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शुक्रवार, 4 अप्रैल 2014

एक नागरिक का घोषणापत्र

भूमिका:

पार्टियों के चुनावी घोषणापत्रों के बारे में मान्यता है कि इनमें जीती हुई पार्टी द्वारा सरकार चलाने की प्राथमिकताओं, योजनाओं, मुख्य मुद्दों, लक्ष्यों और परिणाम आदि के बारे में पहले से ही मतदाताओं को बता दिया जाता है ताकि उसे मतदान के समय निर्णय लेने में आसानी रहे। व्यवहारिक और यथार्थ दृष्टि से देखें तो न तो मतदाता इन्हें गम्भीरता से लेता है और न राजनेता। कइयों को तो यह किस चिड़िया का नाम है, आज भी नहीं पता! मूर्ख बनने और बनाने के पंचवर्षीय प्रहसन मंचन के मंगलाचरण होते हैं चुनावी घोषणापत्र! ये गाँव गिराम की रात भर चलने वाली सस्ती नौटंकियों के प्रारम्भ में होने वाले उन वन्दनागीतों की तरह होते हैं जिनसे आगे अश्लील और भौंड़े प्रदर्शन अनिवार्य होते हैं।      

मैंने सोचा कि क्यों न एक नागरिक, एक मतदाता का घोषणापत्र जारी किया जाय जो कि सैद्धांतिक ही सही, स्वामी है और अपना एवं प्रभुवर्ग का भाग्यविधाता भी है। हर पाँचवे वर्ष जिसका भाव सैद्धांतिक ही सही, बहुत ऊँचा हो जाता है! इस घोषणापत्र को आप व्यंग्य के रूप में भी ले सकते हैं और गम्भीर रूप में भी। क्या है कि अब दोनों में कोई अंतर नहीं रहा - यह लोकतंत्र की एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है जिसे चिह्नित किया जाना चाहिये।

घोषणापत्र को माँगपत्र की तरह पढ़ा जाना चाहिये हालाँकि यह भी एक बेतुकी बात फरियाद होगी।

घोषणापत्र:

(1) मुझे आजतक सरकार नहीं मिली, मुझे सरकार चाहिये। वास्तविक 'बहुमत' वाली सरकार चाहिये। सरकार से मेरा अर्थ उस समूह संस्था से है जो अनुशासित है, विधान और उत्कृष्ट मानदंडों के अनुसार सामयिक परिणामपरक काम करती है। सम्यक विकास के साथ अपना ऑडिट भी करती चलती है और निरंतर सुधार भी।

(2) भयमुक्त, पक्षपातविहीन, शोषणरहित समय और परिवेश चाहिये।

(3) बच्चों और युवजनों के लिये स्नातक स्तर तक मुक्त और मुफ्त शिक्षा चाहिये। वृद्धों के लिये अनिर्भर जीवन चाहिये। 

(4) मिट्टी, वायु, जल, अन्न और जीवन - ये पाँच मेरे मौलिक अधिकार होने चाहिये।  

(5) मुझे 24 घंटे बिजली चाहिये। गड्ढारहित सड़कें चाहिये। 

(6) गाँव, गिराम, टोले, मुहल्ले स्तर तक जच्चगी बच्चगी से लेकर हृदय शल्य चिकित्सा तक की स्वास्थ्य सुविधायें चाहिये।

(7) आक्रामक और राष्ट्रकेन्द्रित अर्थ एवं विदेशनीति चाहिये।

(8) सीमाओं के लिये विश्वस्तरीय सुरक्षा चाहिये।

(9) मेरे द्वारा चुनी और मेरी सेवक सरकार यदि किन्हीं दो लगातार वर्षों में ऑडिट में पूर्वपरिभाषित और पूर्वनिर्धारित मानकों की कसौटी निकम्मी पायी जाती है तो उसे भंग कर नयी सरकार गठित करने की सुस्पष्ट व्यवस्था और क्रियान्वयन चाहिये किंतु मुझे पाँच वर्षों से पहले चुनाव नहीं चाहिये। 

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घोषणापत्र इतना लम्बा नहीं होना चाहिये कि पढ़ने में आलस आये और इतना जटिल भी नहीं कि समझते नींद आये। मैंने लिख दिया, आगे आप की इच्छा। जय राम जी की!

मंगलवार, 19 मई 2009

राजमहल की डिनर टेबल से (भाग - 1)

