... बहुत पीड़ादायक होता है एक कविता का खो जाना। ऐसी कविता जो आप की विकसित होती संवेदना, कल्पना, पीड़ा, आक्रोश, क्षोभ, यातना, परदु:खकातरता, संसार को बदल देने, उलट पुलट देने के ज़ुनून और मन के नरक की वर्षों तक साक्षी रही हो ...अचानक पता चले कि गुम हो गई तो क्या हो? उच्चाटन ?? अनिद्रा ???
कविता जो किताबों के कवर पर लिखी गई, कापियों के बीच लिखी गई, छुट्टे पन्नों पर लिखी गई ..... जब मन बेचैन हुआ तब लिख दी गई – पेंसिल से, पेन से... रोमन, देवनागरी, ग्रीक लिपियों में अपने को लिखाती चली गई, अचानक पाया कि खो गई !
..पुरानी डायरी के साथ ही क्लिप वाले पैड में दबा कर रखे गए मुड़े तुड़े अक्षर, तिरछे वाक्य, बारिश की बूँदों से फैल गए शब्द, प्रेम मिलन के पूर्व भोर में धीमी रोशनी में रचे गए सरताज, कभी कुछ अचानक सूझ जाने पर यूँ ही पढ़े जाते उपन्यास के पन्ने के हाशिए पर उतार दिए गए जज्बात ... सब गुम हो गए !
...गहरी यातना, दु:ख। अज्ञेय की मानें तो दु:ख मांजता है। जिन्हें माजता हो वो जानें, मैं तो खरोंचों के घाव लुहलुहान होता जा रहा हूँ। क्या करूँ .. दुबारा रचूँ? चलूँ पन्द्रहों वर्ष पीछे? लेकिन वे अनुभूतियाँ कैसे आएँगी? .. यह तो दुहरी यातना होगी ! ... स्मृति दोष .. बहुत कुछ छूट जाएगा। फिर टुकड़ा टुकड़ा याद आ कर सताएगा.. मुझे याद है उस कभी न समाप्त होने जैसी लगती कविता की अंतिम पंक्तियाँ जब लिखी थीं तो लगा कि अनुभूति के अंत पर पहुँच गया हूँ – प्रगाढ़ प्रशांति ! ..वो यातनाओं का नरक, कुम्भीपाक लुप्त हो गया था अंतिम अक्षर के विराम पर ! ... बाद के वर्षों में पाया कि कविता साधारण थी और उसका अंत तो और भी साधारण था ...फिर वह प्रशांति क्या थी? क्या इसी लिए स्वांत: सुखाय की बात की जाती है? वह कविता तो दूसरों के किसी काम की न थी, न शब्दों का यातु, न शिल्प का विधान, लय हीन, छन्द हीन। तो वह अनुभव? क्या वह कविता बस मेरे लिए थी? ... ऐसी थी तो आज जब एक मंच मिला तो उसे साझा करने की बेचैनी क्यों? ढूढ़ता क्यों रहता हूँ उसे? ....
कभी सोचा ही न था कि छपवाऊँगा ! ...
.. याद आती है कब्रिस्तान के उपर बने उस तिमंजिला प्राइवेट हॉस्टल की कोठरी में गरमी की बिताई गई वह दुपहर। कमरा बन्द कर जोर जोर से मैं पढ़ता चला गया था। तब वह कविता समाप्त नहीं हुई थी। ...
.. लेकिन उसके बाद मैंने वह सारे फेयर किए हुए पन्ने फाड़ डाले थे – याद हो चुकी कविता को दुबारा लिखा था देर शाम तक लगातार और फिर पिताजी के आदेशानुसार राहु मंत्र के जप पर बैठ गया था – अजीब संतोष लिए कि अब कविता आसान हो गई ! वाकमैन स्पीकर मोड पर था और बज रही थी मोज़ार्ट की सिम्फनी – जुपिटर। ...
