(1),(2) भूमिका
(3) लंठ महाचर्चा: बाउ हुए मशहूर, काहे?
(4) लंठ महाचर्चा:बाउ और परबतिया के माई- प्रथम भाग
लण्ठ महाचर्चा: बाउ और परबतिया के माई - अंतिम भाग
(5) बारात एक हजार और बाउ मंडली-भूमिका (लंठ महाचर्चा)
बाउ मंडली और बारात एक हजार: पहला दिन - 1 (लंठ महाचर्चा)
(3) लंठ महाचर्चा: बाउ हुए मशहूर, काहे?
(4) लंठ महाचर्चा:बाउ और परबतिया के माई- प्रथम भाग
लण्ठ महाचर्चा: बाउ और परबतिया के माई - अंतिम भाग
(5) बारात एक हजार और बाउ मंडली-भूमिका (लंठ महाचर्चा)
बाउ मंडली और बारात एक हजार: पहला दिन - 1 (लंठ महाचर्चा)
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गतांक से आगे....
(ट)
मैनवा ने जब पँड़ोही को बारात का समाचार दिया तो उन्हें लगा कि इस भवानी का जन्म ही समस्याओं के लिए हुआ है। अव्वल तो घर घर घूमने की आदत से परेशान रहे, पता नहीं नाहर सिंह को क्या दिखा कि इस पर ही लट्टू हो गए। उस दिन भी परेशान हुए थे। थोड़ी राहत मिली तब ये एक हजार बारात ! इज्जत गई कुएँ में! कैसे क्या होगा? सुरसतिया की ईया (दादी) ने नाहर को शरापना(शाप देना) प्रारम्भ कर दिया। मोछिउखरना, दहिजरा. . .वह अभी पूरी तरह लय भी नहीं ले पाई थीं कि धड़ाम !
पँड़ोही ने भितऊ (मिट्टी की भीति वाला) घर की बैठक में घुस दरवाजा अन्दर से बन्द कर लिया। दहाड़े मार रोने लगे। शुभ शुभ की यह घड़ी और ये रोना पीटना! सुरसतिया की माई ने गजब का संतुलन दिखाया। पहले सास का गाली पाठ बन्द कराया। फिर दरवाजे पर बैठ पति का निहोरा करने लगीं। “बहरे निकलीं, ए तरे घबड़इले से का होई। कवनों न कवनों रस्ता निकलबे करी (बाहर निकलिए। इस तरह घबराने से क्या होगा। कोई न कोई रास्ता तो निकलेगा ही)। इकठ्ठा बाकी नारी समाज भी सुर में सुर मिलाने लगा। विवाह के गीतों की जगह इस षडराग ने ले ली। लेकिन पँड़ोही बैठका से न निकले। देर होती देख माँ ने पुरोहित को तुरंत आने के लिए सन्देशा भेजा।
(ठ)
मिठाई मिसिर। पुरोहित। कहते हैं कि एक ब्राह्मण गुरु, मंत्री, रसोइया और सेवक सबका काम कर सकता है। इस गरीब और वृद्ध बाभन की अपने यजमानों के यहाँ एकदम ऐसी तो नहीं लेकिन कमोबेश यही स्थिति थी। भीतर से सन्देशा मिला तो तुरंत पधारे। माँ ने चरण धूलि ली और फिर स्थिति बताई। उन वृद्ध आँखों में एक क्षण के लिए चिंता के आसार दिखे फिर लुप्त हो गए।