प्रारम्भ में ही स्पष्ट कर दूँ कि राजमहल में मेरा कोई आना जाना नहीं है. मैं आप ही की तरह राजमहल के पास भी नहीं फटक सकता. असल में वहाँ का एक रसोइया मेरा यार है जिससे मुझे खबरें मिलती रहती हैं. हमारे मिलने की कहानी भी बड़ी दिलचस्प है.
हम दोनों का शेयर मॉर्केट दलाल एक ही बन्दा था. उसी के यहाँ हमारी मुलाक़ात हुई. हुआ ऐसा कि उस दौरान मॉर्केट की हालत थोड़ी पतली थी और हमारा ये दोस्त अपने सारे शेयर घाटे में बेंचने कि ज़िद पर अड़ा हुआ था. हमारा दलाल जिसके बारे में यह मशहूर था कि यदि रिक्शे वाले को भी उसके पास भेज दो तो वह उससे मॉर्केट में इनवेस्ट करा दे, इसे अपनी तौहीन मान कर उसे ऐसा करने से मना कर रहा था.
मैं भी हैरान था और उससे पूछ बैठा अरे भाई ऐसी भी क्या ज़ल्दी है?
दलाल के यह दिलासा देने पर कि मैं एक निहायत ही गउ किस्म का आदमी हूँ, रसोइये ने सारी खिडकियाँ दरवाजे बन्द करा कर राज़ बताया....
उसे पैसे स्विटजरलैण्ड के किसी बैंक में जमा करने थे. ज़ाहिर है इस रहस्योद्घाटन से हम दोनों चौंकने की सीमा लाँघ कर भकुआ बनने के कगार पर पहुँच गए. अधिक कोंचने पर उसने विस्तार से बताना शुरू किया और हम लोगों की आँखें फैलने लगीं. जब उसने देखा कि फैलते फैलते हमारी आँखें निकलने को आ गई थीं तो उसने दया कर प्रकरण वहीं रोक दिया.
प्रभावित हो कर दलाल ने उसी दिन सब कुछ बेंच बाँच कर स्विटजरलैण्ड की राह पकड़ी और मैंने उसकी दयालुता देख उसके सामने दोस्त बनने का प्रस्ताव रख दिया. जिसे उसने मुझ दरिद्र पर कृपा कर स्वीकार कर लिया. दलाल आज तक गायब है और उसके बारे में तरह तरह की बातें सुनने को मिलती हैं जिसे मैं फिर कभी सुनाउँगा. अस्तु....
राजमहल में एक परम्परा है कि डिनर टेबल पर हिन्दी में ही बात होती है. इस परम्परा के जनक राजवंश के संस्थापक माननीय जमा-हर-ला थे. ऐसा उन्हों ने अपनी इंग्लिश परस्त ज़ुबान को 'हिन्दीयाहिन' बनाने के लिया किया था. वर्तमान महारानी मोनियो की बानी कमज़ोर है और प्रचण्ड आँधी में भी लिखे हुए भाषण पढ़्ने के लिए वह कुख्यात हैं. उनकी कही हुई बात का हिन्दी में शुद्धिकरण कर रसोइए ने बताया है. डिनर टेबल पर महारानी और राजकुमार राउल की बातचीत कुछ इस प्रकार हुई:
- माँ, इस बार भी तुमने प्रधान पद के लिए धनदोहन सिन का नाम आगे कर दिया. मुझे अच्छा नहीं लगा.

- अच्छा, मैं भी तो जानूँ मेरा लाल किस को प्रधान बनाना चाहता है?
(महारानी ने राजबल्लरी नामक जगह से चुनाव जीता है. चुनाव लड़ना और जीतना प्रधान को ऑपरेट करने के लिए अत्यावश्यक है. रियाया के साथ कुछ दिन रहने से महारानी ने जो नए शब्द सीखे हैं उनमें 'मेरा लाल' पहला है.)
- माँ, तुम्हीं इसे सँभालो ना. आखिर महारानी के होते हुए प्रधान की जरूरत ही क्या है?
अब देखो न, दादी और परदादा ने भी तो राजकाज और प्रधानी दोनों खुद सँभाली थी कि नहीं? प्रात:स्मरणीय पिता जी ने भी ऐसा ही किया था.
- बेटा, वे महान लोग थे. मेरा मतलब यह है कि रियाया उन्हें महान समझती थी और रहेगी. तुम्हारे पिताजी के उपर तो ज़बरदस्ती महानता लाद दी गई थी. जब कि वे बेचारे आखिरी समय तक उससे इनकार करते रहे.
- तो उस से क्या? तुम भी तो महान हो! पिछली बार जब तुमने रियाया के बार बार कहने और यहाँ तक कि विद्रोह की सीमा तक उतर आने पर भी प्रधानी नहीं स्वीकारी तो मैं भी तुम्हारी महानता का कायल हो गया था. एक बार ऐसा करना जरूरी था. लेकिन इस बार भी वैसा ही क्यों? मुझे तो हैरानी इस बात पर है कि इस बार रियाया तुम्हारे इस निर्णय पर हंगामा भी नहीं कर रही!

- बेटा, तुम अभी कच्चे हो. जिसे तुम रियाया समझ बैठे थे वे हमारे चमचे थे. वक्त बदल गया है बेटा. अब यह जरूरी है कि रियाया और राज खानदान के बीच प्रधान कोई और रहे. जमाना तो उसी दिन खराब हो गया था जब राजवंश के लोगों को भी गली गली वोट की भीख माँगना लाज़मी हो गया था. दिखावे के लिए ही सही कभी कभी रियाया को इस भ्रम में भी रखना पडता है कि राजघराने को राज काज से कुछ लेना देना नहीं.
आखिर तुम्हें भी इस बार कितनी गलियों की धूल और कितनी झोपड़ियों की भूख फ़ाँकनी पड़ी. फूल सा चेहरा मउला गया है रे.
(मेरे परम प्रिय दोस्त ने बताया है कि ऐसा सुनते ही राउल ने कटे हुए सारे खीरे अपने चेहरे पर सजा लिए और जल्दी जल्दी अनुलो - बिलो करने लगे. महारानी को झटका लगा. उन्हों ने ज़ोर से डांटा)

- राउल क्या कर रहे हो? डिनर टेबल का एटीक़ेट भूल गए? जानती तो तुम्हें झोपड़ी में कभी खाने नहीं देती.
- माँ, जैसा तुमने कहा वक़्त बदल रहा है. मैं भी अब रियाया के तौर तरीके जानने के कोशिश कर रहा हूँ. खीरे से खाल निर्मल हो जाती है और अनुलो - बिलो तो आज कल राष्ट्रीय खेल का दर्जा पा चुका है. देखो तो इसके प्रताप से क्रिकेट भी विदेश में होने लगा है.

