रविवार, 27 नवंबर 2011

कास, कुश, खस, दर्भ, दूब, बाँस के फूल और कुछ मनबढ़ई

kaasa
शरद ऋतु में कास, Saccharum spontaneum
कास हर शरद फूलते हैं। प्रकृति मैदानों के उन सरेहों को यह उपहार हर वर्ष देती है जहाँ हिमपात नहीं होते। उन्हें बहलाती है – क्या हुआ जो हिमपात नहीं? इनका सौन्दर्य अलग है। मन्दानिल पर कभी हिम लहरा सकता है क्या? लेकिन इन्हें देखो तो सही! कितना सुन्दर नृत्य है!!
मेरे मन पर नहर किनारे पिताजी के साथ खेतवाही निकलने पर दूर दूर तक पसरे लहराते कास कुंजों की छवि अमिट है। पैसेंजर ट्रेन से गुजरते उन पर अठखेलियाँ करती धूप और लहराती शुभ्र धुपछैंया – खिड़कियों से इससे बढ़ कर प्यार नहीं किया जा सकता। आप भी सोचेंगे आज क्या ले कर मैं बैठ गया?
यदि आप निपट अकेले खेतों के मेड़, बाग, दिन में अँधियारे बगीचों, नहर किनारे नहीं भटके हैं, हर सौ एक पग पर किसी अनजान वनस्पति को देख बच्चे सरीखे कौतुहल के साथ बैठ उसे कुछ क्षण निहारे नहीं हैं और भोले आश्चर्य से ग्रसित नहीं हुये हैं तो आप को मुझे समझने में कठिनाई होगी। बचपन गया, कैशोर्य गया; नून रोटी के चक्कर में अब वैसा नहीं हो पाता लेकिन जब भी अवसर मिलता है, मैं नहीं चूकता। इंटरनेट और ब्लॉग का संसार भी अवसर दे देता है।
इस बार चक्र प्रारम्भ हुआ अवधिया जी की इस पोस्ट से जिसमें कास का उल्लेख था। कास या काँस को देवी दुर्गा का स्वागत पुष्प माना जाता है - शारदीय नवरात्र के आसपास मातृपूजा हेतु प्रकृति का उपहार। अवधिया जी का फैन होने के लिये स्वयं को सराहा और मैं तो मैं! पुराना भ्रम सिर उठा बैठा - कहीं कास मूँज तो नहीं? यह प्रश्न अचानक उठा और पवित्री की स्मृति हो आई। वही पवित्री जो कुश की बनती है और पूजा पाठ के अवसर पर हाथ में अँगूठी की तरह पहनी जाती है। कुश और मूँज में अन्तर को लेकर मैं उलझा करता था। नवरात्र में पूजा करते पुरोहित जी अन्तर समझाने के असफल प्रयत्न करते और बात दर्भ पर आ कर और उलझ जाती। वैदिक युग से ही दूर्बा, कुश और दर्भ (आधुनिक विज्ञान के विश्लेषण से देखें तो सब के सब घास) बहुत पवित्र माने गये हैं। ऋग्वेद के प्रथम मंडल में कुश(र), दर्भ, सैर्या और मूँज का वर्णन मिलता है जहाँ साँप(?) और उस जैसे अन्य जीव अदृश्य विचरण करते हैं: 
शरास: कुशरासो दर्भास: सैर्या उत।
मौञ्जा अदृष्टा बैरिणा: सर्वे साकं न्यलिप्सत॥191.3॥ 
doob
'दूर्बा' या 'दूब'
Cynodon dactylon 
(syn. Panicum dactylonCapriola dactylon) 
कुश , Desmostachya bipinnata  
दूर्बा या दूब को तो आप सब पहचान सकते हैं लेकिन कुश और दर्भ? हमारे बच्चे तो सम्भवत: दूब भी न पहचान पायें! ऋग्वेद के भाष्यकार सायण के समय से ही कुश और दर्भ को लेकर भ्रांति व्याप्त रही है। लोक में और सामान्य व्यवहार में कुश या कुस या कुसा और दर्भ या दाभ या डाभ या डाभी प्राय: समानार्थी रूप में आज भी प्रयुक्त हो रहे हैं लेकिन वास्तव में ये भिन्न हैं। कुश का वैज्ञानिक नाम Desmostachya bipinnata है। पुराने समय में कुश को 'खर दर्भ' कहा जाता था जब कि दर्भ को 'मृदु दर्भ'। दोनों नामों में दर्भ प्रयुक्त होने से भ्रम हुआ और लोक ने सरलीकरण कर दोनों को एक कर दिया।


