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रविवार, 15 जून 2014

साक्षी भ्रमण ध्यान - 1

10413419_10204078153622312_9166858868039137010_nकठभठ्ठा नोनछा माटी की लीक। ध्यान सी स्थिति - भ्रमण ध्यान। आरम्भ है किंतु अनुभूति ऐसी जैसे कि ध्यान में थिर हुये चौथाई घड़ी बीत चुकी हो। कानों में धीमी अनवरत सीटी बज रही है, स्वरमय शांति है - टी टी टूँ, टुँइ, टुइँ टिर टिर टिर च्यूँ चू, टिउ टिउ टिउ ट ट ट टी टी टूँ, टी टी टूँ। खगछ्न्द के विन्यास,  सुर ताल मन में निर्वात भरते - कोरा, पुरानी धोती सा मन धुलते धुलते धूसर रंग स्वच्छ, लुप्त श्वेतकांति।

यह लीक कहीं नहीं जाती, पग चलते हैं पगले दंडियों के, पगडंडियाँ बनती हैं! खेतों के किनारे श्रमकण खिचड़ी श्मश्रुओं में उलझते हैं, नमी जड़ों तक पहुँचती है, पत्तियों के तीखे कोर बाहों की मछलियों पर गोदने जड़ते हैं, अन्न उपजता है, क्षुधा शांत होती है, ध्यान पकता है। लीक पौढ़ा होती है।

भाठ तापस गेरुआ नहीं ओढ़ता, उसके मटमैलेIMG_20140608_075801841 यादृच्छ चेकित वस्त्र के कोर से हरियाली फूटती है। मुग्ध धरा का हास उनमें जड़ता है, गुड़हल फूलते हैं। पूजा की थाली में मृत पुहुप नहीं, तोड़े गये बलिपुष्प सजते हैं और अक्षत आराधनाओं के घूँघट धूप धूम चर्चित होते हैं। कपूर प्रतिदिन उड़ते हैं, समिधायें पूछती हैं - धरे! जीवन क्या है? वह अनमना उत्तर देती है - अस्थिर संतुलन - फूलने सा, उड़ने सा, जलने सा, बरसने सा और आँकुर अँखुआने सा। 

IMG_20140608_080308670खिले अर्क ने स्वागत किया है। पत्तियों की हरिताभा में शिराओं की दुग्धधार मचल रही है। अभिषेक को न शिव हैं और न हिरण्यपुरुष। भस्मवसना शिवा ने सैरीय नीललोहित वासंत से रंग चुरा निज क्षार दूध मिला दिया तो तुम उपजे? देवी को तो अरुण अड़हुल अर्पित कर चुका, किस आस तुम खिले हो एकाकी??

खिली तो अनामपुष्पा भी है। लहकती किशोरी समीरा का हल्का सा स्पIMG_20140608_081217436र्श होगा और सृष्टि के नियम आदिबाबा की पोटली से रवरोर करते निकल भागेंगे। उड़ उड़ यहाँ वहाँ भैंस की पीठ, कौवे की पाँख, दादा की काँख, पगड़ी, चोटी, आँचल, बोरा, टट्टर की छाँव – सब पर सब ओर सवार अचीन्हे अनदेखे फैल जायेंगे नरम गदबदे फाहों के बीच सिमटे नान्हें से बीज। एक ओस आँसू भर किसी मेड़ पर गिरेगा और अंकुरित होगी नान्ही सी घास - धरती एक तिरिन और लजा जायेगी।

IMG_20140608_080834815रोग लदी हवा हवा हुई। लुप्तप्राय शिंशपा अब लहराने लगे हैं। इनकी सूखी मृत देह ने मन काठ होने का मुहावरा दिया। अभी तो इन्हें लहराते देख मन बाग बाग हुआ जाता है। नीरवता में, ध्यान में उच्छृंखलता आती है, जाती है। द्र्ष्टा हूँ मैं - कहो कि तुम्हारी छाँव इस गोपन में कितनी अभिसारसन्धियों पर अधराक्षर हुये? स्वीकारते अनजाने कौन सी नई फुनगी मसली गयी और कौन सी डार मरोड़ मुड़ महक उठी?

