राजा विराजता है।

यहाँ एक और महत्त्वपूर्ण तथ्य जो इन्द्र की महत्ता पर भी प्रकाश डालता है। पुरुषोत्तम राम के एक पूर्वज ने इन्द्र रूपी वृष के ककुद पर स्थित हो असुरों को पराजित किया था जिससे उनका नाम ककुत्स्थ पड़ा। उनके वंशज राम रामायण में काकुत्स्थ कहलाये।

हाँ, तो वर्षा के देवता बैल रूपी इन्द्र की सहायता से कृषि विस्तार कर राजा ककुत्स्थ ने आटविक आहार संग्रहकर्ता विकट असुरों को सभ्य बनाया।

उग्र(वीर) शब्द पर ध्यान दें जो क्षात्रतेज का संकेतक है। राजा उग्र नहीं होगा तो संसाधनों का उचित विभाजन नहीं कर पायेगा।

सरकार द्वारा प्रस्तावित बीस लाख करोड़ रुपयों की राशि बहुत अधिक है तथा सामाजिक सञ्चार पर इस संख्या में प्रयुक्त शून्यों को लेकर हास्य प्रसङ्ग चल रहे हैं। यह संख्या है – २०००००००००००००, २ के आगे १३ शून्य। लाख करोड़ को एक साथ कहने पर विचित्र तो लगता ही है, हम सामान्यत: एक समय केवल एक इकाई सौ या हजार या लाख या करोड़ कहने के अभ्यस्त हैं। मानकीकरण के आग्रहों के चलते करोड़ से आगे की इकाइयाँ प्रयुक्त नहीं होतीं किन्तु समृद्ध संस्कृत परम्परा में बड़ी संख्याओं हेतु इकाइयाँ उपलब्ध हैं।

रावण के भेदिये शुक द्वारा श्रीराम की सेना की विशालता बताते समय बड़ी संख्याओं हेतु प्रयुक्त इकाइयों की चर्चा हुई है। यद्यपि यह अंश चिकित्सित पाठ में नहीं है, तथापि इसका प्रक्षेपण एक प्रचलित परिपाटी को इङ्गित करता है –

शतम् शतसहस्राणाम् कोटिमाहुर्मनीषिणः ॥६-२८-३३

शतम् कोटिसहस्राणाम् शङ्कुरित्यभिधीयते ।

शतम् शङ्कुसहस्राणाम् महाशङ्कुरिति स्मृतः ॥६-२८-३४

महाशङ्क्य्सहस्राणाम् शतम् वृन्दमिहोच्यते ।

शतम् नृन्दसहस्राणाम् महावृन्दमिति स्मृतम् ॥६-२८-३५

महावृन्दसहस्राणाम् शतम् पद्ममिहोच्यते ।

शतम् पद्मसहस्राणाम् महापद्ममिति स्मृतम् ॥६-२८-३६

महापद्मसहस्राणाम् शतम् खर्वमिहोच्यते ।

शतम् खर्वसहस्राणाम् महाखर्वमिति स्मृतम् ॥६-२८-३७

महाखर्वसहस्राणाम् समुद्रमभिधीयते ।

शतम् समुद्रसाहस्रमोघ इत्यभिधीयते ॥६-२८-३८

शतमोघसहस्राणाम् महौघ इति विश्रुतः ।

दो इकाइयों को साथ कहने के अटपटे व्यवहार से ही आगे समझाया गया है। पहली दो पङ्क्तियों में देखें -

सौ-हजार (१००x१००० = १०x १०= १०) अर्थात लाख लाख के सौ एक कोटि (करोड़) होते हैं। इस संख्या को घात पद्धति में ऐसे लिखा जायेगा :

 १०० x १००x१००० = १०

कोटि-सहस्र अर्थात १० x १०= १०१० के सौ (१०) अर्थात १०x १०१० = १०१२ की संख्या शङ्कु कही जाती है । सौ-कोटि-सहस्र को सौ-सहस्र-कोटि भी लिख सकते हैं। सौ सहस्र हुआ लाख, अत: सौ-सहस्र-कोटि हुआ लाख-कोटि जोकि लाख-करोड़ की संख्या है।

इस प्रकार से २० लाख-करोड़ रुपयों को बीस शङ्कु रुपये भी कहा जा सकता है। रामायण का अध्ययन हो तो यह ज्ञात रहेगा न! आगे के श्लोकों में महाशङ्कु, वृन्‍द, महावृन्‍द, पद्म, महापद्म, खर्व, महाखर्व, समुद्र, ओघ एवं महौघ तक की बात बताई गयी है। महौघ संख्या में कितने शून्य होंगे? अभ्यास कर के पता करें।

मगध के नन्द वंश का एक राजा महापद्म क्यों कहा जाता था? क्योंकि उसके राजकोश में उतनी स्वर्णमुद्रायें थीं किन्तु उनका उपयोग जनहित हेतु न होने से असन्तोष की स्थिति थी जिसका दोहन कर कौटल्य ने नन्दवंश के स्थान पर चन्द्रगुप्त हो आसीन किया। चाणक्य नीति एवं कौटल्य के अर्थशास्त्र से आरम्भ कर रामायण तक जाने एवं पुन: कौटल्य तक लौटने का उद्देश्य यह है कि आप अपने शास्त्र आदि पढ़ें जिससे परम्परा की निरंतरता का ज्ञान हो।     

  

  



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