दर्भ का वैज्ञानिक नाम Imperata cylindrica  है। इसे लोक में डाभ या डाभी नाम से भी जाना जाता है लेकिन जैसा कि पहले बताया, कई बार लोग कुश को भी डाभ या डाभी बोलते हैं। अन्य देशों में इसे जापानी घास और Red Baron नामों से भी जाना जाता है। इसकी पत्तियाँ ऋतुचक्र और अवस्था अनुसार लाल या बैंगनी सदृश भी हो जाती हैं। अथर्ववेद में दर्भ की प्रशंसा में कई मंत्र हैं। 
दर्भ या डाभ, Imperata cylindrica

mooj
मूँज, Saccharum munja 
... इन वनस्पतियों को लेकर मन में घूमता चक्र कुछ धीमा पड़ा था कि आज अपने प्रिय कवि अविनाश चन्द्र की इस कविता पर दृष्टि पड़ी। हिमांशु, देवेन्द्र पांडेय, रजनीकांत, किशोर चौधरी, संजय व्यास और अविनाश ऐसे कविजन हैं जिनकी हर कविता से कुछ न कुछ नया सीखने को मिलता है। अविनाश ने ‘वानीर’ शब्द का प्रयोग किया जिसका अर्थ होता है – मूँज। अद्भुत बिम्बों के लिये बधाई देने के पश्चात अचानक यह पंक्तियाँ मन मथने लगीं (मन्मथ से अर्थ न जोड़ें Smile )
कौन खींचता है नियम से,
मारूति के नव परिपथ?
वानीर झुरमुटों के बीचोंबीच,
यत्र-तत्र काटते पगडंडियों को।
मैं सोचने लगा यहाँ वानीर के स्थान पर कास का प्रयोग किया जाय तो कैसा बिम्ब हो?
कौन नियम नित्य का यह?
नाचते हैं कास झुरमुट
मन्दानिल के मद्धम ताल

भूलती पगडंडियाँ मार्ग।
अविनाश के यहाँ मारुति के परिपथ को खींचने वाला प्रधान है – कदाचित उद्योगप्रधान बिम्ब और मेरी मनबढ़ई में नियम लेकिन कास झुरमुट के नृत्य पर पगडंडियों का मार्ग भूलना भारी पड़ जाता है – कदाचित अलसाता सा बिम्ब। ‘जाने दूर नक्षत्रों से कौन?’ और ‘कौन तुम संसृति जलनिधि तीर’ वाली उत्सुकता दोनों में है। खैर! यह मेरी मनबढ़ई ही है, उनके जैसा अर्थगहन बिम्ब गढ़ना अपने वश का नहीं है...मूँज और कास एक ही हैं क्या?
वामन शिवराम आप्टे के शब्दकोष में मूँज के लिये ‘दर्भाह्वय:’ शब्द बताया गया है। अब ‘आह्वय:’ का अर्थ कोई संस्कृत विदुषी/विद्वान बतायें तो पता चले। आप्टे शब्दकोष तो उसका अर्थ A name, appellation बताता है। तो क्या मूँज भी पवित्र दर्भ से सम्बन्धित है? उपनयन संस्कार के समय मूँज की मेखला पहनाई जाती है। सामान्य अवधारणा के विपरीत मूँज और कास अलग वनस्पतियाँ हैं। मूँज का वैज्ञानिक नाम Saccharum munja है। डा. पंकज अवधिया ने कास (Saccharum spontaneum) से इसकी भिन्नता को http://botanical.com पर अपने आलेख में स्पष्ट किया है। तय है कि प्राचीन काल से ही मूँज, कुश और दर्भ वनस्पतियाँ आनुष्ठानिक और औषधीय कार्यों में प्रयुक्त होती रही हैं लेकिन कास नहीं। 
kush
खस या खसखस या उशीर या वीरण या काळावाळा
Vetiveria zizanioides  
खस या खुश (Vetiveria zizanioides) की भीगी चट्टी गर्मियों में शीतल बयार के लिये जानी जाती रही है। वही जिसकी जड़ के अर्क से मीठा खस का शर्बत बनता है और जिसे परम्परा से उशीर, हरिप्रिय और सुगन्धिमूल के नाम से भी जाना जाता रहा है। बिहार में इसकी कृषि की जाती है। 
बिहार सिद्धार्थ गौतम के ज्ञानप्राप्ति की भूमि है और कहते हैं कि उन्हें कुश की चटाई पर बैठ कर ज्ञान की प्राप्ति हुई। इसलिये सनातन के साथ साथ बौद्ध परम्परा भी कुश को पवित्र मानती है लेकिन जिन्हें कुश की चटाई कह कर बौद्ध और अन्य देशों को निर्यात किया जाता है, वह वास्तव में खस या खुश की बनी होती हैं। बिहार में यह प्रचुरता से मिलता है। अब यह शोध का विषय है कि गौतम की चटाई कुश की बनी थी या खस खुश की? 
लोक में जिस तरह से दर्भ और कुश को लेकर भ्रांति व्याप्त है, कहीं बौद्ध परम्परा में कुश या खस को लेकर तो नहीं है? हो सकता है कि गौतम खश यानि उशीर की चटाई पर ही बैठे हों, वैदिक कुश की चटाई पर नहीं। मुझे संहिताओं में उशीर नहीं मिला। क्या वैदिक युग में यह वनस्पति ज्ञात नहीं थी? 