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मौन प्रश्न - लटजीरे सी लटों में मोती पिरोये अकेली! पी कहाँ? कंटक इक्ष्वाकुओं की नगरी में तुम्हें अकेली छोड़ कहाँ गया??
सर सर उत्तर - मेरा सखा तो नभ में है। जानते हो, रोहिन गई, मृगडाह लगने वाला है। उसके आने में अभी देर है। जब आयेगा तब इक्ष्वाकुओं की कँटीलियाँ रसभरी होने लगेंगी, मदमाती मेरे सारे मोती छीन लेंगी। तुम साखी हो हमारे, बताना कि उसकी प्रतीक्षा में मैं कैसी सजी थी और मेरे साथ इन्हों ने क्या किया। कहीं वह मुझे छोड़ उन पर न लुभ जाय!

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किसे कह रही है वह बैरन कँटीली? वह तो यहाँ है। भोली आशाओं जैसे कंटक लिये, पूरी हों तो चाहतें और चुभती हैं, न पूरी हों तो बेधती हैं। सुन्दरता हो तो ऐसी। समय संग परिवर्तन ओढ़ती, निर्वसन होती, सिमटती और ... लहूलुहान करती। छूना मत!!

(जारी)

रविवार, 27 नवंबर 2011

कास, कुश, खस, दर्भ, दूब, बाँस के फूल और कुछ मनबढ़ई

kaasa
शरद ऋतु में कास, Saccharum spontaneum
कास हर शरद फूलते हैं। प्रकृति मैदानों के उन सरेहों को यह उपहार हर वर्ष देती है जहाँ हिमपात नहीं होते। उन्हें बहलाती है – क्या हुआ जो हिमपात नहीं? इनका सौन्दर्य अलग है। मन्दानिल पर कभी हिम लहरा सकता है क्या? लेकिन इन्हें देखो तो सही! कितना सुन्दर नृत्य है!!
मेरे मन पर नहर किनारे पिताजी के साथ खेतवाही निकलने पर दूर दूर तक पसरे लहराते कास कुंजों की छवि अमिट है। पैसेंजर ट्रेन से गुजरते उन पर अठखेलियाँ करती धूप और लहराती शुभ्र धुपछैंया – खिड़कियों से इससे बढ़ कर प्यार नहीं किया जा सकता। आप भी सोचेंगे आज क्या ले कर मैं बैठ गया?
यदि आप निपट अकेले खेतों के मेड़, बाग, दिन में अँधियारे बगीचों, नहर किनारे नहीं भटके हैं, हर सौ एक पग पर किसी अनजान वनस्पति को देख बच्चे सरीखे कौतुहल के साथ बैठ उसे कुछ क्षण निहारे नहीं हैं और भोले आश्चर्य से ग्रसित नहीं हुये हैं तो आप को मुझे समझने में कठिनाई होगी। बचपन गया, कैशोर्य गया; नून रोटी के चक्कर में अब वैसा नहीं हो पाता लेकिन जब भी अवसर मिलता है, मैं नहीं चूकता। इंटरनेट और ब्लॉग का संसार भी अवसर दे देता है।
इस बार चक्र प्रारम्भ हुआ अवधिया जी की इस पोस्ट से जिसमें कास का उल्लेख था। कास या काँस को देवी दुर्गा का स्वागत पुष्प माना जाता है - शारदीय नवरात्र के आसपास मातृपूजा हेतु प्रकृति का उपहार। अवधिया जी का फैन होने के लिये स्वयं को सराहा और मैं तो मैं! पुराना भ्रम सिर उठा बैठा - कहीं कास मूँज तो नहीं? यह प्रश्न अचानक उठा और पवित्री की स्मृति हो आई। वही पवित्री जो कुश की बनती है और पूजा पाठ के अवसर पर हाथ में अँगूठी की तरह पहनी जाती है। कुश और मूँज में अन्तर को लेकर मैं उलझा करता था। नवरात्र में पूजा करते पुरोहित जी अन्तर समझाने के असफल प्रयत्न करते और बात दर्भ पर आ कर और उलझ जाती। वैदिक युग से ही दूर्बा, कुश और दर्भ (आधुनिक विज्ञान के विश्लेषण से देखें तो सब के सब घास) बहुत पवित्र माने गये हैं। ऋग्वेद के प्रथम मंडल में कुश(र), दर्भ, सैर्या और मूँज का वर्णन मिलता है जहाँ साँप(?) और उस जैसे अन्य जीव अदृश्य विचरण करते हैं: 
शरास: कुशरासो दर्भास: सैर्या उत।
मौञ्जा अदृष्टा बैरिणा: सर्वे साकं न्यलिप्सत॥191.3॥ 
doob
'दूर्बा' या 'दूब'
Cynodon dactylon 
(syn. Panicum dactylonCapriola dactylon) 
कुश , Desmostachya bipinnata  
दूर्बा या दूब को तो आप सब पहचान सकते हैं लेकिन कुश और दर्भ? हमारे बच्चे तो सम्भवत: दूब भी न पहचान पायें! ऋग्वेद के भाष्यकार सायण के समय से ही कुश और दर्भ को लेकर भ्रांति व्याप्त रही है। लोक में और सामान्य व्यवहार में कुश या कुस या कुसा और दर्भ या दाभ या डाभ या डाभी प्राय: समानार्थी रूप में आज भी प्रयुक्त हो रहे हैं लेकिन वास्तव में ये भिन्न हैं। कुश का वैज्ञानिक नाम Desmostachya bipinnata है। पुराने समय में कुश को 'खर दर्भ' कहा जाता था जब कि दर्भ को 'मृदु दर्भ'। दोनों नामों में दर्भ प्रयुक्त होने से भ्रम हुआ और लोक ने सरलीकरण कर दोनों को एक कर दिया।


