रविवार, 26 अप्रैल 2009

उल्टी बानी (भाग दो) - अर्थ, अनर्थ, सब व्यर्थ

यस्यास्ति वित्तं स नरः कुलीनः स पण्डितः स श्रुतवान् गुणज्ञः ।
स एव वक्ता स च दर्शनीयः सर्वे गुणाः काञ्चनमाश्रयन्ति ।। (भर्तृहरि विरचित नीतिशतकम्, 41)
“जिसके पास धन है वही कुलीन, वही विद्वान, वही वेदज्ञ, वही गुणी है. वही वक्ता है और वही सुदर्शन भी. सारे गुण कंचन (सोना, यहाँ धन के लिए व्यवहृत) में आश्रय पाते हैं.”



हम भारतीय बड़े पाखण्डी हैं. त्याग, संतोष वगैरह पर हर भारतीय ज्ञान की ऐसी गंगा बहाने में सक्षम है कि दूसरे उसमें पानी भरने को मज़बूर हो जाएँ या पानी माँगने लगें. हमारी अर्थलिप्सा कितनी ऐतिहासिक और शाश्वत है, यह भर्तृहरि के उद्धृत श्लोक से स्पष्ट है. अपने नीति शतक में वह एक नग्न यथार्थ का वर्णन कर रहे थे, व्यंग्य कर रहे थे, उस युग की मान्यता को लिख रहे थे या अपनी झुँझलाहट को व्यक्त कर रहे थे? इतना स्पष्ट है कि अर्थ उस समय भी हमारी मनीषा के केन्द्र में था. अर्थ को केन्द्र में होना ही चाहिए क्यों कि धर्म, काम और मोक्ष तीनों के लिए यह आवश्यक है. साथ ही सभ्यता के विस्तार और विकास के लिए अर्थ केन्द्रित व्यवस्था का होना पहली शर्त है. किंतु कैसा ध्वंश होता है जब साधन ही साध्य बन जाए, यह देखना है तो भारत से बेहतर कोई स्थान हो ही नहीं सकता. आँकड़ेबाजी में मैं नहीं घुसना चाहता लेकिन आँकड़ों का सार देना यहाँ अपेक्षित है.