- ये प्रताप कौन है? बेटा राजगद्दी सँभालने का तुम्हारा समय बहुत नजदीक आ रहा है. अपनी कम्पनी सुधारो. जहां तक रियाया के तौर तरीके जानने की बात है तो, हमारे दरबारी जनमर्दन बेदी ने तुम्हें पंचतंत्र पढाने की पेशकश की है.
हाँ तो तुम्हें धनदोहन सिन के नाम पर ऑबजेक्सन क्यों है?

(राजकुमार राउल डांट से सहम से गए थे. जनमर्दन और पंचतंत्र नाम सुनते ही उन्हें कोफ्त हो गई थी. सामने थाली में पड़ा कोफ्ता उन्हें करैले जैसा लगने लगा था. जल्दी से अपने को सँभालते हुए बोले)
- माँ मुझे कोई ऑबजेक्सन नहीं है. जब तक तुम महारानी हो कोई भी प्रधान रहे क्या फर्क पड़ता है? रिमोट तो तुम्हारे पास ही रहेगा.

- बेटा, उस रिमोट को भूल जाओ. मैंने नया अमेरिका से मँगाया है. उसमें वायरलेस कंट्रोल है जिसे तुम भी अपने मोबाइल से या लैप टॉप से ऑपरेट कर सकोगे और मेरे पास तो वह हमेशा रहेगा ही. इतना ही नहीं, अमेरिका ने स्विटजरलैण्ड वगैरह से बैंक खातों की जो जानकारी प्राप्त की है वह उसमें प्री लोडेड है.

(इतना सुनते ही राजकुमार राउल ने उछल कर महारानी के पाँव पकड़ लिए)

- माँ, तुम महान हो. रियाया चाहे जो समझे तुम वाकई महान हो. लेकिन एक पेंच है माँ. अगर रिमोट की ऐसी वैसी जानकारी धनदोहन जी या किसी और के पास पहुँच गई तो?

- बेटा, धनदोहन जी अपने खास सिपहसालार हैं. उन्हें सब पता है. वैसे भी रिमोट में आँकड़े अपडेट होते रहेंगें. पहले उसे हम जानेंगें फिर यह हमारे उपर होगा कि धनदोहन जी को उसका एक्सेस दें या नहीं....

मेरे दोस्त ने बताया है कि स्विटजरलैण्ड और बैंक की बात सुनते ही उसे एक जरूरी फोन करने की याद आ गई और बात को बीच में ही छोड़ वह फोन करने चला गया. वैसे भी डिनर समाप्ति की ओर था और राजपरिवार अब जिस एक खास यूरोपियन अन्दाज लिए अंग्रेजी में बात करने वाला था वह उसके पल्ले कम ही पड़ती थी.

राजधानी में रहते हुए मेरे दोस्त ने राष्ट्रीय शव-तांत्रिक दलदल के बारे में जो कुछ जाना सुना है, रोचक है. फिर कभी बताउँगा. फिलहाल विदा दें.. (अगला भाग)

शुक्रवार, 15 मई 2009

कौन ठगवा नगरिया लूट लयो?

चुनाव परिणामों के एक दिन पूर्व कुमार गन्धर्व का गाया कबीर का यह निरगुन सुन रहा हूँ. कुछ अलग ही अर्थ ले रहा है.


ठगों ने लूट लिया हमें. मजे की बात कि कल लूट के बँटवारे को हम बड़े उत्साह के साथ लाइव टी वी पर देखेंगें. हमें अपने लुटने का कोई भान नहीं होगा. हम तो एक खेल प्रेमी की तरह पल पल बदलते स्कोर के रोमान्च में तल्लीन यह जोड़ लगाने में मसगूल होंगें कि अब आगे 5 वर्षों तक हमारा मुनीम कौन होगा ! कौन होगा जो अर्थ व्यवस्था और मुद्रा प्रबन्धन पर बड़ी बड़ी बातें करेगा और चुपके चुपके गद्दी के नीचे से माल सरकाता रहेगा !!


हमारे हिस्से आएँगें बस खाता, बही, रजिस्टर वगैरह.
माल तो कहीं और ताल मिला रहा होगा.

. . . आए जमराज पलंग चढ़ि बैठा, नैनन अँसुआ फूटलयो
कौन ठगवा नगरिया लूट लयो? . . .

प्रतीक्षा करें कल की.