...शांत सन्ध्या में फोन आया तो गरिमा बिटिया लाइन पर थी – बड़े पापा! आप जानते हैं बाँस फूलते हैं तो बहुत बुरा होता है? मेरी टीचर ने बताया है और घर पर पूछने को भी कहा है। अब टीचर के मन में जो था, वही जानें लेकिन मैं एक और चक्कर खा गया। बाँस भी कथित घास जाति का ही है। अपने जीवनकाल में एक ही बार फूलता है और फिर मर जाता है। बाँस में ‘सामूहिक पुष्पन’ होता है – भूगोल-ऋतु-निरपेक्ष, जिसकी आवृत्ति दशकों से सदियों तक में होती है। जापान और संसार के कुछ भागों में 130 साल बाद बाँस फूलते पाये गये हैं तो मिजोरम और उत्तरपूर्व के अन्य राज्यों में लगभग 48 वर्षों की आवृत्ति देखी गई है। 1862, 1911, 1959 और 2008 में बाँस फूले और हर बार विनाश या उपद्रव घटित हुये। होता यह है कि बाँस फूलने के बाद उनमें बीज पड़ते हैं जिसके पश्चात बाँस मर जाते हैं। उनकी सामूहिक मृत्यु के कारण जिन क्षेत्रों में अर्थव्यवस्था बाँस पर आधारित है, वहाँ नई बाढ़ तैयार होने तक इस संसाधन का अभाव हो जाता है। बीजों की अधिकता से खाने की उपलब्धता कई गुना बढ़ जाने के कारण चूहे बहुत बढ़ जाते हैं। चूहे बाकी फसलों को चौपट कर देते हैं और दुर्भिक्ष की स्थिति आ जाती है।
bamboo_flower_MogensEngelund
(1)

(2)
bamboo_flowers_in_mizoram_ShahanazKimi
(3)

