काम करतॆ करते अचानक समय में भटक सा जाता हूं। कई साल दूर . . . .
शमी के फ़ूलों पर अटकी ओस की बूंदें . इल्लियां सरकती हैं पत्तियों पर और पगडंडी के चारो तरफ फैले जंगली फूलों के गंध से बौराया मैं पूछ बैठता हूं. . पिताजी इसका नाम क्या है? (आप पूछेंगे कि पगडंडी के दो ही किनारे हुए चार कहां से आए? संभवत: आप ने भाठ के खेतों में खेतवाही नहीं की है!)
शमी के फ़ूलों पर अटकी ओस की बूंदें . इल्लियां सरकती हैं पत्तियों पर और पगडंडी के चारो तरफ फैले जंगली फूलों के गंध से बौराया मैं पूछ बैठता हूं. . पिताजी इसका नाम क्या है? (आप पूछेंगे कि पगडंडी के दो ही किनारे हुए चार कहां से आए? संभवत: आप ने भाठ के खेतों में खेतवाही नहीं की है!)
पता नहीं बेटा ऐसे ही कोई पौधा है. भला इनके भी कोई नाम होते हैं. नहीं पिताजी नाम तो होगा आप को नहीं पता. नाना होते तो बताते . . . .
ये फूल आज भी होते हैं और अपनी कार से उन रास्तॊं से गुज़रते हुए आज आंखें नम हो जाती हैं . . . कितना कुछ खो दिया हमने . . . ये पौधे हम देहातियों के मित्र हुआ करते थे . . आज इतने अज़नबी हो गये हैं कि हम इऩ्हें बस घास कहते हैं। वनस्पति विज्ञानी कोई नाम तो ग्रीक/लैटिन/रोमन में बता ही देगा लेकिन वह लगाव कहां से लाएगा? . . . नाना!
जब भी खेतवाही
करने निकलता हूं . . . इन फूलों की सरसराहट लगता है कि भरी दुपहरी में नाना किस्से
सुना रहे हैं . . . सारंगा सदाब्रिज, लोरिक ,शीत
बसंत . . . सब मुझे आगोश में ले लेते हैं . . . दिवंगत नाना कितने उपेक्षित हैं. .
उनके कोई पुत्र नहीं हुए . हम असली मामाओं से वंचित उऩ्हें याद तक नहीं करते . .
मेरे बच्चों को कौन सुनाए? . . उऩ्हें समझ भी आएंगी वो सीधी साधी बातॆं ?
हैरी पोटर तुमने बहुत नुकसान किया हमारा . . . बौराये फूलों की गंध
अभी भी मेरे नथुनॊं को पसन्द आती है. . नाना और उनके किस्से याद आने पर अभी भी
कानों को सिहरा जाते हैं. .
मां से कह कर दुआरे एक शमी का पौधा लगवा दिया है. . मां रोज उसके
नीचे दिया बाती करती है. . . नाना का घर खंड्हर हो रहा है तो क्या हुआ . . .दुआरे
वह फूल रहा है . . .
बौराये फूलों की गंध नथुनों में भर रही है . . एसी कमरे में बैठा छलछलाए मन से सोचता हूं रिटायर होने तक शमी कुर्सी लगा कर छांव में बैठने लायक हो जाएगा. . .
बौराये फूलों की गंध नथुनों में भर रही है . . एसी कमरे में बैठा छलछलाए मन से सोचता हूं रिटायर होने तक शमी कुर्सी लगा कर छांव में बैठने लायक हो जाएगा. . .
टिप्पणी हेतु धन्यवाद गिरिजेश जी. ख्रीष्टाब्द 2009 की भी हार्दिकशुभकामनाएं...ईश्वर आपको सुख-समृद्धि प्रदान करे. आप क्लेश,संतापरहित जीवन जीएं....
