रविवार, 3 मई 2009

उल्टी बानी (अंतिम भाग) – चुनाव, एक पर्व एक उत्सव

(अ)
बात उस समय की है जब ए टी एम नए नए लगने प्रारम्भ हुए थे. एक समाचारपत्र में किसी आम व्यक्ति की प्रतिक्रिया थी कि ए टी एम की सबसे बड़ी अच्छाई यह है कि यह मुँहदेखी नहीं करता. बैंक में पैसे निकालने जाओ तो क्लर्क पहचान और रसूख वालों के साथ ढंग से बात भी करता है और पैसे भी ज़ल्दी दे देता है. जब कि मुझे घण्टों लगाता है और उपर से सीधे मुँह बात भी नहीं करता. पिछ्ले पोस्ट में मैंने टेक्नॉलॉजी के “समता और सुलभता” वाले पक्ष की जो बात की थी उसका यह एक उदाहरण है. अपने देश में मेधा की कमी नहीं है. आवश्यकता है दृढ़ निश्चय और समर्पण की. सुझाए गए तमाम तकनीकी युक्तियों को लागू कर समूची निर्वाचन प्रक्रिया को आमूल चूल बदला जा सकता है.
तकनीक के प्रयोग का एक सबल पक्ष यह भी है कि दो तिहाई से अधिक मतदाता युवा वर्ग से हैं और स्वभावत: यह वर्ग तकनीकी परिवर्तनों की ओर आकृष्ट हो कर मतदान का प्रतिशत बढ़ाएगा. मेरे पास कोई ठोस तर्क तो नहीं है लेकिन न जाने क्यों लगता है कि यदि मतदान का प्रतिशत 95 या उससे अधिक सुनिश्चित कर दिया जाय तो हमें अल्पमत की सरकारों से छुटकारा मिल जाएगा. अस्थाई, अनैतिक, तिकड़मी और अवसरवादी गठबन्धनों से, जो कि हमारी शासन व्यवस्था की एक दु:खद वास्तविकता बन चुके हैं, भी छुटकारा मिल जाएगा.
अब समय आ गया है कि प्रत्याशियों के मामले में सबको समान अवसर देने की सर्वविनाशी और मूर्खतापूर्ण मानसिकता से मुक्त हो कर हम सीमित पार्टी संख्या वाले लोकतंत्र के मॉडल को अपना लें. निर्दल प्रत्याशियों पर प्रतिबन्ध लगे और भारत की विविधता को देखते हुए कम से कम चार पार्टियों को मान्यता दी जाए. यह पार्टियाँ दक्षिणपंथ, वामपंथ और मध्यमार्ग की राहों वाली हो सकती हैं और चौथा विकल्प किसी भी अन्य मॉडल के लिए रखा जा सकता है. पिछ्ले चुनावों में पाए गए मत प्रतिशत के आधार पर इनकी पहचान हो सकती है. इसके साथ ही क्षेत्रीय पार्टियों को कोई एक विकल्प चुन कर विलय का विकल्प दे दिया जाय. इन चार पार्टियों के संविधान दुबारा लिखे जाँय, नाम और चुनाव चिह्न भी आंतरिक प्रक्रिया द्वारा दुबारा रखे जाँय.
चार पार्टियों की सीमा से यह लाभ होगा कि टेलीफोन, मोबाइल, इंटर्नेट, ए टी एम, पोस्ट ऑफिस, बैंकों आदि सब स्थानों पर तकनीकी प्रयोगों द्वारा मत देने की स्थाई और एक समान तंत्र के विकास और उसे लागू करने में बड़ी सहूलियत हो जाएगी. मतदान की प्रक्रिया भी लचीली, अल्पव्ययसाध्य और साथ ही तीन चार दिनों तक लगातार जारी रह सकेगी जिससे मतदान का प्रतिशत 95 को भी पार कर सकेगा. राज्यसत्ता द्वारा चुनावों की सम्पूर्ण फाइनेंसिंग आसान और अल्पव्यय साध्य हो सकेगी. धन और बाहुबल का जो ज़ोर आज दिख रहा है वह समाप्त हो जाएगा और सही मायने में लोक प्रतिनिधि चुनने में योग्यता और कर्मठता ही कसौटी होंगें न कि यह क्षमता कि प्रत्याशी कितना धन चुनावों में इनवेस्ट कर सकता है.