वर्तमान चुनावों में ऐसे प्रत्याशियों की संख्या तीन अंकों में पहुँचती है जिनकी घोषित संपत्ति एक से नौ करोड़ है. ऐसे प्रत्याशी भी संख्या में दो अंकों के चरम पर पहुँचते हैं जिन्हों ने दस से निन्यानबे करोड़ की संपत्ति घोषित की है. सौ करोड़ या उससे अधिक की संपत्ति घोषित करने वाले भी इकाई के अंक तक सीमित नहीं रहे.
क्या आप को इसमें किसी बहुत बड़े घपले की बू नहीं आती? दिमाग मेँ घण्टी नहीं बजती ? हो सकता है कि उनकी सारी संपत्ति खून पसीने की और वैध कमाई ही हो. यदि ऐसा है तो क्या आप के मस्तिष्क में और ज़ोर से घंटा नहीं बजता? क्या आप को साँप नहीं सूँघता कि पिछ्ले 62 वर्ष किस तरह की व्यवस्था को बनाने और सँवारने में हमने गँवाए? यह कैसा अनर्थ हो गया हमसे?
बरजोरी यह कि यह व्यवस्था अब हम को ललकार रही है वोट करो !घर से बाहर निकलो !! मतदान करें, यह आप का पवित्र अधिकार है!!! अधिकार भी पवित्र और अपवित्र हो सकता है! बड़ी विडम्बना है.
यह कैसी पवित्रता है प्रभु? कितना महँगा अधिकार है यह ! मुद्रास्फीति और महँगाई, लोगों के बढ़ते जीवन स्तर (?), अर्थ व्यवस्था का खुलना और हमारा अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार से जुड़ना, वगैरह, वगैरह.... आप के दिमाग में कीड़े कुलबुलाने लगे होंगें. आप का दोष नहीं है यह. अर्थ के अनर्थ तंत्र ने सुनियोजित माया का जो आवरण आप के चारो ओर फैला रखा है, उसमें आप यही सब सोच सकते हैं. उन्हें यह पूरा पता है कि हमारे पास और कोई विकल्प ही नहीं है. बरबस ही ध्यान ‘मैट्रिक्स’ फिल्म में दिखाए गए माया जाल की तरफ खिँच जाता है.
एक करोड़ क्या होता है मैं आप को सरल ढंग से समझाने की कोशिश करता हूँ. अर्थशास्त्रियों के मत भिन्न हो सकते हैं, आखिर वे स्पेस्लिस्ट ठहरे और वर्तमान व्यवस्था के ध्वजवाहक भी ! यदि आप आज से 5000 रुपए प्रति माह बचाना शुरू करें और आप को मिलने वाला ब्याज दर 8% वार्षिक हो तो एक करोड़ ज़मा करने में आप को लगेंगें 34 वर्ष !!
चौंतिस वर्षों की साधना और संयम !! अधिक प्रसन्न होने की आवश्यकता नहीं है. इसमें यदि मुद्रास्फीति की औसत दर केवल 3% ही जोड़ दें तो आप का यह भविष्य का एक करोड़ वर्तमान के केवल 3660450/- इतना ही ठहरता है. क्या होगा यदि 8% का ब्याज 34 वर्षों तक स्थाई न रह कर घटता जाए. वर्तमान में तो यही लगता है. तब संभवत: अपने जीवन काल में आप करोड़पति नहीं बन पाएँगे. सन्न रह गए न !
यह अर्थ की अनर्थकारी माया है, मृगतृष्णा है. माया महाठगिनि हम जानी.
कितनी बड़ी ठगी चल रही है. मैं उद्योगपतियों की बात नहीं कर रहा. वहाँ अर्थ जनरेसन के अलग कारक और नियम होते हैं. वहाँ करोड़ बनाना इतना दुस्तर नहीं. मैं आम आदमी की बात कर रहा हूँ.
मैं यह मन कर चला था कि आप के पास 60000 रु. सलाना बचाने की क्षमता है. इस 60000 के बचत की तुलना उदाहरण के लिए पूर्वी उत्तर प्रदेश की प्रति व्यक्ति आय से करें जो करीब 10000 के पास बैठती है. एक घर में चार व्यक्ति गिनें जाँय तो प्रति गृह आय 40000 रु. होती है. सकल हिन्दुस्तान की स्थिति भी बहुत बेहतर नहीं है. नंगा नहाएगा क्या और निचोड़ेगा क्या?
और आज के चुनावों में कितने एक एक करोड़ प्रतिदिन व्यय किए जा रहे हैं, बाँटे जा रहे हैं इन प्रत्याशियों द्वारा ! यह पैसा आ कहाँ से रहा है? कभी सोचा है आपने ? ये अलग ढंग के उद्योगपति हैं. यह उनका इंवेस्टमेंट है. रिटर्न पांच वर्षों में हम से आप से दूहा जाएगा.
हमारे बच्चों के दूध से आएगा यह पैसा, हमारे खलिहान से उठाया जाएगा यह पैसा, बज्र गर्मी में जब हम आप बिजली विभाग को कोस रहे होंगे तो ए सी चैम्बर में ठुमके लगा रहा होगा यह पैसा, टैक्स ज़मा करवाने के लिए जब आप लाइन में लगे होंगे तो चुपके से आप की ज़ेब काट रहा होगा यह पैसा. जब बच्चे की ऊँची शिक्षा के डोनेशन के लिए आप यहाँ वहाँ नाच रहे होंगें तब तबला और हार्मोनियम बजा रहा होगा यह पैसा....
यह है हमारा समता मूलक समाज ! यह विराट सुनियोजित षड़यन्त्र, यह अर्थ की हमारे आप के लिए अनर्थकारी व्यर्थता. दोष किसका है? हमारी आप की पाख़ण्डी मानसिकता का है जो गालियाँ तो खूब देती है लेकिन खिसियानी बिल्ली और अंगूर खट्टे हैं की तर्ज़ पर. मौका मिले तो इन धनपशुओं के आगे समर्पण क्या उनका चरण चुम्बन तक करने में हमें शर्म नहीं.
क्या पाएँगे आप वोट दे कर? ज़रा नज़र डालिएगा चुने हुए अपने नुमाइन्दगों की लिस्ट पर. कितने ही करोड़पति होंगें उसमें. ज़रा उनके इतिहास का पता लगाइएगा , करोड़पति बनने में उन्हें चार साल भी नहीं लगे होंगें, 34 साल तो बहुत लम्बा काल होता है.
जो नहीं होंगें वे पहले ही सेकण्ड से उस क्लब में शामिल होने की होड़ में लग जाएँगें. जिस देश में आज भी भूख से लोग मरते हों, उस देश में ऐसे सैकड़ो करोड़पति हर साल पैदा हो रहे हैं. कौन है इनकी जननी और कौन है इन हरा_यों का जनक?
हम आप !