दर्भ का वैज्ञानिक नाम Imperata cylindrica  है। इसे लोक में डाभ या डाभी नाम से भी जाना जाता है लेकिन जैसा कि पहले बताया, कई बार लोग कुश को भी डाभ या डाभी बोलते हैं। अन्य देशों में इसे जापानी घास और Red Baron नामों से भी जाना जाता है। इसकी पत्तियाँ ऋतुचक्र और अवस्था अनुसार लाल या बैंगनी सदृश भी हो जाती हैं। अथर्ववेद में दर्भ की प्रशंसा में कई मंत्र हैं। 
दर्भ या डाभ, Imperata cylindrica

mooj
मूँज, Saccharum munja 
... इन वनस्पतियों को लेकर मन में घूमता चक्र कुछ धीमा पड़ा था कि आज अपने प्रिय कवि अविनाश चन्द्र की इस कविता पर दृष्टि पड़ी। हिमांशु, देवेन्द्र पांडेय, रजनीकांत, किशोर चौधरी, संजय व्यास और अविनाश ऐसे कविजन हैं जिनकी हर कविता से कुछ न कुछ नया सीखने को मिलता है। अविनाश ने ‘वानीर’ शब्द का प्रयोग किया जिसका अर्थ होता है – मूँज। अद्भुत बिम्बों के लिये बधाई देने के पश्चात अचानक यह पंक्तियाँ मन मथने लगीं (मन्मथ से अर्थ न जोड़ें Smile )
कौन खींचता है नियम से,
मारूति के नव परिपथ?
वानीर झुरमुटों के बीचोंबीच,
यत्र-तत्र काटते पगडंडियों को।
मैं सोचने लगा यहाँ वानीर के स्थान पर कास का प्रयोग किया जाय तो कैसा बिम्ब हो?
कौन नियम नित्य का यह?
नाचते हैं कास झुरमुट
मन्दानिल के मद्धम ताल