रविवार, 3 मई 2009

उल्टी बानी (अंतिम भाग) – चुनाव, एक पर्व एक उत्सव

(अ)
बात उस समय की है जब ए टी एम नए नए लगने प्रारम्भ हुए थे. एक समाचारपत्र में किसी आम व्यक्ति की प्रतिक्रिया थी कि ए टी एम की सबसे बड़ी अच्छाई यह है कि यह मुँहदेखी नहीं करता. बैंक में पैसे निकालने जाओ तो क्लर्क पहचान और रसूख वालों के साथ ढंग से बात भी करता है और पैसे भी ज़ल्दी दे देता है. जब कि मुझे घण्टों लगाता है और उपर से सीधे मुँह बात भी नहीं करता. पिछ्ले पोस्ट में मैंने टेक्नॉलॉजी के “समता और सुलभता” वाले पक्ष की जो बात की थी उसका यह एक उदाहरण है. अपने देश में मेधा की कमी नहीं है. आवश्यकता है दृढ़ निश्चय और समर्पण की. सुझाए गए तमाम तकनीकी युक्तियों को लागू कर समूची निर्वाचन प्रक्रिया को आमूल चूल बदला जा सकता है.
तकनीक के प्रयोग का एक सबल पक्ष यह भी है कि दो तिहाई से अधिक मतदाता युवा वर्ग से हैं और स्वभावत: यह वर्ग तकनीकी परिवर्तनों की ओर आकृष्ट हो कर मतदान का प्रतिशत बढ़ाएगा. मेरे पास कोई ठोस तर्क तो नहीं है लेकिन न जाने क्यों लगता है कि यदि मतदान का प्रतिशत 95 या उससे अधिक सुनिश्चित कर दिया जाय तो हमें अल्पमत की सरकारों से छुटकारा मिल जाएगा. अस्थाई, अनैतिक, तिकड़मी और अवसरवादी गठबन्धनों से, जो कि हमारी शासन व्यवस्था की एक दु:खद वास्तविकता बन चुके हैं, भी छुटकारा मिल जाएगा.
अब समय आ गया है कि प्रत्याशियों के मामले में सबको समान अवसर देने की सर्वविनाशी और मूर्खतापूर्ण मानसिकता से मुक्त हो कर हम सीमित पार्टी संख्या वाले लोकतंत्र के मॉडल को अपना लें. निर्दल प्रत्याशियों पर प्रतिबन्ध लगे और भारत की विविधता को देखते हुए कम से कम चार पार्टियों को मान्यता दी जाए. यह पार्टियाँ दक्षिणपंथ, वामपंथ और मध्यमार्ग की राहों वाली हो सकती हैं और चौथा विकल्प किसी भी अन्य मॉडल के लिए रखा जा सकता है. पिछ्ले चुनावों में पाए गए मत प्रतिशत के आधार पर इनकी पहचान हो सकती है. इसके साथ ही क्षेत्रीय पार्टियों को कोई एक विकल्प चुन कर विलय का विकल्प दे दिया जाय. इन चार पार्टियों के संविधान दुबारा लिखे जाँय, नाम और चुनाव चिह्न भी आंतरिक प्रक्रिया द्वारा दुबारा रखे जाँय.
चार पार्टियों की सीमा से यह लाभ होगा कि टेलीफोन, मोबाइल, इंटर्नेट, ए टी एम, पोस्ट ऑफिस, बैंकों आदि सब स्थानों पर तकनीकी प्रयोगों द्वारा मत देने की स्थाई और एक समान तंत्र के विकास और उसे लागू करने में बड़ी सहूलियत हो जाएगी. मतदान की प्रक्रिया भी लचीली, अल्पव्ययसाध्य और साथ ही तीन चार दिनों तक लगातार जारी रह सकेगी जिससे मतदान का प्रतिशत 95 को भी पार कर सकेगा. राज्यसत्ता द्वारा चुनावों की सम्पूर्ण फाइनेंसिंग आसान और अल्पव्यय साध्य हो सकेगी. धन और बाहुबल का जो ज़ोर आज दिख रहा है वह समाप्त हो जाएगा और सही मायने में लोक प्रतिनिधि चुनने में योग्यता और कर्मठता ही कसौटी होंगें न कि यह क्षमता कि प्रत्याशी कितना धन चुनावों में इनवेस्ट कर सकता है.
लोकतंत्र की कसौटी निर्बल और सबल दोनों को योग्यता के आधार पर समान अवसर और प्लेट्फॉर्म उपलब्ध करा सकने में सक्षम होने में है न कि सींकिया पहलवानों को रिंग में केवल समान अवसर के पाखण्ड प्रदर्शन के लिए मुहम्म्द अली सरीखे धन पशुओं के सामने उतारने में. ऐसे मामले में परिणाम की प्रतीक्षा तो बस एक खानापूरी ही होती है. सबसे बड़ा नुकसान यह होता है कि जनता ऐसे आडम्बर पूर्ण आयोजनों से उदासीन हो जाती है. बहुसंख्यक (चुनावी गणित के अर्थों में न लें) जनता या तो मसखरी का आनन्द लेती है या अपने दैनिक समस्याओं से जूझती इसका मौन बहिष्कार कर देती है. मसखरों के लिए दैनिक मोनोटोनी से मुक्त होने का यह एक बहाना बन जाता है. यही कारण हैं कि हमारे प्रभु वर्ग का हमेशा सत्ता में बने रहने का और धन दोहन का षड़यंत्र स्वतंत्रता के समय से ही फल फूल और सफलीभूत हो रहा है.
(आ)
एक ऐसा आयोजन जिससे हमारा भाग्य सीधा जुड़ा हुआ है, जो 5 वर्षों में केवल एक बार ही होता है, जिससे हमारे दैनिक और आजीवन प्रकल्प सीधे प्रभावित होते हैं और जो हमारी, हमारी आगामी पीढ़ियों और हमारे पूरे देश की नियति को निर्धारित करता हो; उससे हम इतने उदासीन क्यों हैं?
होली, दिवाली, ईद, बैसाखी को मनाने के लिए तो किसी आह्वान की आवश्यकता नहीं पड़ती! फिर इसमें सम्मिलित होने और सक्रिय योगदान देने के लिए प्रचार, आह्वान, नुक्क्ड़ नाटक आदि की आवश्यकता क्यों पड़ती है? हमारी नींद का आलम तो यह है कि ये सब भी हमें जगा नहीं पा रहे हैं.
हम उल्लसित क्यों नहीं हैं? बात लू लगने की नहीं है. बात यह है कि हमारे उर में हिलोरों की इतनी कमी है कि सूरज की गर्मी जैसी दैनिक घटना भी हमें इस महापर्व को मनाने से रोक दे रही है. क्यों?
यह आयोजन तो पर्व और उत्सव की तरह मनाया जाना चाहिए, बल्कि यह हमारे जीवन का सबसे बड़ा पर्व होना चाहिए. हम इसका शांत और क्लांत भाव से बहिष्कार क्यों कर रहे हैं? हम इतने निष्क्रिय हो कर क्यों इसे चन्द उठाईगीरों के आमोद प्रमोद और उनकी समृद्धि का माध्यम बनाए दे रहे हैं? हम क्यों नहीं एक साथ उठ खड़े हो रहे हैं, एक आमूल चूल परिवर्तन के लिए? आखिर हमें सक्रिय होने से नुकसान ही क्या होने वाला है? सामूहिक प्रमाद की यह महामुद्रा जो हम धारण किए हुए हैं, उसकी सिद्धि क्या है? यही न कि दिन ब दिन हम रसातल में धँसते चले जा रहे हैं !
इन सबका कारण यह है कि हम एक बनी बनाई व्यवस्था को ही सब कुछ मान बैठे हैं. हम यह मान बैठे हैं कि इसमें और कुछ परिवर्तन नहीं हो सकता. हम यह मान बैठे हैं कि धन और बाहुबल का यह अनिष्टकारी मायाजाल ही वास्तविकता है. याद करिए कि सूचना के अधिकार के लिए संघर्ष ने क्या कर दिखाया. उसे लागू करने के मॉडल पर बहस हो सकती है लेकिन इससे तो इनकार नहीं हो सकता कि बहुत बड़ी शक्ति हमें इस एक अधिकार से मिली है. इसका बहुत ही सार्थक उपयोग भी हो रहा है.
ब्लॉग पर ही सही, परिवर्तन के लिए एक आन्दोलन खड़ा हो सकता है हमारी निर्वाचन प्रक्रिया में आमूल चूल परिवर्तन के लिए. हमें एक पर्व और उत्सव के नैसर्गिक अधिकार से बंचित कर दिया गया है. क्या यही एक कारण पर्याप्त नहीं है कि हम समूचे तंत्र को झँकझोर दें ! ज़रा सोचिए ! कलम उठाइए और लिखिए. समय की कमी कुछ नहीं है, बस घड़ी के दो हाथों का सम्मोहन है. उससे छूटिए. समय बहुतायत में मिलेगा. लिखिए कि उत्सव आयोजन का निमंत्रण पत्र आने को है.. ....पाँच वर्षों के बाद ! या उससे पहले ही?

