कितना बुरा लगता है अपने आप को उखाड़ना! नए रोपन से डर लगता है न।
हम टालते रहते हैं - बस कुछ दिन और। बस बस करते ही एक दिन कहीं और बस जाते हैं- अपने को उखाड़। और नई बस्ती बस कितनी अपनी सी हो जाती है - मज़दूरों के बच्चे, सफाई वाला, पेपर वाला, सामने का अनजान सा उनींदा पौधा और एक निश्चित समय पर चक्कर लगाता, जगह जगह अपनी विसर्जन छाप छोड़ता गली का कुत्ता। ...सामने की सूखी नाली में अपने बच्चों को सँभालती और हमारे नए बसाव को पूरी गरिमा के साथ स्वीकारती कुतिया ।
घर के सामने का बिजली खम्भा। उस पर लगी बत्ती का किसी दिन न जलना ऐसा लगता है कि जैसे पुजारी शाम को संध्यावन्दन करना भूल सो गया हो !
रात के सन्नाटे में सीटी बजाता चक्कर लगाता चौकीदार और बगल की खाली जमीन में अनजान धुन...
टिर्र टिपिर टिर्र ..खिर्र खिर्र सीं। टिपिर टिर्र टीं।
बस न जाने क्यों इतनी जल्दी सब कितने अपने से लगने लगते हैं!
मानव स्वभाव है मित्र!!
जवाब देंहटाएंलौट आए, अच्छा लगा। पुन: स्वागत है।
जवाब देंहटाएंअच्छी प्रस्तुति। अनजाने लोगों में अक्सर कुछ अपने मिल जाते हैं।
जवाब देंहटाएंसादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
आ गए वापस? अच्छा लगा। नए परिवेश के साथ इतनी जल्द तादात्म्य भी स्थापित कर लिया, यह और भी अच्छा हुआ।
जवाब देंहटाएंaaspaas ki chizon se moh ho jata hai.
जवाब देंहटाएंबस्तियां सिर्फ बसने के लिए होती हैं...उजड़ने के बाद भी वहां यादें बसी होती हैं। कई बस्तियां हम यादों में ही बसाते हैं। बस्ती बसेगी तभी तो अफ़साने बनेंगे :)
जवाब देंहटाएंअब कहीं और रोपित हुए भले मगर जमिए यहीं !
जवाब देंहटाएंसच में - कोई आलसी ही इतना बढ़िया सोच सकता है!
जवाब देंहटाएंअच्छा, तो आप अपने घर में आ गये? बधाई और शुभकामनाएं।
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