भूलती पगडंडियाँ मार्ग।
अविनाश के यहाँ मारुति के परिपथ को खींचने वाला प्रधान है – कदाचित उद्योगप्रधान बिम्ब और मेरी मनबढ़ई में नियम लेकिन कास झुरमुट के नृत्य पर पगडंडियों का मार्ग भूलना भारी पड़ जाता है – कदाचित अलसाता सा बिम्ब। ‘जाने दूर नक्षत्रों से कौन?’ और ‘कौन तुम संसृति जलनिधि तीर’ वाली उत्सुकता दोनों में है। खैर! यह मेरी मनबढ़ई ही है, उनके जैसा अर्थगहन बिम्ब गढ़ना अपने वश का नहीं है...मूँज और कास एक ही हैं क्या?
वामन शिवराम आप्टे के शब्दकोष में मूँज के लिये ‘दर्भाह्वय:’ शब्द बताया गया है। अब ‘आह्वय:’ का अर्थ कोई संस्कृत विदुषी/विद्वान बतायें तो पता चले। आप्टे शब्दकोष तो उसका अर्थ A name, appellation बताता है। तो क्या मूँज भी पवित्र दर्भ से सम्बन्धित है? उपनयन संस्कार के समय मूँज की मेखला पहनाई जाती है। सामान्य अवधारणा के विपरीत मूँज और कास अलग वनस्पतियाँ हैं। मूँज का वैज्ञानिक नाम Saccharum munja है। डा. पंकज अवधिया ने कास (Saccharum spontaneum) से इसकी भिन्नता को http://botanical.com पर अपने आलेख में स्पष्ट किया है। तय है कि प्राचीन काल से ही मूँज, कुश और दर्भ वनस्पतियाँ आनुष्ठानिक और औषधीय कार्यों में प्रयुक्त होती रही हैं लेकिन कास नहीं। 
kush
खस या खसखस या उशीर या वीरण या काळावाळा
Vetiveria zizanioides  
खस या खुश (Vetiveria zizanioides) की भीगी चट्टी गर्मियों में शीतल बयार के लिये जानी जाती रही है। वही जिसकी जड़ के अर्क से मीठा खस का शर्बत बनता है और जिसे परम्परा से उशीर, हरिप्रिय और सुगन्धिमूल के नाम से भी जाना जाता रहा है। बिहार में इसकी कृषि की जाती है। 
बिहार सिद्धार्थ गौतम के ज्ञानप्राप्ति की भूमि है और कहते हैं कि उन्हें कुश की चटाई पर बैठ कर ज्ञान की प्राप्ति हुई। इसलिये सनातन के साथ साथ बौद्ध परम्परा भी कुश को पवित्र मानती है लेकिन जिन्हें कुश की चटाई कह कर बौद्ध और अन्य देशों को निर्यात किया जाता है, वह वास्तव में खस या खुश की बनी होती हैं। बिहार में यह प्रचुरता से मिलता है। अब यह शोध का विषय है कि गौतम की चटाई कुश की बनी थी या खस खुश की? 
लोक में जिस तरह से दर्भ और कुश को लेकर भ्रांति व्याप्त है, कहीं बौद्ध परम्परा में कुश या खस को लेकर तो नहीं है? हो सकता है कि गौतम खश यानि उशीर की चटाई पर ही बैठे हों, वैदिक कुश की चटाई पर नहीं। मुझे संहिताओं में उशीर नहीं मिला। क्या वैदिक युग में यह वनस्पति ज्ञात नहीं थी? 


