इस साँझ जब कि बाहर लू से घिरा हूँ और भीतर संतृप्ति की शीतलता है, सुख है, आनन्द है, उत्सव के सकुशल बीत जाने पर संतुष्टि है; एक प्रिय कविता 'हवन' पढ़ने का मन कर रहा है।
श्रीकांत वर्मा के ये शब्द तब तक मेरी टेबल के शीशे के नीचे रहे, जब तक मैं फील्ड में रहा। जाने क्यों इन्हें देखते बहुत शक्ति मिलती थी। जाने पढ़ता था या नहीं, देखता अवश्य था।
अरसे बाद आज पुन: पढ़ रहा हूँ, मन ही मन - बोल कर नहीं:
अरसे बाद आज पुन: पढ़ रहा हूँ, मन ही मन - बोल कर नहीं:
चाहता तो बच सकता था
मगर कैसे बच सकता था
जो बचेगा
कैसे रचेगा?
पहले मैं झुलसा, फिर धधका
चिटखने लगा
कराह सकता था
मगर कैसे कराह सकता था?
जो कराहेगा
कैसे निबाहेगा?
न यह शहादत थी, न यह उत्सर्ग था
न यह आत्मपीड़न था
न यह सजा थी
तब क्या था यह?
किसी के मत्थे मढ़ सकता था
मगर कैसे मढ़ सकता था?
जो मढ़ेगा कैसे गढ़ेगा!