रविवार, 26 अप्रैल 2009

उल्टी बानी (भाग दो) - अर्थ, अनर्थ, सब व्यर्थ

यस्यास्ति वित्तं स नरः कुलीनः स पण्डितः स श्रुतवान् गुणज्ञः ।
स एव वक्ता स च दर्शनीयः सर्वे गुणाः काञ्चनमाश्रयन्ति ।। (भर्तृहरि विरचित नीतिशतकम्, 41)
“जिसके पास धन है वही कुलीन, वही विद्वान, वही वेदज्ञ, वही गुणी है. वही वक्ता है और वही सुदर्शन भी. सारे गुण कंचन (सोना, यहाँ धन के लिए व्यवहृत) में आश्रय पाते हैं.”



हम भारतीय बड़े पाखण्डी हैं. त्याग, संतोष वगैरह पर हर भारतीय ज्ञान की ऐसी गंगा बहाने में सक्षम है कि दूसरे उसमें पानी भरने को मज़बूर हो जाएँ या पानी माँगने लगें. हमारी अर्थलिप्सा कितनी ऐतिहासिक और शाश्वत है, यह भर्तृहरि के उद्धृत श्लोक से स्पष्ट है. अपने नीति शतक में वह एक नग्न यथार्थ का वर्णन कर रहे थे, व्यंग्य कर रहे थे, उस युग की मान्यता को लिख रहे थे या अपनी झुँझलाहट को व्यक्त कर रहे थे? इतना स्पष्ट है कि अर्थ उस समय भी हमारी मनीषा के केन्द्र में था. अर्थ को केन्द्र में होना ही चाहिए क्यों कि धर्म, काम और मोक्ष तीनों के लिए यह आवश्यक है. साथ ही सभ्यता के विस्तार और विकास के लिए अर्थ केन्द्रित व्यवस्था का होना पहली शर्त है. किंतु कैसा ध्वंश होता है जब साधन ही साध्य बन जाए, यह देखना है तो भारत से बेहतर कोई स्थान हो ही नहीं सकता. आँकड़ेबाजी में मैं नहीं घुसना चाहता लेकिन आँकड़ों का सार देना यहाँ अपेक्षित है.