(1) बाँस के फूल, चित्र : Mogens Engelund
 
(2) बाँस के फूल, चित्र : Joi Ito

(3) बाँस के फूल, मिज़ोरम, चित्र : Shahanaz Kimi
1959 में मिजोरम में यही हुआ। धीरे धीरे अकाल सी स्थिति हो गई और केन्द्र सरकार की बेरुखी ने पहले से जारी अलगाववादी आन्दोलन को बहुत शक्तिशाली और जनप्रिय बना दिया। परिणाम हुआ – लगभग 20 वर्षों तक जारी संघर्ष जिसका समापन राजीव गान्धी लालडेंगा समझौते के साथ हुआ। मिजोरम में विद्रोहियों की सरकार बनी और वे मुख्य धारा में आये...
...अब समाप्त करता हूँ, बात बाँस के फूलने तक जो आ गई! अविनाश के रहते विनाश की बात कौन करे लेकिन विराम होना ही चाहिये Smile बहुत हो गई घास खोदाई! 
आप यह समझ लें कि मिलते जुलते नामों से बहुत भ्रम हो सकता है। उनके गुण एकदम अलग हो सकते हैं। 'कास, कुश और खस' या 'दूब, दर्भ(डाभ)' नामों के मामले में साम्यता रखते हैं लेकिन हैं एक दूसरे से एकदम अलग -  पृथक, स्वतंत्र अस्तित्त्वधारी।  
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आभार: 
विकिपीडिया, डा. पंकज अवधिया, एस. मेहदीहसन, एस. जयलक्ष्मी, अर्जुन पात्रा, वी. के. लाल, ए. के. घोष, तमाम अन्य वेबसाइट और अपने अभिषेक ओझा जिनकी टिप्पणी ने लोक प्रेक्षण से उद्भूत कुश और खस के एक ही होने की अपनी धारणा पर मुझे पुनर्विचार और शोध को प्रेरित किया। 
अभिषेक जी से अनुरोध है कि वह भी अपनी इस धारणा कि मूँज और कास एक ही है, में सुधार कर लें। :) 
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यह आलेख अपने प्रकाशन के पश्चात 01/12/2011 को प्रात: 9 बजे तक संशोधित, परिवर्द्धित और पुनर्प्रकाशित किया गया।

29 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत कुछ जानने को मिल गया बाँस के बारे में और यह भी पहली बार पता चला कि बाँस में फ़ूल आते हैं।

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  2. बांस फूलना निश्चय ही अपसगुन है। कारण भी आपने बता दिया।
    कास फूलने को मैं अपने बालों की सफेदी से जोड़ कर देखता हूं। वैसे ही लगते हैं वर्षा खत्म होने पर!
    बढ़िया पोस्ट।

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  3. किसी का फलना-फूलना, किसी का नुकसान.

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  4. एकदम बढ़िया पोस्ट है...
    बाँस का फूलना कुछ बरस पहले बालाघाट में देख चुका हूँ। इसके बीजों को आदिवासी बड़े चाव से खाते हैं, ऐसा बताया गया था।

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  5. बड़ी मन-भावन पोस्ट! इतनी सुन्दर चीज़ें जीवन से दूर हुई जा रही हैं .

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  6. बड़ी मन-भावन पोस्ट! इतनी सुन्दर चीज़ें जीवन से दूर हुई जा रही हैं .

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  7. आपने जब कास की बात बताई तो मुझे बेंत की बात याद आयी -फूलहिं फलहिं न बेंत जदपि सुधा बरसहि जल्द -बांस और बेंत में भी क्या कुछ साम्य है -काफी वानस्पतिकीय पोस्ट हो गयी है -मैं तो खस का उद्भव बड़ा ख़ास मानता था :)

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  8. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  9. kshama chahta hoon ,lekin shabdo ki shudhdhta par ab tak ke aap ke jor ko dekhte hue dhyan dilane ki dhrishtata kar raha hoon ki kripya "shabdkosh" ka hijje ( spelling) sudhar len.main roz BAU ki talash main aata hoon.dhanyabad.

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  10. My anonymous friend! Thanks. Replying from mobile so in English. Love of readers like you keeps me going...In word 'Shabdakosh' both 'moordhanya' and 'talavya' sounds of 'sa' are permissible in end. Nothing is wrong here...:) On your demand, tomorrow I may publish part of 'Bau' story. But shall you like part story?

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  11. जहाँ तक मुझे पता है - मूँज और कास एक ही हैं !

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  12. बहुत सुन्दर विमर्श। दर्भ के बारे मेंकाफ़ी कुछ जानने को मिला, आभारी हूँ। कुश से हाथ बहुत कटाये हैं। पवित्री की बात पर प्रभु की अपनी धरती पर जन्मे विकल्प पय्यनूर के पवित्रमोतिरम की याद न आये, यह कैसे हो सकता है भला? वैसे इस बाँस-बरेली वाले को घास के नाम पर पहला नाम बाँस का ही याद आता है उसके बीज से जुड़ी तबाही के बावजूद वे अपनी उसी शक्ति के लिये विश्वप्रसिद्ध हैं जिसके कारण विनाश होता है। और दूसरी घास तो भगवान राम से सम्बन्धित है और बड़ी मीठी है। विश्व को ईक्ष्वाकु वंश की भेंट हमारा अपना ठेठ भारतीय गन्ना।

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  13. प्राचीन गुरुकुलों में बरम्चारियों के लिये कुश की चटाई ही क्यों होती थी इसके सम्बंध में सुधीर कक्कड ने 'कामयोगी' में अपने तर्क दिये हैं . कभी समय निकालकर उस पह्लू पर भी....