.. अगले दिन अपने साहित्यिक मित्र आनन्द को कविता सुनाई तो वह स्तब्ध हो गए थे । जब बताया कि मैंने फाड़ कर दुबारा लिखा है तो उन्हों ने यही कहा था,”ठीक नहीं किया।“ ....अधूरी ही छपने के लिए भेजा तो न छपी और न वापस आई। मेरा सरलीकरण प्रयास अपनी नियति को प्राप्त हुआ था .. हाँ, वह मेरा पहला प्रयास था। ... मेरे पास फिर बँचे रह गए थे - क्लिप वाले पैड में दबा कर रखे गए मुड़े तुड़े अक्षर, तिरछे वाक्य, बारिश की बूँदों से फैल गए शब्द, प्रेम मिलन के पूर्व भोर में धीमी रोशनी में रचे गए सरताज, कभी कुछ अचानक सूझ जाने पर यूँ ही पढ़े जाते उपन्यास के पन्ने के हाशिए पर उतार दिए गए जज्बात ...
... अंतिम प्रयास सफल रहा था - उसी आनन्द सोमानी ने कराया था – नई दुनिया, इन्दौर से एक दूसरी छोटी सी कविता छपी थी... मुझे याद है उस दिन बहुत खुश था। बाद में पिताजी ने उसे सहेज कर रख लिया था ... अब की दशहरे में गाँव गया तो पता चला कि टाउन वाली मकान को किराएदार के लिए खाली करते समय जो कबाड़ फेंका गया था – उसमें नई दुनिया का वह पेज भी ... हाँ, पिताजी ने एक एक पृष्ठ को खुद छाँटा था!
.. यह आप ने क्या किया पूज्य? वह एक पन्ना इतना गढ़ू हो गया था !! .. या फिर आप ने यह सोचा कि अब इसका क्या काम ? .. ले दे के वही बात – कविता किस काम की?..
..आप को क्या पता पूज्य! अनिद्रा के उन अनगिनत हफ्तों में आप जब अपनी गोद में चिपटा कर सुलाया करते थे तो कुम्भीपाक की यातना के सामने आप का यह पुत्र अपने को निरीह सा पाता था लेकिन एक लम्बी कभी खत्म न होने वाली कविता ही उसे लोरी सुना बल दे जाती थी।... पैदा होने के कुछ घंटों के भीतर ही आप की गोद में आ गया था। .उस दिन मेरे अस्तित्त्व को आप की आँखों ने रात भर सींचा था! आप की गोद में इतने बड़े होने पर भी नींद तो आनी ही थी।
.. लेकिन लोरी वही कविता सुनाती थी। ..और वह खो गई।
.. अब मैं बड़ा हो गया हूँ, दो बच्चों का पिता हो गया हूँ। पिताजी! सोचता हूँ कल जब मुझे बड़े होते बच्चों को कभी गोद में ले खुद लोरी गाते सुलाना पड़ेगा, तब अगर वह कुम्भीपाक फिर सिर उठाएगा तो . . ?
उन दिनों क्या आप के पास भी कोई कभी खत्म न होने वाली कविता थी?
कवितामय कविता की बात !
जवाब देंहटाएंजो गुजर गया सो गुजर गया ..
उसे याद कर न दिल दुखा
जो गुजर गया वो गुजर गया
वो गजल की कोई किताब था
वो गुलों में इक गुलाब था
वह सुबह का कोई ख्वाब था
जो गुजर गया वो गुजर गया ...
पूरी गजल याद हो आयी
बशीर बद्र की ....