वर्तमान चुनावों में ऐसे प्रत्याशियों की संख्या तीन अंकों में पहुँचती है जिनकी घोषित संपत्ति एक से नौ करोड़ है. ऐसे प्रत्याशी भी संख्या में दो अंकों के चरम पर पहुँचते हैं जिन्हों ने दस से निन्यानबे करोड़ की संपत्ति घोषित की है. सौ करोड़ या उससे अधिक की संपत्ति घोषित करने वाले भी इकाई के अंक तक सीमित नहीं रहे.
क्या आप को इसमें किसी बहुत बड़े घपले की बू नहीं आती? दिमाग मेँ घण्टी नहीं बजती ? हो सकता है कि उनकी सारी संपत्ति खून पसीने की और वैध कमाई ही हो. यदि ऐसा है तो क्या आप के मस्तिष्क में और ज़ोर से घंटा नहीं बजता? क्या आप को साँप नहीं सूँघता कि पिछ्ले 62 वर्ष किस तरह की व्यवस्था को बनाने और सँवारने में हमने गँवाए? यह कैसा अनर्थ हो गया हमसे?
बरजोरी यह कि यह व्यवस्था अब हम को ललकार रही है वोट करो !घर से बाहर निकलो !! मतदान करें, यह आप का पवित्र अधिकार है!!! अधिकार भी पवित्र और अपवित्र हो सकता है! बड़ी विडम्बना है.
यह कैसी पवित्रता है प्रभु? कितना महँगा अधिकार है यह ! मुद्रास्फीति और महँगाई, लोगों के बढ़ते जीवन स्तर (?), अर्थ व्यवस्था का खुलना और हमारा अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार से जुड़ना, वगैरह, वगैरह.... आप के दिमाग में कीड़े कुलबुलाने लगे होंगें. आप का दोष नहीं है यह. अर्थ के अनर्थ तंत्र ने सुनियोजित माया का जो आवरण आप के चारो ओर फैला रखा है, उसमें आप यही सब सोच सकते हैं. उन्हें यह पूरा पता है कि हमारे पास और कोई विकल्प ही नहीं है. बरबस ही ध्यान ‘मैट्रिक्स’ फिल्म में दिखाए गए माया जाल की तरफ खिँच जाता है.
एक करोड़ क्या होता है मैं आप को सरल ढंग से समझाने की कोशिश करता हूँ. अर्थशास्त्रियों के मत भिन्न हो सकते हैं, आखिर वे स्पेस्लिस्ट ठहरे और वर्तमान व्यवस्था के ध्वजवाहक भी ! यदि आप आज से 5000 रुपए प्रति माह बचाना शुरू करें और आप को मिलने वाला ब्याज दर 8% वार्षिक हो तो एक करोड़ ज़मा करने में आप को लगेंगें 34 वर्ष !!
चौंतिस वर्षों की साधना और संयम !! अधिक प्रसन्न होने की आवश्यकता नहीं है. इसमें यदि मुद्रास्फीति की औसत दर केवल 3% ही जोड़ दें तो आप का यह भविष्य का एक करोड़ वर्तमान के केवल 3660450/- इतना ही ठहरता है. क्या होगा यदि 8% का ब्याज 34 वर्षों तक स्थाई न रह कर घटता जाए. वर्तमान में तो यही लगता है. तब संभवत: अपने जीवन काल में आप करोड़पति नहीं बन पाएँगे. सन्न रह गए न !
यह अर्थ की अनर्थकारी माया है, मृगतृष्णा है. माया महाठगिनि हम जानी.
कितनी बड़ी ठगी चल रही है. मैं उद्योगपतियों की बात नहीं कर रहा. वहाँ अर्थ जनरेसन के अलग कारक और नियम होते हैं. वहाँ करोड़ बनाना इतना दुस्तर नहीं. मैं आम आदमी की बात कर रहा हूँ.
मैं यह मन कर चला था कि आप के पास 60000 रु. सलाना बचाने की क्षमता है. इस 60000 के बचत की तुलना उदाहरण के लिए पूर्वी उत्तर प्रदेश की प्रति व्यक्ति आय से करें जो करीब 10000 के पास बैठती है. एक घर में चार व्यक्ति गिनें जाँय तो प्रति गृह आय 40000 रु. होती है. सकल हिन्दुस्तान की स्थिति भी बहुत बेहतर नहीं है. नंगा नहाएगा क्या और निचोड़ेगा क्या?
और आज के चुनावों में कितने एक एक करोड़ प्रतिदिन व्यय किए जा रहे हैं, बाँटे जा रहे हैं इन प्रत्याशियों द्वारा ! यह पैसा आ कहाँ से रहा है? कभी सोचा है आपने ? ये अलग ढंग के उद्योगपति हैं. यह उनका इंवेस्टमेंट है. रिटर्न पांच वर्षों में हम से आप से दूहा जाएगा.
हमारे बच्चों के दूध से आएगा यह पैसा, हमारे खलिहान से उठाया जाएगा यह पैसा, बज्र गर्मी में जब हम आप बिजली विभाग को कोस रहे होंगे तो ए सी चैम्बर में ठुमके लगा रहा होगा यह पैसा, टैक्स ज़मा करवाने के लिए जब आप लाइन में लगे होंगे तो चुपके से आप की ज़ेब काट रहा होगा यह पैसा. जब बच्चे की ऊँची शिक्षा के डोनेशन के लिए आप यहाँ वहाँ नाच रहे होंगें तब तबला और हार्मोनियम बजा रहा होगा यह पैसा....
यह है हमारा समता मूलक समाज ! यह विराट सुनियोजित षड़यन्त्र, यह अर्थ की हमारे आप के लिए अनर्थकारी व्यर्थता. दोष किसका है? हमारी आप की पाख़ण्डी मानसिकता का है जो गालियाँ तो खूब देती है लेकिन खिसियानी बिल्ली और अंगूर खट्टे हैं की तर्ज़ पर. मौका मिले तो इन धनपशुओं के आगे समर्पण क्या उनका चरण चुम्बन तक करने में हमें शर्म नहीं.
क्या पाएँगे आप वोट दे कर? ज़रा नज़र डालिएगा चुने हुए अपने नुमाइन्दगों की लिस्ट पर. कितने ही करोड़पति होंगें उसमें. ज़रा उनके इतिहास का पता लगाइएगा , करोड़पति बनने में उन्हें चार साल भी नहीं लगे होंगें, 34 साल तो बहुत लम्बा काल होता है.
जो नहीं होंगें वे पहले ही सेकण्ड से उस क्लब में शामिल होने की होड़ में लग जाएँगें. जिस देश में आज भी भूख से लोग मरते हों, उस देश में ऐसे सैकड़ो करोड़पति हर साल पैदा हो रहे हैं. कौन है इनकी जननी और कौन है इन हरा_यों का जनक?
हम आप !