बाभन का आदेश गूँजा – सज्जी कार जइसे होत रहल हे वइसही चालू रहे। हम पँड़ोही के सँभारतानी (सभी काम जिस तरह से हो रहे थे, जारी रहें। मैं पँड़ोही को सँभालता हूँ)। दरवाजे पर आ सीधे धिक्कारना शुरू किए,”कवन रजपूत हउअ। एतने में घबड़ा गइल। भुक्खल पियासल कन्यादान के सोचले के जगही ई तिरिया चलित्तर का देखावताड़। तोहसे नीक त मलकिनिए बाड़ी। धुर। बहरा निकल। (कैसे राजपूत हो! इतने में ही घबरा गए। भूखे प्यासे कन्यादान की सोचने की जगह त्रिया चरित्र दिखा रहे हो। तुमसे अच्छी तो मालकिन ही हैं। धुत्त। बाहर निकलो)।
पँड़ोही ने पुरोहित की धिक्कार सुनी तो चेतना ने करवट ली। चिन्ता ने फिर सिर उठाया। “ बाबा, कइसे बराति खियाइब? एतना बेवस्था कहाँ से होई?(बाबा कैसे बारात को खिलाऊँगा? इतनी व्यवस्था कैसे होगी?)। पुरोहित बाबा कि इस दलील पर कि सूरसती गाँव भर की बेटी है और पूरा गाँव मिल बैठ कर सब कर देगा, पँड़ोही तेहा(बेकार का गर्व) में आ गए। बाहर निकल कर बोले,” पट्टिदारन के आगे भीख नाहिं मँगबे (पट्टिदारों के आगे भीख नहीं माँगूगा)।“
भीख ! पँड़ोही ने भीख का नाम लिया था !! ब्रह्मतेज भभक उठा। ढलते सूरज की ओर मुँह कर वृद्ध बाभन ने दाहिना हाथ उठाया, भोजपूरी की जगह संस्कृतनिष्ठ भाषा सी कुछ निकली,”हम मिठाई मिश्र, पुरखों और प्रवरों की सौगन्ध ले कहते हैं सरस्वती इस समय से इस अग्निमुख ब्राह्मण की दुहिता है। सूर्यदेव साक्षी रहो, अन्नपूर्णा इस निर्धन ब्राह्मण की रसोई में वास करेंगी। ब्राह्मण आज भिक्षाटन करेगा। उसे अग्नि की सौंह।“ जिसने भी देखा सुना, रोमाञ्चित हो उठा।
पँडोही उनके पैरों पर गिर पड़े। बाबा ई का (ये क्या)? मिसिर ने उपेक्षा भाव से कायर को निहारा। व्यवस्था दी कि दही चिउड़ा नहीं चलेगा केवल पूरी सब्जी चलेगी और बच रही दही साथ में दी जाएगी। सुक्खल बनिया के यहाँ नाश्ते की बुनिया(बूँदी), लड्डू और शरबत वास्ते बेसन, गुड़ और घी वगैरह भेजने का संदेशा पठा कर बोले बाउ कहाँ बाड़ें (बाउ कहाँ हैं)? बाउ ने सब देख सुन लिया था। चुपचाप गाड़ा (बैलगाड़ी) लाने मिसिर को साथ ले चल पड़े। रास्ते में मिसिर ने पूछा लकड़ी लौना के का होई(जलावन की क्या व्यवस्था होगी)? बाउ बोले ,”अगिया बैताल” और पोखरे की ओर इशारा कर दिया। ब्राह्मण और ‘ब्रह्मराक्षस’ एक दूसरे की ओर देख ठठा कर हँस पड़े।
आग की तरह इस घटनाक्रम की सूचना टोले दर टोले फैलती चली गई। नमक मिर्च लगा कर। मँगरू हजाम और उसके खानदान ने निभाई प्रमुख भूमिका – ‘मिसिर ने जब हाथ उठाया तो कैसे चौंध सी हुई सूरज देवता में.. .’ से लेकर ‘बाउ के बैल तो आज पगला गए हैं, घोड़े क्या दौड़ेंगे उनके आगे..’ तक। जिसके यहाँ जो भी राशन था ले कर तैयार दरवाजे पर इंतजार करने लगा। जिनके पास बैलगाड़ियाँ थी, रसद सामान लाद बाभन को भिच्छा देने चल पड़े। । न तो ऐसा भिखमंगा आज तक हुआ था और न ही ऐसी भिक्षा। भिक्षा ऐसी क्यों नहीं?