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  14. कल रात को माताजी को फ़ोन नहीं किया कि उन्हें टेंशन हो जायेगी कि इतनी रात तक मैं सोया क्यों नहीं :)

    अब आपको पूरी कहानी सुनाता हूँ. "वर्षा विगत शरद रितु आई, लछिमन देखहु परम सुहाई. फूले कास सकल महि छाई, जनु बरषा कृत प्रगट बुढ़ाई" ये पहली चौपाईयों में से है जो कहीं बाहर से सुनकर घर आया था और पूछा था कि ये किस कांड में है और क्यों है. उस उम्र में मुझे ये चौपाई इतनी पसंद आई कि याद है एक बार गाँव में पाठ हो रहा था तो मैंने माँ से कहा था कि ये चौपाई आने के पहले बताइयेगा. मैं जाऊँगा बैठ कर गाने :) तब बताया गया था कि कास होता क्या है.

    आज सुबह फिर फ़ोन कर पता किया !. [तहारा न्यूयोर्क में कास आ मुंजी कहाँ लवुक गइल :)] हाँ. जैसा आपने कहा दोनों एक नहीं होते हैं, और मुंज ज्यादा उपयोगी होता है उससे कंडा भी निकलता है. और डलिया-दौरी बीनने के काम में भी आता है. खेतो के छोर पर निशान के लिए भी कुछ इलाकों में इसे इस्तेमाल करते हैं क्योंकि ये जल्दी नष्ट नहीं होता. कंडा, मुंजी, सिरकी (सूप बीनने में इस्तेमाल होता है), पतलो (मड़ई बनाने के काम आता है), झुर ये सभी मुंज से ही प्राप्त होते हैं ! या इस नाम से जाने जाते हैं.

    कास, मुंज की तुलना में छोटा और कमजोर होता है. भादों के बाद कुवार आते ही फूट जाता है. वैसे इसका भी इस्तेमाल लोग टाट और मड़ई बनाने में कर लेते हैं. इसके अलावा एक लेंडई भी होता है. जो बरसात में लगे पानी में होता है. वो और कमजोर होता है - खोखला.
    एक ही प्रजाति के अलग-अलग हैं सभी. ऐसा बताया गया मुझे.

    अब अगली बार घर गया तो और क्लियर करके आता हूँ. सोयी उत्सुकता जगाने के लिए धन्यवाद. :)

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  15. बहुत ज्ञानवर्धक और शोधपरक पोस्ट ..कुश ,खस का बड़ा अनुष्ठानिक और ऐतिहासिक महत्त्व रहा है -कास ,सरपट नरकट आदि भी जुड़े परिवारों के आम दृश्य हैं ..मुझे तो इनसे चीरा लगने का डर रहता रहा है इसलिए दूर भागता हूँ ...!

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  16. Main chammach se kaat kar rasgulla khana pasand nahin karta.Maja to pura rasgulla munh main daalkar uska rasaswadan karne main hai.Utawalepan pan ke liye fir kshama chahta hoon,bau katha ek saath hi prakashit karen,jyada maza aayega.Dhanyabaad!

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  17. @ स्मार्ट इंडियन
    अगली पोस्ट 'ईंख' पर। sugar belt का रहने वाला हूँ। आजकल वाल्मीकीय रामायण पढ़ रहा हूँ।
    इक्ष्वाकु के बारे में कहते हैं:

    मनु: प्रजापति: पूर्वमिक्ष्वाकुश्च मनो: सुत:।
    तमिक्ष्वाकुमयोध्यायां राजानं विद्धि पूर्वकम्॥


    'मनु पहले प्रजापति थे, उनसे इक्ष्वाकु नामक पुत्र हुआ। उन इक्ष्वाकु को ही अयोध्या का प्रथम राजा समझें।'

    देखिये वाल्मीकि काश या कास का कैसे वर्णन करते हैं!

    नवैर्नदीनां कुसुमप्रहासैर्व्याधूयमानैर्मृदुमारुतेन।
    धौतामलक्षौमपटप्रकाशै:कूलानि काशैरुपशोभितानि॥


    'नदियों के तट मन्द मन्द वायु से कम्पित, पुष्परूपी हास से सुशोभित और धुले हुये निर्मल रेशमी वस्त्रों के समान प्रकाशित होने वाले नूतन काशों से बड़ी शोभा पा रहे हैं।'

    ...लेकिन यह ईंख और इक्ष्वाकु में क्या सम्बन्ध है, बतायेंगे?