बदलाव कैसे हो? लोकतंत्र से बेहतर कोई विकल्प आज हमारे पास नहीं है. बस तंत्र से अर्थ की अनर्थकारी व्यर्थता दूर करनी होगी. कैसे? टेक्नॉलॉजी से. क्यों कि टेक्नॉलॉजी का उत्स ही समता और सुलभता के लिए होता है........... बात अभी शेष है.

शनिवार, 18 अप्रैल 2009

उल्टी बानी (भाग एक) - पंचवर्षीय कर्मकाण्ड

पंचवर्षीय कर्मकाण्ड का प्रथम चरण संपन्न हुआ. ढेर सारे आडम्बर हुए:
- अभिनेताओं ने जनता से अपील की – वोट के दिन घर से बाहर निकलो...
- स्वयंसेवी संस्थाओं ने नुक्क्ड़ नाटक किए.
- अखबारों ने इस्तहार निकाले बड़े बड़े.
- टी.वी. पर एक विज्ञापन खूब चला – वोट करो. 21 वी सदी के मुरीद एक पुराने प्रधानमंत्री ने हमें एक नई शब्दावली दी थी – ‘करा करी’ वाली. उसी की तर्ज़ पर नई पीढ़ी को रिझाने के लिए वोट “करो” ..खूब गूँजा.
- ट्रांसफरेबल नौकरी वाले तथाकथित बुद्धिजीवियों ने जोश में आ कर नई जगहों पर दुबारा वोटर कार्ड बनवा लिए... क्या फर्क पड़ता है यहाँ के लिए भी एक कार्ड बन जाए? आखिर बंगलादेशी भी लिए घूम रहे हैं! ...
और यह सब अभी चल ही रहा है. अभी तो कितने चरण बाकी हैं! एक राष्ट्रीय टाइम पास हो गया है.. वोट करो..जय हो...भय हो... जय हे.....पैसे बाँटे जा रहे हैं ... बड़ी पुख्ता व्यवस्था है.. ट्रेनिंग दर ट्रेनिंग चल रही है. सरकारी ऑफिसों में अधिकारियों को नया बहाना मिल गया है. इलेक्सन है साहब को फुर्सत कहाँ..आप की फाइल देखने को? गोया पहले निहाल कर देते थे फाइल देख देख कर!
पूरा देश व्यस्त है. सौदे हो रहे हैं किसे कहाँ वोट करना है? किसे घर में ही रहना है.....
और पहले चरण में इतनी नौटंकी के बाद भी यू.पी., बिहार में वही ढाक के तीन पात. आधे मतदाता घर से बाहर ही नहीं निकले.नक्सलियों ने वास्तविक सत्ता किसके हाथ में है इसका क्रांतिकारी शंख़नाद भी अपने तरीके से कइ जगहों पर किया.

