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शनिवार, 30 अक्टूबर 2010

एक ठो कुत्ता रहा ...

एक ठो कुत्ता रहा।  उसे चैन से बैठने की बीमारी नहीं थी। एक दिन सड़क पर बैलगाड़ी जाते देखा। बहुत धूप रही सो उसके नीचे चलने लगा। बड़ी राहत मिली। अब ताड़ गया तो हमेशा ऐसे ही करने लगा। कभी ये कभी वो...
 कुछ दिनों में सोचने लगा कि सारी गाड़ियाँ उसी के चलाए चलती हैं। कुछ दिन और बीते और उसका ज्ञान पोख्ता हो गया। 
एक दिन चलते चलते उसे सू सू की सूझी। अब गाड़ी रुके कैसे और कुत्ता चलती चीज पर मूते कैसे? 
सोचा कि गाड़ी तो उसी के चलाए चल रही है। रुकेगा तो रुक जाएगी। गाड़ी तो रुकने से रही और कुत्ता तो ..समझ ही रहे होंगे। सो पहिए के नीचे आ गया। ... दुनिया में एक और खम्भा मूत्र संस्कारित होने से रह गया। 
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इस ब्लॉग पर और भी  (20 टिप्पणियों के बाद  ये लिंक लगाने की सुध आई):
एक 'ज़ेन कथा'

बुधवार, 15 जुलाई 2009

बस. .

कितना बुरा लगता है अपने आप को उखाड़ना! नए रोपन से डर लगता है न।
हम टालते रहते हैं - बस कुछ दिन और। बस बस करते ही एक दिन कहीं और बस जाते हैं- अपने को उखाड़। और नई बस्ती बस कितनी अपनी सी हो जाती है - मज़दूरों के बच्चे, सफाई वाला, पेपर वाला, सामने का अनजान सा उनींदा पौधा और एक निश्चित समय पर चक्कर लगाता, जगह जगह अपनी विसर्जन छाप छोड़ता गली का कुत्ता। ...सामने की सूखी नाली में अपने बच्चों को सँभालती और हमारे नए बसाव को पूरी गरिमा के साथ स्वीकारती कुतिया ।
घर के सामने का बिजली खम्भा। उस पर लगी बत्ती का किसी दिन न जलना ऐसा लगता है कि जैसे पुजारी शाम को संध्यावन्दन करना भूल सो गया हो !
रात के सन्नाटे में सीटी बजाता चक्कर लगाता चौकीदार और बगल की खाली जमीन में अनजान धुन...
टिर्र टिपिर टिर्र ..खिर्र खिर्र सीं। टिपिर टिर्र टीं।
बस न जाने क्यों इतनी जल्दी सब कितने अपने से लगने लगते हैं!