जवाब देंहटाएंचूंकि मूलतः मैं भोजपुरीभाषी हूं अतः उसके प्रति ज्यादा झुकाव भी है। आजकल भोजपुरी गा्नों के प्रति लोगों का नजरिया कुछ ज्यादा अच्छा नहीं है। इसमें बदलाव हेतु लोकगीत इत्यादि काफी सहायक हैं। अस्तु, भोजपुरी गाने आजकल बहुत सी साइटों पर उपलब्ध हैं और लगभग वैसी सभी साईटें मैं देख चुका हूं किन्तु मुझे निर्गुन के ऑडियो कहीं भी न मिले.
आजकल वर्ड वेरीफिकेशन को ज्यादा उपयुक्त नहीं माना जाता।
पुनः ख्रीष्ट नववर्ष की शुभकामनाएं.....
मणि.
maine pehli baar kisi laghu katha ko padhne ka dhairya batora ... aur yakeen maaniye ... kuch aankhein nam si ho aayin ... pata nahin kyun ......bas nishabd kar dala .. aapne... bahut achcha lekh kahunga ise .. main .
जवाब देंहटाएंdhanyavaad abhishek ji.
जवाब देंहटाएंek padhne valaa milaa to. aba aur likhoongaa.
aalas haTaana hogaa.
प्रणाम,आपका ब्लॉग पढा और सच बताऊँ आँखों के सामने नाना अपनी छड़ी लिए कुछ वनस्पतियाँ ढूंढ़ते दीखते हैं. वो आज भी गांव की मढैया में शीत बसंत की कहानियाँ सुना रहे हैं शायद..........हाँ सुनने के लिए हम मौजूद नहीं हैं . इस आपाधापी की ज़िन्दगी में कितना कुछ हमारा निरंतर पीछे छुट रहा है.............
जवाब देंहटाएंनुकसान हमारा हैरी पॉटर ने नहीं किया गिरिजेश जी, हमने ख़ुद किया है. ग़ौर फ़रमाइएगा. क्लास में हिन्दी बोलने के कारण डांट सुनने के बाद मुंह लटकाए घर आए अपने बच्चे को कभी आपने हिन्दी में हिम्मत बन्धाई है? यह ज़रूरी है. व्यवस्था हम पर अंग्रेजी लाद रही है और हम उस बोझ दूना करके रेंघा रहे हैं. क्यों? इससे इनकार करना पड़ेगा.
जवाब देंहटाएंअपने बच्चों को सीत-बसंत, ईली-मइला, डोका-डोकी से परिचित कराना हमारा काम है न! तो हम करें, बच्चे परिचित हो जाएंगे. इसके लिए हैरी पॉटर कहीं से भी दोषी नहीं है. एक बार आप चन्द्रकांता संतति की कहानी सुना कर देखिए न उन बच्चों को, हैरी पॉटर को मांगे पानी नहीं मिलेगा. पर समय हमको आपको निकालना पड़ेगा और संवाद का तरीका भी सही तलाशना होगा.
खरी खरी सुनाने के साहस के लिए आप स्तुत्त्य हैं इष्ट देव जी. वैसे हैरी पॉटर के प्रतीक को आप ने संकुचित अर्थों में ही लिया है... और बीच में अंग्रेजी कहाँ से आ गई?
जवाब देंहटाएंसीत-बसंत, ईली-मइला, डोका-डोकी की कहानियाँ अंग्रेजी में भी सुनाई जा सकती हैं. समस्या हमारी पाखंडी मानसिकता की है जिसे "संवाद" स्थापित करने के लिए "समय" का अभाव है.
वैसे मेरे बच्चे एक अंग्रेजी माध्यम विद्यालय में पढ़ते हैं. उन्हें अंग्रेजी बोलने के लिए बाध्य नहीं किया जाता और हम लोग घर में बिना modern अभिजात्यता का ओढ़ना ओढ़े भोजपूरी बोलते हैं... और ऐसा मुझ अकेले के साथ नहीं है..