...शांत सन्ध्या में फोन आया तो गरिमा बिटिया लाइन पर थी – बड़े पापा! आप जानते हैं बाँस फूलते हैं तो बहुत बुरा होता है? मेरी टीचर ने बताया है और घर पर पूछने को भी कहा है। अब टीचर के मन में जो था, वही जानें लेकिन मैं एक और चक्कर खा गया। बाँस भी कथित घास जाति का ही है। अपने जीवनकाल में एक ही बार फूलता है और फिर मर जाता है। बाँस में ‘सामूहिक पुष्पन’ होता है – भूगोल-ऋतु-निरपेक्ष, जिसकी आवृत्ति दशकों से सदियों तक में होती है। जापान और संसार के कुछ भागों में 130 साल बाद बाँस फूलते पाये गये हैं तो मिजोरम और उत्तरपूर्व के अन्य राज्यों में लगभग 48 वर्षों की आवृत्ति देखी गई है। 1862, 1911, 1959 और 2008 में बाँस फूले और हर बार विनाश या उपद्रव घटित हुये। होता यह है कि बाँस फूलने के बाद उनमें बीज पड़ते हैं जिसके पश्चात बाँस मर जाते हैं। उनकी सामूहिक मृत्यु के कारण जिन क्षेत्रों में अर्थव्यवस्था बाँस पर आधारित है, वहाँ नई बाढ़ तैयार होने तक इस संसाधन का अभाव हो जाता है। बीजों की अधिकता से खाने की उपलब्धता कई गुना बढ़ जाने के कारण चूहे बहुत बढ़ जाते हैं। चूहे बाकी फसलों को चौपट कर देते हैं और दुर्भिक्ष की स्थिति आ जाती है।
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(1)

(2)
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(3)

(1) बाँस के फूल, चित्र : Mogens Engelund
 
(2) बाँस के फूल, चित्र : Joi Ito

(3) बाँस के फूल, मिज़ोरम, चित्र : Shahanaz Kimi
1959 में मिजोरम में यही हुआ। धीरे धीरे अकाल सी स्थिति हो गई और केन्द्र सरकार की बेरुखी ने पहले से जारी अलगाववादी आन्दोलन को बहुत शक्तिशाली और जनप्रिय बना दिया। परिणाम हुआ – लगभग 20 वर्षों तक जारी संघर्ष जिसका समापन राजीव गान्धी लालडेंगा समझौते के साथ हुआ। मिजोरम में विद्रोहियों की सरकार बनी और वे मुख्य धारा में आये...
...अब समाप्त करता हूँ, बात बाँस के फूलने तक जो आ गई! अविनाश के रहते विनाश की बात कौन करे लेकिन विराम होना ही चाहिये Smile बहुत हो गई घास खोदाई! 
आप यह समझ लें कि मिलते जुलते नामों से बहुत भ्रम हो सकता है। उनके गुण एकदम अलग हो सकते हैं। 'कास, कुश और खस' या 'दूब, दर्भ(डाभ)' नामों के मामले में साम्यता रखते हैं लेकिन हैं एक दूसरे से एकदम अलग -  पृथक, स्वतंत्र अस्तित्त्वधारी।  
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आभार: 
विकिपीडिया, डा. पंकज अवधिया, एस. मेहदीहसन, एस. जयलक्ष्मी, अर्जुन पात्रा, वी. के. लाल, ए. के. घोष, तमाम अन्य वेबसाइट और अपने अभिषेक ओझा जिनकी टिप्पणी ने लोक प्रेक्षण से उद्भूत कुश और खस के एक ही होने की अपनी धारणा पर मुझे पुनर्विचार और शोध को प्रेरित किया। 
अभिषेक जी से अनुरोध है कि वह भी अपनी इस धारणा कि मूँज और कास एक ही है, में सुधार कर लें। :) 
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यह आलेख अपने प्रकाशन के पश्चात 01/12/2011 को प्रात: 9 बजे तक संशोधित, परिवर्द्धित और पुनर्प्रकाशित किया गया।

शनिवार, 5 जून 2010

वह वनस्पति ढूँढ़ कर लाओ वत्स ...