बदलाव कैसे हो? लोकतंत्र से बेहतर कोई विकल्प आज हमारे पास नहीं है. बस तंत्र से अर्थ की अनर्थकारी व्यर्थता दूर करनी होगी. कैसे? टेक्नॉलॉजी से. क्यों कि टेक्नॉलॉजी का उत्स ही समता और सुलभता के लिए होता है........... बात अभी शेष है.

शनिवार, 25 अप्रैल 2009

Flash ! Taliban in Delhi !!

अभी अभी साथी कर्मचारियों को एक मेल लिख कर घर लौटा हूँ. टी.वी. के किसी खबरिया चैनल पर चल रहा है दिल्ली में तालिबानी(?). मुझे लगता है कि अपना अंग्रेज़ी मेल जस का तस ब्लॉग में देना उचित होगा. थोड़ा बैक ग्राउण्ड - कश्मीरी लोगों और विशेषकर पंडितों पर चले अत्याचार पर एक रिपोर्ट दिखी, मन द्रवित और आन्दोलित हुआ तो मेल लिख मारा. मेल में संदर्भित अटैचमेंट यहाँ है: http://ikashmir.net/atrocities/index.html

एक दु:खद सत्य:
google में atrocities in kashmir लिख कर सर्च करने पर तथाकथित हिन्दू और भारतीय अत्याचार के कितने ही परिणाम आते हैं जो पाकिस्तानियों या उनके सरपरस्तों द्वारा लिखे गए हैँ. उन्हीं के बीच यह लिंक भी अकेला दिखता है. हम अपनी और अपने लोगोँ की समस्याओँ के प्रति कितने उदासीन हैं ! एक बात और - यह दस्तावेज़ नग्न सत्य है, किसी मज़हब के ख़िलाफ नहीं. आप पाएंगें कि इसमें उन तथाकथित इस्लाम के झण्डाबरदारों द्वारा मुसलमानों पर किए गए अत्याचारों का भी लेखा जोखा है.

अथ
Pls. be patient, logical and free from collective hypnotism of secularism, liberalism, idealism, intellectual idealisation and philosophical moorings before and while going through the attached article.
Sometimes the truth is so bare that it demands not your interpretation but your action and even change in your day to day thinking.
Taliban is standing at your borders. Despite all advancements in thought process and civilisation, we by our own in-actions and mal-actions, have invited this danger. How many Talibans in infancy are roaming around you, you don't know. But with just a little of caution and alertness, you can sense them and act to kill them in infancy. It is not an attempt to create fear psychosis. Taliban is a reality to tackle with. Taliban is a thought process solid in action. Don't wait for a big action by state when they'll stand before you in full gory and glory. Your alert day to day acts will help in and will result in preventing the infant from developing as adult. All you have to do is, act before it is too late !!