मेरे ऑफिस में (एक लाख करोड़ रु. वाली कम्पनी) हिन्दी में ई मेल लिखा जाता है और बिना अनुवाद का सहारा लिए उस पर कार्यवाही भी की जाती है. स्वयं मैंने कितने ही आर्थिक और पॉलिसी महत्त्व के नोट हिन्दी में प्रस्तुत किए हैं जिन पर हिन्दी में ही बहस हुई है और जिनका अनुमोदन भी हिन्दी में ही हुआ है. हमारा हिन्दी ई आर पी सिस्टम बीटा टेस्टिंग में है और शीघ्र ही कं. के ऑन लाइन दैनिक कार्यों को भी हिन्दी में करने की सहूलियत मिल जाएगी... नेतृत्त्व सही और कार्यकर्ताओं में दृढ़ निश्चय हो तो भाषा संबंधी समस्याएं कुछ भी नहीं हैं...वर्तमान समय में भाषाएं एक दूसरे की पूरक हैं प्रतिद्विन्द्वी नहीं.
अब समय आ गया है कि हिन्दी भाषी बिना किसी किसी कुण्ठा और हीन भावना के अंग्रेजी सीखें (उससे लदे नहीं). हिन्दी तो माँ है उससे छुटकारा कहाँ?
टिप्पणी के लिए धन्यवाद.
...गिरिजेश
गिरिजेश जी,
जवाब देंहटाएं'भूमियाखेडा' पर पधारने के लिए धन्यवाद . टिप्पणी में दिए गए लिंक के सहारे यहाँ तक पहुंचा हूँ. कंप्यूटर में बहुत गति नहीं है . लिंक न खुलने के पीछे मेरा नौसिखुआपन ही है.
शमी के नीचे कुर्सी डालकर बैठने का आइडिया रिटायरमेंट तक मुल्तवी रखना हम नौकरी करने वालों की मजबूरियों का आइना है, मेरे लिए तो खासकर ...हर तीसरे चौथे साल एक नया शहर ..एक नया क़स्बा .. नए लोग ..
किया भी तो क्या जाये ! विगत ५-६ सालों से एक नया ढर्रा अपना लिया है-- जहाँ पहुंचा वहीं शमी ढूँढने की कोशिश शुरू . इस ढूँढने की कोशिश में ही 'भूमियाखेडा' नाम मिला. सुदूर मऊ जिले का रहनेवाला हूँ . पिछले लगभग ३० साल पढते-लिखते नौकरी करते दिल्ली , गाजियाबाद , मुरादाबाद, बिजनौर ,सहारनपुर में गुजार दिए. अगला पड़ाव देखिए कहाँ होता है!! खैर, 'जीवन'जी की एक कविता की पंक्ति सुनिए--
रहिया में रही गईलीं अंखिया अगोरते
कि घिस गईलं अँगुरी के पोर
कवने वरन होइहं हमरो सनेहिया
नाहीं जानीं सांवर-गोर .
आज आपके अर्किव से पुराने पोस्ट खोलने लगी हूँ - अजीब सा लग रहा है - कि कभी आपने भी पहला पोस्ट लिखा था |
जवाब देंहटाएंकुछ वैसा जैसे एक बार मेरी माँ ने कहा कि " जब हम छोटे थे तो ..... " - तो मैंने कहा : "आप छोटे भी थे?" - मेरे बाल मन को यह बात ही समझ नहीं आ रही थी कि माँ भी कभी छोटी रही हो सकती हैं :) - कुछ वैसे ही - आपका यह कहना कि "चलो - एक पढने वाला मिला " बड़ा ही अजीब सा लग रहा है सच में ...."
किशोरावस्था में अपने भी बड़े सपने थे, लम्बी सूची थी रिटायरमेंट के बाद करने वाले कामों की, इस बुढापे में समझ आ गयी है कबीर बाबा की बात "पल में बहुरि होयेगी ...."
जवाब देंहटाएंवाह, आज आपकी पहली पोस्ट पर भी आ गया। :)
जवाब देंहटाएंदेखा चार साल बाद आपको एक और पाठक मिला...
उन्नीस सौ छिहत्तर (बचपन) याद आगया। गिरिजेश राव जी धंन्य है आप !!
जवाब देंहटाएंउन्नीस सौ छिहत्तर (बचपन) याद आगया। गिरिजेश राव जी धंन्य है आप !!
जवाब देंहटाएंअति सुंदर लेख।
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