लोकतंत्र की कसौटी निर्बल और सबल दोनों को योग्यता के आधार पर समान अवसर और प्लेट्फॉर्म उपलब्ध करा सकने में सक्षम होने में है न कि सींकिया पहलवानों को रिंग में केवल समान अवसर के पाखण्ड प्रदर्शन के लिए मुहम्म्द अली सरीखे धन पशुओं के सामने उतारने में. ऐसे मामले में परिणाम की प्रतीक्षा तो बस एक खानापूरी ही होती है. सबसे बड़ा नुकसान यह होता है कि जनता ऐसे आडम्बर पूर्ण आयोजनों से उदासीन हो जाती है. बहुसंख्यक (चुनावी गणित के अर्थों में न लें) जनता या तो मसखरी का आनन्द लेती है या अपने दैनिक समस्याओं से जूझती इसका मौन बहिष्कार कर देती है. मसखरों के लिए दैनिक मोनोटोनी से मुक्त होने का यह एक बहाना बन जाता है. यही कारण हैं कि हमारे प्रभु वर्ग का हमेशा सत्ता में बने रहने का और धन दोहन का षड़यंत्र स्वतंत्रता के समय से ही फल फूल और सफलीभूत हो रहा है.
(आ)
एक ऐसा आयोजन जिससे हमारा भाग्य सीधा जुड़ा हुआ है, जो 5 वर्षों में केवल एक बार ही होता है, जिससे हमारे दैनिक और आजीवन प्रकल्प सीधे प्रभावित होते हैं और जो हमारी, हमारी आगामी पीढ़ियों और हमारे पूरे देश की नियति को निर्धारित करता हो; उससे हम इतने उदासीन क्यों हैं?
होली, दिवाली, ईद, बैसाखी को मनाने के लिए तो किसी आह्वान की आवश्यकता नहीं पड़ती! फिर इसमें सम्मिलित होने और सक्रिय योगदान देने के लिए प्रचार, आह्वान, नुक्क्ड़ नाटक आदि की आवश्यकता क्यों पड़ती है? हमारी नींद का आलम तो यह है कि ये सब भी हमें जगा नहीं पा रहे हैं.
हम उल्लसित क्यों नहीं हैं? बात लू लगने की नहीं है. बात यह है कि हमारे उर में हिलोरों की इतनी कमी है कि सूरज की गर्मी जैसी दैनिक घटना भी हमें इस महापर्व को मनाने से रोक दे रही है. क्यों?
यह आयोजन तो पर्व और उत्सव की तरह मनाया जाना चाहिए, बल्कि यह हमारे जीवन का सबसे बड़ा पर्व होना चाहिए. हम इसका शांत और क्लांत भाव से बहिष्कार क्यों कर रहे हैं? हम इतने निष्क्रिय हो कर क्यों इसे चन्द उठाईगीरों के आमोद प्रमोद और उनकी समृद्धि का माध्यम बनाए दे रहे हैं? हम क्यों नहीं एक साथ उठ खड़े हो रहे हैं, एक आमूल चूल परिवर्तन के लिए? आखिर हमें सक्रिय होने से नुकसान ही क्या होने वाला है? सामूहिक प्रमाद की यह महामुद्रा जो हम धारण किए हुए हैं, उसकी सिद्धि क्या है? यही न कि दिन ब दिन हम रसातल में धँसते चले जा रहे हैं !
इन सबका कारण यह है कि हम एक बनी बनाई व्यवस्था को ही सब कुछ मान बैठे हैं. हम यह मान बैठे हैं कि इसमें और कुछ परिवर्तन नहीं हो सकता. हम यह मान बैठे हैं कि धन और बाहुबल का यह अनिष्टकारी मायाजाल ही वास्तविकता है. याद करिए कि सूचना के अधिकार के लिए संघर्ष ने क्या कर दिखाया. उसे लागू करने के मॉडल पर बहस हो सकती है लेकिन इससे तो इनकार नहीं हो सकता कि बहुत बड़ी शक्ति हमें इस एक अधिकार से मिली है. इसका बहुत ही सार्थक उपयोग भी हो रहा है.
ब्लॉग पर ही सही, परिवर्तन के लिए एक आन्दोलन खड़ा हो सकता है हमारी निर्वाचन प्रक्रिया में आमूल चूल परिवर्तन के लिए. हमें एक पर्व और उत्सव के नैसर्गिक अधिकार से बंचित कर दिया गया है. क्या यही एक कारण पर्याप्त नहीं है कि हम समूचे तंत्र को झँकझोर दें ! ज़रा सोचिए ! कलम उठाइए और लिखिए. समय की कमी कुछ नहीं है, बस घड़ी के दो हाथों का सम्मोहन है. उससे छूटिए. समय बहुतायत में मिलेगा. लिखिए कि उत्सव आयोजन का निमंत्रण पत्र आने को है.. ....पाँच वर्षों के बाद ! या उससे पहले ही?