इति
सच जानना हो तो यहां जाएं :
http://www.kashmiri-pandit.org/projectr3/survivorstories.php?sid=0



शनिवार, 18 अप्रैल 2009

उल्टी बानी (भाग एक) - पंचवर्षीय कर्मकाण्ड

पंचवर्षीय कर्मकाण्ड का प्रथम चरण संपन्न हुआ. ढेर सारे आडम्बर हुए:
- अभिनेताओं ने जनता से अपील की – वोट के दिन घर से बाहर निकलो...
- स्वयंसेवी संस्थाओं ने नुक्क्ड़ नाटक किए.
- अखबारों ने इस्तहार निकाले बड़े बड़े.
- टी.वी. पर एक विज्ञापन खूब चला – वोट करो. 21 वी सदी के मुरीद एक पुराने प्रधानमंत्री ने हमें एक नई शब्दावली दी थी – ‘करा करी’ वाली. उसी की तर्ज़ पर नई पीढ़ी को रिझाने के लिए वोट “करो” ..खूब गूँजा.
- ट्रांसफरेबल नौकरी वाले तथाकथित बुद्धिजीवियों ने जोश में आ कर नई जगहों पर दुबारा वोटर कार्ड बनवा लिए... क्या फर्क पड़ता है यहाँ के लिए भी एक कार्ड बन जाए? आखिर बंगलादेशी भी लिए घूम रहे हैं! ...
और यह सब अभी चल ही रहा है. अभी तो कितने चरण बाकी हैं! एक राष्ट्रीय टाइम पास हो गया है.. वोट करो..जय हो...भय हो... जय हे.....पैसे बाँटे जा रहे हैं ... बड़ी पुख्ता व्यवस्था है.. ट्रेनिंग दर ट्रेनिंग चल रही है. सरकारी ऑफिसों में अधिकारियों को नया बहाना मिल गया है. इलेक्सन है साहब को फुर्सत कहाँ..आप की फाइल देखने को? गोया पहले निहाल कर देते थे फाइल देख देख कर!
पूरा देश व्यस्त है. सौदे हो रहे हैं किसे कहाँ वोट करना है? किसे घर में ही रहना है.....
और पहले चरण में इतनी नौटंकी के बाद भी यू.पी., बिहार में वही ढाक के तीन पात. आधे मतदाता घर से बाहर ही नहीं निकले.नक्सलियों ने वास्तविक सत्ता किसके हाथ में है इसका क्रांतिकारी शंख़नाद भी अपने तरीके से कइ जगहों पर किया.