अहिरटोली के मुन्नर और मनसुख को मिसिर की यह नौटंकी और भीखमँगई कत्तई पसन्द नहीं आई। अरे भाई, गाँव की बेटी की बात है लोगों को ऐसे ही आगे आना चाहिए। न आएँ तो जबरी ले लो। पहली बार उन्हें बाउ से भी असहमति हो गई। दोनों ने अपना गाड़ा हाँक दिया।
अब जनता जनार्दन चाहे मिसिर को भीख दे या मुनरा की ‘सभ्य सी जबरदस्ती’ पर दे, अन्नपूर्णा की क्या मजाल कि बाभन की रसोई में न पइसें (प्रवेश करें)?
(ड)
यह कथा मैंने अपनी यथार्थवादिनी कर्मठ माँ से सुनी है, जिसे उन्हों ने अपनी चचिया सास (चचेरी सास) के मुँह से सुना था। आज भी कभी अस्फुट से प्रसंग छिड़ जाने पर सुनाने का उनका उत्साह देखते ही बनता है।
आज के हिसाब से देखता हूँ तो उन आठ टोलों के समूह – घरौठा, अहिरटोली, कैरटोली, टिपरी, माँझी,सनेरा, बिसुनपुर और महतौरा की कुल जनसंख्या भी उस समय हजार के आस पास ही रही होगी। बाउमंडली के क्षोभ,अनूठी कर्मठता और पराक्रम के कारण बारात की संख्या से तुलना करने पर समझ में आने लगते हैं।
एक निहायत ही निर्धन और अकिञ्चन सा वर्तमान पूर्वी उत्तर प्रदेश का इलाका कैसे उस जमींदार के ऐश्वर्य के विरुद्ध हिमालय सी निष्ठा और निश्चय से खड़ा हो गया था! बहुत दिनों के बाद जब यूरोप के छोटे से गाँव गॉल और महान सम्राट सीजर की झड़पों के किस्से कॉमिक्स में पढ़े तो लगा कि ऐसा संसार के हर कोने में होता रहा है। बस बाउ मंडली के पास मिथकीय शक्तियाँ नहीं थी। प्रेत, बैताल वगैरह तो बस किस्से ही थे। था तो केवल अनपढ़, गँवार और उज्जड समाज का आपदा प्रबन्धन!!
(ढ)
उन टोलों के नारी समाज का उस संझा रैन (संध्या रात) का उद्योग मुन्नर, मनसुख, मिसिर, बाउ, बिरछा गोल आदि के लंठोद्योग के उपर भारी पड़ता है। कैसे? वह जमाना घर घर जाँते (घरेलू चक्की) का जमाना था। लड़कियाँ और औरतें रोज भोरहरे उठ कर जौ, गोहूँ (गेहूँ), केराय (मटर) वगैरह पीसतीं और उसके बाद ही चूल्हा जलता। मिसिर के तार्किक फरमान ने चिउड़ा से तो निजात दिला दिया लेकिन आटा? किसी भी घर की डेहरी( अनाज, रसद रखने का पीली मिट्टी से बना बड़ा सिलिण्डरनुमा पात्र) में बहुत होता तो दो तीन दिन का आटा। देवें क्या और रखें क्या?
झलकारी देवी ने पहला काम किया लगन के घर में मंगल अनुष्ठानों और गीतों के लिए केवल पाँच बूढ़ी औरतें छोड़ बाकी सबको उनके घर पठा दिया, सबके जाँते चलते रहने चाहिए। वह आज ‘घरघुमनी’ की भूमिका में थीं! बाउ और मिसिर के साथ गाड़े से घर घर घूमती कहीं हाथ बँटाती, किसी को झिड़कती, किसी को दुलराती तो किसी को थोड़ा ठाँव(विश्राम) लेने को कहती। उस संझा रैन जाँते तब तक चलते रहे जब तक अंतिम बाराती ने भोजन नहीं कर लिया। ‘अन्नपूर्णा’ साक्षात भाग दौड़ में जो लगीं थीं !