    @ अभिषेक ओझा

    सेंटी कर दिये भाई! सुना था कि संसार में ऐसे लोग बिखरे हुये हैं जिनके कुछ personality traits एकदम मिलते हैं...अधिक नहीं कहूँगा। लेंड़ई कहीं रेंड़ तो नहीं जो कास जैसे ही फूटती है?

    @ बेनामी भाई
    आप की प्रतीक्षा मीठी हो, प्रार्थना कीजिये। काम जारी है।

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  18. @ अरविन्द जी
    सरपत तो सरकंडा ही है न? नरकट की बनी कलम से हमलोग सुलेख लिखते थे। दोनों अलग होते हैं - सरकंडे की कलम नहीं बनती, वह पोला नहीं होता। वैसे साठी की भी कलम बनती थी जो ठोस तो होती थी लेकिन उसके भीतर दो कोर होते थे और बीच के खाली स्थान में स्याही कुछ ऊपर तक खिंच कर भर जाती थी - पृष्ठतनाव जनित खिंचाव के कारण। स्याही का रंग, दवात के तरह तरह के प्रकार, कापियों पर पानी गिर जाने का डर, स्याही में मिलाने जाने वाले ऐडमिक्स्चर ... ओ: नोस्टाल्जिया, सो रोमांटिक!
    एक ठो पोस्ट तो इस पर भी लिखी जा सकती है।
    ... आप चीरा लगने से कब से डरने लगे? :)

    ... अवधिया जी ने होल्डर से जेल पेन तक शीर्षक से एक पोस्ट आज ही लगाई है - http://dhankedeshme.blogspot.com/2011/12/blog-post.html

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  19. ज़रा देर से आने के आपने फायदे हैं।
    आपके आलेख और अभिषेक जी कि टिप्पणी! गदगद हूँ कि कुछ है जो बचा है, रहेगा, कहीं भी, कभी भी।

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  20. @अगली पोस्ट 'ईंख' पर।
    इंतज़ार रहेगा - जय हो!

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  21. तृण जाति की वनस्पतियों में जीवनी शक्ति अद्भुत होती है...वैदिक ऋषियों का ध्यान इसीलिए उनकी ओर सहज ही आकर्षित हुआ होगा. आयुर्वेद में तृणपञ्चमूल क्वाथ का वर्णन है जिसका आज भी भूरिशः उपयोग किया जाता है. चर्मरोगों में एवं रक्तस्राव को रोकने के लिए दूर्वा स्वरस का उपयोग सर्वविदित है, यह वर्ण्य भी है. अवध के गाँवों में आज भी पतार के छप्पर देखने को मिल जाते हैं. सरकंडे के फूलों में आग बड़ी तेजी से लगती है. लगता है जैस किसी ने पेट्रोल डाला हो.
    राव जी ! आपके लेख से आज बहुत सी बातें याद आ गयीं. नरकुल की कलम और पींपीं, पतार के छप्पर, कुश के जंगल, आम के बागों में उशीर के झुरमुट ( गाँव में इसे गाँड़र भी कहते हैं, दुर्भिक्ष में पशुओं के लिए इसका फोडर के रूप में भी प्रयोग किया जाता है ), पतार से घिरी मेड़ों वाले मूंगफली के खेत, पतली पगडण्डी के दोनों ओर लटकती ओस भीगी तलवारें ......और सामने से कहीं सांड आ रहा हो तो चेहरा चिरना तय समझिये.......

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  22. @ नरकुल की कलम और पींपीं, पतार के छप्पर, कुश के जंगल, आम के बागों में उशीर के झुरमुट ... पतली पगडण्डी के दोनों ओर लटकती ओस भीगी तलवारें

    वाह डाक्टरसाहब! क्या क्या याद दिला दिये। आम के बागों में उशीर तो मैं भूल ही गया था। सही याद दिलाये।

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  23. आज 04/02/2013 को आपकी यह पोस्ट (दीप्ति शर्मा जी की प्रस्तुति मे ) http://nayi-purani-halchal.blogspot.com पर पर लिंक की गयी हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .धन्यवाद!

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