इस बड़े लबड़धोंधों के दौरान क्या आप कभी सोचते भी हैं कि क्या होगा अगर सारे मतदाता सचमुच निकल पड़े वोट देने? क्या तंत्र इसके लिए तैयार है? वोटिंग टाइम और बूथों की संख्या क्या पर्याप्त होगी उसके लिए?
यह सब आप को एक षड़यंत्र नहीं लगता? बहुत ही सुनियोजित वेल स्ट्रक्च्रर्ड ! आखिर 58 सालों से चल रहा है. क्यों वोट देना जनता की इच्छा पर छोड़ दिया गया है? क्यों एक जगह पर एक ही दिन वोट पड़ता है?
क्यों यह प्रचारित नहीं किया जाता कि एक ऑप्सन यह भी उपलब्ध है कि हमें कोई उम्मीदवार पसन्द नहीं? हम सब को लतियाना चाहते हैं क्यों कि ये सभी उठाइगीर इस देश को चलाने के लिए “अयोग्य” हैं...डिस्क्वालिफॉइड!
क्यों यह प्रक्रिया तब तक नहीं चल सकती जब तक कम से कम 95% , 96%..... जैसी पोलिंग नहीं हो जाती?
....नहीं नहीं साहब मुझे मत बताइए कि बड़ी कयामत हो जाएगी. संसाधन कहाँ हैं इसके लिए? लॉ ऐण्ड ऑर्डर का क्या होगा?....आखिर पूरे संसार में ऐसे ही होता है! हम में कौन सुर्खाब के पर लगे हैं !!.....हमारे पास ठीक से कराने के लिए लोग कहाँ हैं?.
इस देश ने कर दिखाया है. बानगी देखिए..शायद आप भूल गए हैं:
- एक निर्वाचन आयुक्त सनक जाता है नौटंकी देखते देखते... और पूरा तंत्र एक ही चुनाव में बदल जाता है. जनता जान जाती है कि अनुशासन के साथ चुनाव कैसे होते हैं. प्रक्रिया जारी रहती है. इलेक्सन दर इलेक्सन.
- एक प्रधानमंत्री और उसका वित्त मंत्री निर्णय लेते हैं... शोर शराबा उठता है देश बेंच रहे हैं. दूसरी ग़ुलामी .... वगैरह... अर्थव्यवस्था खुल जाती है. परिणाम आप के सामने हैं.
- एक प्रधानमंत्री निर्णय लेता है. पूरे भारत को सड़कों के जाल से जोड़ने का. बहुत बवाल. कितनी ज़मीन जाएगी! सीमेंट और बाकी सामान कितने महंगे हो जाएँगें/गए.... सब के बावज़ूद काम हुआ और चल रहा है और सीमेंट कितना ही महंगा हो गया हो गांवों से ले कर शहरों तक घर बनने कम नहीं हुए.....
- एक कं. निर्णय लेती है..सब के हाथ मोबाइल होगा. बहुत फायदा होगा.... और कुछ ही सालों में अंतर...मेरा मोबाइल घनघना रहा है..बीबी जी को बोलना आज काम पर देर से आऊँगी. अर्जेण्ट हो तो मेरे नं. पर मिस कॉल कर देना !!
----- बड़ी लम्बी लिस्ट है गिनाने बैठूं तो. जब अलग अलग क्षेत्रों में क्रांतिकारी कायापलट हो सकती है तो इस क्षेत्र में क्यों नहीं ? विकल्प गिनाता हूँ:
- इनकम टैक्स रिटर्न की तर्ज़ पर यह अनिवार्य कर दिया जाय कि हर वोटर कार्ड धारक को वोट देना ही होगा. वह इंटर्नेट पर करे, ए टी एम से करे या बूथ पर जाए. पोलिंग दो दिन हो और दो दिन के एक्स्टेंडेड पिरियड में पोलियो ड्रॉप की तर्ज पर घर घर जा कर वोट दिलवाए जाँय. इंटर्नेट या ए टी एम या खाताधारक बैंकों के आन लाइन साइट या इलेक्सन कमीशन के साइट पर भी चारो दिन वोटिंग के ऑप्सन उपलब्ध रहें.
- ई मेल सेवा देने वाली कम्पनियॉ आज कल असीमित मेल बॉक्स साइज दे रही हैं. ज़रा सोचिए करोड़ों खाता धारकों को असीमीत मेल बॉक्स साइज अगर एक प्राइवेट कं दे सकती है तो करोड़ों मतदाताओं का ऑन लाइन बायोमेट्रिक डाटा बेस क्यों नहीं बनाया जा सकता?
- क्यों नहीं सेटेलाइट लिंक के ज़रिए गांव गांव पोर्टेबल वोटिंग मशीनें नहीं घुमाई जा सकतीं? बायोमेट्रिक प्रिंट तो हर मत दाता के लिए यूनीक होगा. गांवों के भूलेख यदि ऑन लाइन उपलब्ध हो सकते हैं तो हर टोले पर पटवारी और लेखपाल जा कर वोट क्यों नहीं डलवा सकते.
- हर मतदाता को ए टी एम कॉर्ड के पासवर्ड की तर्ज पर एक टेम्पोरेरी पासवर्ड दिया जा सकता है. अपने मोबाइल से इस का प्रयोग कर वह वोट कर सकता है.
अगर आप सोचें तो आप भी कुछ नायाब तरीका सुझा सकते हैं. यदि कुछ मस्तिष्क में आता है तो उसे पोस्ट करें. कैंची नस्ल के लोग जो हर बात को काटते ही रहते हैं और दोष दर्शन जिनका मौलिक स्वभाव है, मैं उनकी बात नहीं कर रहा.
समस्या यह है कि लोकतंत्र के नाम पर एक बहुत बड़ा षड़यंत्र चल रहा है और हम आप चुपचाप तमाशा कैसे देखते रह सकते हैं? आखिर इतनी महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया को जो पाँच वर्षों में एक बार ही होती है, इतना जटिल, दुरूह और व्यय साध्य क्यों बना दिया गया है? कहीं यह प्रभु वर्ग की हमेशा सत्ता में बने रहने की चाल तो नहीं !...जरा मनन करें..................................जारी