बाउ, मुन्नर और मनसुख के बैलों को तो जैसे आज भूख प्यास ही न लगे! कृषक परिवार के ये सदस्य जैसे सब समझ रहे थे।
मुन्नर और मनसुख की जबरदस्ती बाउ और मिसिर के ‘भावनादोहन’ प्रयास से अधिक सफल रही - इस मामले में कि न तो किसी भी पेंड़ पर कटहल बँचा और न किसी भी कोला(घर से लगी सब्जी वाटिका) में केला या कोई सब्जी। घर के आलू, प्याज, हल्दी, मसाले, मिर्च की तो औकात ही क्या? तेलिनिया(तेल पेरने वाली) घिघियाती गरियाती ही रह गई, सारा सरसो तेल मिसिर के भण्डारा में पहुँच गया।
सुखला (सुक्खल बनिया) आदेशित सामग्री ले गुरु महाराज की आज्ञा पालन करने स्वयं आ गया था – दो हलवाई साथ में।
गोरखनाथ पीठ से संस्कृत की पढ़ाई करते अपने बेटे को पहली बार पौरोहित्त्य कर्म का जिम्मा सौंपा था, आज मिसिर वह पंचमेल मसालेदार तरकारी(सब्जी) बनाने वाले थे कि ससुर जमींदार की पीढियाँ याद रखें!
(ण)
इन सबसे पलखत(अवसर) पा कर मैनवा ने सोचा कि जरा बारात की टोह ली जाय सो खलिहान पर चक्कर काटने लगा। जमींदार की लाई बारात जम चुकी थी।
बारात वाले द्वारपूजा के लिए सज रहे थे क्यों कि गोधूलि बेला में इसका रिवाज था। रखवाले चक्कर लगा रहे थे। उनको मैनवा पर चोर होने का शक हो गया। यथा राजा तथा प्रजा। पकड़ कर दो तीन हाथ दे दिए। मैनवा रोता चिल्लाता पँड़ोही के घर की ओर भाग चला। नाहर सिंह ने सुना तो बहुत बिगड़े लेकिन अब तो जो होना था वह हो चुका था। द्वारपूजा अभी हुई ही नहीं थी और बाजा बज गया।
ठसक में थे सो सन्देशा जैसा कुछ भेजना भी सम्मान के खिलाफ था। बस प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा करने लगे।
पँड़ोही ने सुना तो जिद पकड़ लिए। विवाह नहीं होगा। बारात वापस जाए। ये कैसे जंगली कि जिस घर में बारात ले कर आए उसके सेवक को ही पीटने लगे! बाउ और मिसिर ‘भिक्षाटन’ में लगे थे कि यह समाचार सुनाई पड़ा। सब कुछ छोड़ तुरंत घर पहुँचे तो पँड़ोही छाती पीट रहे थे। बाउ ने जोर से डाँटा,”चुप रह काका। दुपहरिए से नाटक नाधि के ध देहले बाड़। बराति कइसे वापस जाई। पूरा गाँव के नाव बदनाम हो जाई। औरी बेटी बहिन नइखे बिअहे के का?( काका चुप रहो। दुपहर से ही नाटक कर रहे हो। बारात कैसे वापस जा सकती है? पूरा गाँव बदनाम हो जाएगा। क्या किसी और बेटी बहन की शादी नहीं करनी है)?