6 टिप्‍पणियां:

  1. भाई साहब, आप तो कमाल का लिख रहे हैं। पढ़कर आनन्द आ गया। बधाई।

    आपने चिठ्ठाजगत और ब्लॉगवाणी पर इस चिठ्ठे का पंजीयन कराया कि नहीं? पाठकों की ट्रैफिक बढ़ाने के लिए कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा।

    वर्ना, ...जंगल में मोर नाचा किसने देखा?

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  2. आपके चिट्ठे पर पहली बार आया हूँ। बहुत विचारपरक सोच है आपकी।

    मुझे लगता है कि देश की असली समस्या सही सोच के नितान्त अभाव का है; अंध-नकल का है; आत्मविश्वास की कमी का है।

    बहुत से गाँव/क्षेत्र चुनाव का बहिष्कार कर देते हैं। इससे क्या मिलेगा? आपके वोट न देने से स्थिति बिगड़ेगी, सुधरेगी नहीं।

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  3. गिरिजेश जी,
    आपसे एक अनुरोध भी करना चाहूँगा। कभी-कभी अपना अमूल्य समय निकालकर हिन्दी विकिपीडिया में कुछ लेखों का योगदान करने के लिये समर्पित करें। हिन्दी विकिपिडिया को विचारवान विद्वानों के सेवा की जरूरत है।

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  4. देखिये ना ...आपकी प्रेरणा ने तीसरे भाग तक आते आते ...जोश में भर दिया मुझे !
    अब सोच रहा हूँ कि क्या और कैसे किया जा सकता है !

    यह किस्सा भी बेशर्म भारतीय राजनीति में निर्लज्जता का ही अध्याय है

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  5. बिलकुल सही कहा - सत्ता के कुचक्र तले हमने हथियार डाल उन्हें इस स्थिति में पहुँचाया है कि उनकी भ्रष्ट सत्ता अक्षुण्ण रहे,हमारी निष्क्रियता ने ही लोकतंत्र और चुनाव रूपी महापर्व को चन्द उठाईगीरों के आमोद प्रमोद और उनकी समृद्धि का माध्यम बना दिया है।
    गिरिजेश भाई,अपने मन के भावों को शब्दशः अभिव्यक्त पाया आपके इस पोस्ट में. उत्कृष्ट इस पोस्ट हेतु आपका कोटिशः आभार।

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