"... मुझे गुरुदक्षिणा का आदेश दें। करबद्ध प्रार्थना है कि दीक्षांत समारोह में स्नातक दीक्षा के लिए मेरा नाम प्रस्तावित करें।"
नालन्दा विश्वविद्यालय की एक कोठरी में गुरु के चरणों में झुका शिष्य निवेदन कर रहा था। गुरु के प्रशांत मुखमंडल पर स्मित आभा पसर गई। कृपापूर्ण स्वर में उन्हों ने आदेश  दिया,  
" नालन्दा के वन प्रांतर से वह वनस्पति ढूँढ़ कर लाओ वत्स, जिसमें औषधीय गुण न हों।"
शिष्य को आश्चर्य हुआ - यह कैसी दक्षिणा !
"जाओ वत्स। प्रात:बेला शुभ है। कार्यारम्भ में शीघ्रता करो।"
"जो आज्ञा गुरुदेव !"
...
शिष्य ढूँढ़ता रहा। ऋतुएँ बीतती गईं। सूर्यदेव जाने कितनी बार नभ के चक्कर लगा गए। वह वनस्पति नहीं मिली ।  अश्रु भरे नेत्र लिए थका हारा वापस गुरु के चरणों पर आ गिरा।
"मैं असफल हुआ देव ! क्षमा करें । मुझे ऐसी कोई वनस्पति नहीं मिली जिसमें औषधीय गुण न हों। कोई और  गुरुदक्षिणा बताइए।"
आचार्य ने शिष्य को उठा कर गले लगा लिया।
"नालन्दा के वन प्रांतर ही नहीं, पूरे ज्ञात संसार में कोई ऐसी वनस्पति नहीं है जिसमें औषधीय गुण न हों। तुम कसौटी पर खरे उतरे हो। तुम्हारी स्नातक दीक्षा के लिए मैं कुलपति से विशेष सत्र आयोजन का अनुरोध करूँगा। "
...
आज पर्यावरण दिवस  पर  इस कथा का स्मरण हो आया। हममें से जाने कितने वनस्पति जगत के विविध रूपों को देखने के लिए पर्यटन करते हैं या डिस्कवरी चैनल पर अमेज़न के जंगलों पर प्रोग्राम देखते हैं। क्या आप ने अपने आस पास के वनस्पति संसार पर कभी परखन दृष्टि दौड़ाई है ? आप सोचते होंगे ऐसा क्या विशेष है ?
विशेष है। अपने घर के सामने के पार्क से कुछ अज्ञात पौधों के चित्र पोस्ट कर रहा हूँ। विविधता को सराहिए।
ये बस 'घास पात' नहीं हैं। इनके नाम बताइए। गुण बताइए। मुझे मालूम नही हैं।
मेरा मानना है कि रत्नगर्भा धरती अपने भीतर बहुत कुछ छिपाए रखती है। उचित अवसर और पर्यावरण मिलते ही रत्नप्रसूता बन जाती है। ये वनस्पतियाँ प्रमाण हैं। 
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ये वनस्पतियाँ यूँ ही उग आई हैं। सारे फोटो मैंने मोबाइल से लिए हैं।
 

सोमवार, 29 जून 2009

हमहूँ नामी हो गइलीं

वफादारी सीखनी हो तो कोई पेंड़ पौधों से सीखे। सर्वहारा 'कनैल' पर लेख क्या लिखा, नामी हो गया।

महीनों से मेहनत करते रहे लेकिन किसी अखबार ने नहीं पूछा । 'बरियार' और 'कनैल' पर लिखते ही दोनों ने जाने क्या गुल खिलाया कि 'अमर उजाला' ने अभी इस बच्चे से ब्लॉग के लेख को जगह दे डाली। स्कैन नीचे लगा हुआ है, यह 25/06/09 के अंक में छपा था।


जरा सोचिए, थोड़ी सी संवेदना दिखाने पर ऐसा हो सकता है तो इन पेंड़, पौधों और वनस्पतियों की अगर आप सही देखभाल और पोषण करेंगे तो परिणाम कितने सुखद होंगे!

तो चलिए एक पौधा रोपते हैं और उसे जिलाते हैं।