मिसिर बोले,”बेटी त अब हमार हे। तू खाली कन्यादान करबअ । ए लिए अब चुप्पे रह (बेटी तो अब हमारी है। आप को केवल कन्यादान करना है। इसलिए अब चुप ही रहें।)
बाउ ने मैनवा को उलाहना भरी नजर से देखा। बोले ,”ई भाग सबके न मिलेला। तोके खराब लागल होखे त हम माफी माँगतानी (ये भाग्य सब को नहीं मिलता। तुम्हें खराब लगा हो तो मैं माफी माँग रहा हूँ)। अजीब सा तर्क और बाउ की माफी सुन मैनवा जैसे पानी पानी हो गया। दरहम बरहम, मान मनौवल सब हो गया।
प्रतिक्रिया के लिए नाहर सिंह प्रतीक्षा ही करते रह गए। ...जारी
एक सांस में पढ़ गए। अगली खेप का इंतजार है।
जवाब देंहटाएंपढने के बाद कुछ यूँ लग रहा है जैसे कि १८ वीं शताब्दी के उपन्यासों के चरित्र सामने आ गए हों. और लंठ महाधिराज बाऊ का चरित्र तो हेनरी फील्डिंग के उपन्यासों के पिकारो चरित्रों की याद दिलाता है. जारी रखें. वनस्पति शास्त्र पर लगाव कुछ कम होता लग रहा है क्यूँ की प्रोफाइल पर नयी वनस्पतियों के चित्र कम आ रहे हैं. इसे भी जारी रखें क्यूँ की इस से बहुत कुछ सीखने को मिलता है.
जवाब देंहटाएंअपनी उम्र ज्यादा तो नहीं हुई पर जांता चलते हुए देखा है अभी भी एक भारी सा पड़ा हुआ है घर के पिछुवारी. गंगेश जी को अठारहवी शताब्दी का लग रहा है हमें १०-१५ साल पहले की... यूँ तो आज भी परिवेश कुछ ज्यादा बदला नहीं है. ऐसा जीवंत है की पूछिए मत. झूठी प्रसंशा नहीं है. और एक अनुरोध है कम टिपण्णी आये तो इस श्रृंखला को बंद मत कीजियेगा... कुछ पोस्ट का महत्तव टिपण्णी गणना से ऊपर होना चाहिए. वैसे ये छप कब रहा है?
जवाब देंहटाएंआज मुझे आप का ब्लॉग देखने का सुअवसर मिला।
जवाब देंहटाएंसचमुच में बहुत ही प्रभावशाली लेखन है... वाह…!!! वाकई आपने बहुत अच्छा लिखा है। बहुत सुन्दरता पूर्ण ढंग से भावनाओं का सजीव चित्रण... आशा है आपकी कलम इसी तरह चलती रहेगी और हमें अच्छी -अच्छी रचनाएं पढ़ने को मिलेंगे, बधाई स्वीकारें।
…लेकिन मुझे भी माफ करिएगा… “…प्यार और खता वगैरह बहुत पुराने हो चुके हैं और घिस चुके हैं…” मैं आप के इस दृष्टिकोण से सहमत नहीं हूँ. क्योकि चाहे भले ही अब तक लाखों, करोडों लोगों ने प्यार किया हो, तो भी प्यार कभी पुराना नहीं हुआ है. वह तो आज भी उतना ही तरोताजा और जिंदादिल है..... ज़रुरत है तो बस उसे महसूस करने की. और यदि अगर प्यार में नयापन अब भी मौजूद है तो फिर उससे सम्बंधित विचार, साहित्य और रचनाएं कैसे पुरानी हो गयीं.
आप मेरे ब्लॉग पर आये और एक उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया दिया…. शुक्रिया.
आशा है आप इसी तरह सदैव स्नेह बनाएं रखेगें….
आप के अमूल्य सुझावों का 'मेरी पत्रिका' में स्वागत है...
शानदार लेखन । वाकई में ब्लाग पर साहित्य रचा जा रहा है । अगले अंक का बेसब्री से इंजतार है ।
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