इस बड़े लबड़धोंधों के दौरान क्या आप कभी सोचते भी हैं कि क्या होगा अगर सारे मतदाता सचमुच निकल पड़े वोट देने? क्या तंत्र इसके लिए तैयार है? वोटिंग टाइम और बूथों की संख्या क्या पर्याप्त होगी उसके लिए?
यह सब आप को एक षड़यंत्र नहीं लगता? बहुत ही सुनियोजित वेल स्ट्रक्च्रर्ड ! आखिर 58 सालों से चल रहा है. क्यों वोट देना जनता की इच्छा पर छोड़ दिया गया है? क्यों एक जगह पर एक ही दिन वोट पड़ता है?
क्यों यह प्रचारित नहीं किया जाता कि एक ऑप्सन यह भी उपलब्ध है कि हमें कोई उम्मीदवार पसन्द नहीं? हम सब को लतियाना चाहते हैं क्यों कि ये सभी उठाइगीर इस देश को चलाने के लिए “अयोग्य” हैं...डिस्क्वालिफॉइड!
क्यों यह प्रक्रिया तब तक नहीं चल सकती जब तक कम से कम 95% , 96%..... जैसी पोलिंग नहीं हो जाती?
....नहीं नहीं साहब मुझे मत बताइए कि बड़ी कयामत हो जाएगी. संसाधन कहाँ हैं इसके लिए? लॉ ऐण्ड ऑर्डर का क्या होगा?....आखिर पूरे संसार में ऐसे ही होता है! हम में कौन सुर्खाब के पर लगे हैं !!.....हमारे पास ठीक से कराने के लिए लोग कहाँ हैं?.
इस देश ने कर दिखाया है. बानगी देखिए..शायद आप भूल गए हैं:
- एक निर्वाचन आयुक्त सनक जाता है नौटंकी देखते देखते... और पूरा तंत्र एक ही चुनाव में बदल जाता है. जनता जान जाती है कि अनुशासन के साथ चुनाव कैसे होते हैं. प्रक्रिया जारी रहती है. इलेक्सन दर इलेक्सन.
- एक प्रधानमंत्री और उसका वित्त मंत्री निर्णय लेते हैं... शोर शराबा उठता है देश बेंच रहे हैं. दूसरी ग़ुलामी .... वगैरह... अर्थव्यवस्था खुल जाती है. परिणाम आप के सामने हैं.
- एक प्रधानमंत्री निर्णय लेता है. पूरे भारत को सड़कों के जाल से जोड़ने का. बहुत बवाल. कितनी ज़मीन जाएगी! सीमेंट और बाकी सामान कितने महंगे हो जाएँगें/गए.... सब के बावज़ूद काम हुआ और चल रहा है और सीमेंट कितना ही महंगा हो गया हो गांवों से ले कर शहरों तक घर बनने कम नहीं हुए.....
- एक कं. निर्णय लेती है..सब के हाथ मोबाइल होगा. बहुत फायदा होगा.... और कुछ ही सालों में अंतर...मेरा मोबाइल घनघना रहा है..बीबी जी को बोलना आज काम पर देर से आऊँगी. अर्जेण्ट हो तो मेरे नं. पर मिस कॉल कर देना !!
----- बड़ी लम्बी लिस्ट है गिनाने बैठूं तो. जब अलग अलग क्षेत्रों में क्रांतिकारी कायापलट हो सकती है तो इस क्षेत्र में क्यों नहीं ? विकल्प गिनाता हूँ:
- इनकम टैक्स रिटर्न की तर्ज़ पर यह अनिवार्य कर दिया जाय कि हर वोटर कार्ड धारक को वोट देना ही होगा. वह इंटर्नेट पर करे, ए टी एम से करे या बूथ पर जाए. पोलिंग दो दिन हो और दो दिन के एक्स्टेंडेड पिरियड में पोलियो ड्रॉप की तर्ज पर घर घर जा कर वोट दिलवाए जाँय. इंटर्नेट या ए टी एम या खाताधारक बैंकों के आन लाइन साइट या इलेक्सन कमीशन के साइट पर भी चारो दिन वोटिंग के ऑप्सन उपलब्ध रहें.
- ई मेल सेवा देने वाली कम्पनियॉ आज कल असीमित मेल बॉक्स साइज दे रही हैं. ज़रा सोचिए करोड़ों खाता धारकों को असीमीत मेल बॉक्स साइज अगर एक प्राइवेट कं दे सकती है तो करोड़ों मतदाताओं का ऑन लाइन बायोमेट्रिक डाटा बेस क्यों नहीं बनाया जा सकता?
- क्यों नहीं सेटेलाइट लिंक के ज़रिए गांव गांव पोर्टेबल वोटिंग मशीनें नहीं घुमाई जा सकतीं? बायोमेट्रिक प्रिंट तो हर मत दाता के लिए यूनीक होगा. गांवों के भूलेख यदि ऑन लाइन उपलब्ध हो सकते हैं तो हर टोले पर पटवारी और लेखपाल जा कर वोट क्यों नहीं डलवा सकते.
- हर मतदाता को ए टी एम कॉर्ड के पासवर्ड की तर्ज पर एक टेम्पोरेरी पासवर्ड दिया जा सकता है. अपने मोबाइल से इस का प्रयोग कर वह वोट कर सकता है.
अगर आप सोचें तो आप भी कुछ नायाब तरीका सुझा सकते हैं. यदि कुछ मस्तिष्क में आता है तो उसे पोस्ट करें. कैंची नस्ल के लोग जो हर बात को काटते ही रहते हैं और दोष दर्शन जिनका मौलिक स्वभाव है, मैं उनकी बात नहीं कर रहा.
समस्या यह है कि लोकतंत्र के नाम पर एक बहुत बड़ा षड़यंत्र चल रहा है और हम आप चुपचाप तमाशा कैसे देखते रह सकते हैं? आखिर इतनी महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया को जो पाँच वर्षों में एक बार ही होती है, इतना जटिल, दुरूह और व्यय साध्य क्यों बना दिया गया है? कहीं यह प्रभु वर्ग की हमेशा सत्ता में बने रहने की चाल तो नहीं !...जरा मनन करें..................................जारी