आपकी रचना पढ़ते हुए हमारे सामने जीवन के कई देखे-अनदेखे चेहरे कौंध गए।
जवाब देंहटाएंऔर कहाँ कहाँ आपने कवितायें लिखीं थी ? मुझे पता है कई जगह आप भूल गये है और कुछ जगहें छुपा गये हैं । ऐसा होता है .. वो किसी किसी की कापियों मे , किसी डायरी में , कहीं दीवारों पर और कहीं हवाओं में उंगलियों से लिखी आपकी कविता अभी भी मौजूद होगी । हम तो ऐसी कितनी कवितायें भोपाल के न्यूमार्केट मे कॉफी हाउस के टेबल पर लगी सनमाइका पर छोड़ आये । कविता जब दिमाग मे अच्छी तरह पक जाये तब फिर वह कहीं नहीं छूटती । और अगर छूट जाये भी तो.. जो छूट गया सो छूट गया .. अभी इस लेखनी की धार को क्या हुआ है ?
जवाब देंहटाएंबड़ी उधेड़बुन में लिखी गयी पोस्ट लगती है. इतना भटकाव मजूद है और आप कहते हैं कि वो अब कहाँ से लाऊं? वो कैसा रहा होगा सोच पाना भी मुश्किल ही है !
जवाब देंहटाएंअरे सर जी,
जवाब देंहटाएंमामू बना रहे हैं आप और कुछ नहीं..
सब याद है आपको....!!
ये बातें भी कोई भूलता है भला..
हाँ ...याद नहीं करना चाहते हैं...
उसी दर्द से दुबारा नहीं गुजरना चाहते हैं....
ये हम समझ सकता हैं....
लेकिन याद न हो.....
न न न न न न न ....!!
हम तो अपनी सारी कविताएं धीरे धीरे फाड़ते चले गए। एक कविता ता मज़मून हाल ही में याद आया, ढुंढवाया तो पता चला कि वो भी गुमशुदा है।
जवाब देंहटाएंबाकी पोस्ट अच्छी लगी। कुछ याद दिला गई। दिल हिला गई, यानी बहला गई।
पता नहीं क्यों ? अदा जी की बात भी हमको सही लग रही है |
जवाब देंहटाएंकवि ह्रदय नहीं हूँ सो ज्यादा विवेचन संभव नहीं!!
हर लम्हा यही आहट ?
गुजर गया सो गुजर गया|
sशायद यही स्थिती हर कवि की होती है मगर कभी कभी इन यातनाओं से गुज़रना भी दिख के साथ साथ एक सुखद अनुभूती भी देता है। कवितामय रचना बहुत अच्छी लगी। अन्तर्दुअन्द की तस्वीर । शुभकामनायें
जवाब देंहटाएंखोना वह भी सृजन का, कष्टकारी होता ही है. एक एक शब्द चुनते हैं जब रचते हैं और उसका खोना अपने किसी कालखंड के खो जाने सा लगता है.
जवाब देंहटाएंमैं भी पिछ्ले कुछ दिनों से अपनी एक सुनहरी डायरी खोज रहा हूँ जिसमें मैंने अपनी कुंठायें लिखी थी और आशायें भी.
आपकी पोस्ट कोई प्रतीक हो तो अच्छा, और यदि ये सच है तो कामाना है कि वो मिल जाये.
फाड़े हुए जाने कितने पन्ने है ....कुछ जो फटने से बचे रह गए ...हाथ आ जाते हैं कभी ..पुरानी डायरी में ...गद्दों के नीचे ..!!
जवाब देंहटाएंमंदार के प्रतीक को हटा स्वयं ही प्रकट हो गये श्रेष्ठ ! प्रोफाइल में फोटो दिख रही है ।
जवाब देंहटाएं"ऐसी थी तो आज जब एक मंच मिला तो उसे साझा करने की बेचैनी क्यों? ढूढ़ता क्यों रहता हूँ उसे? ....
बाढ़ प्रगाढ़ छलक पुलिनों पर छाप छोड़ जाती है
कभी सिंधु की गहराई भी साफ झलक जाती है ।
कुम्भीपाक ! चिन्तनशील हो रहा हूँ भईया ।
हम तो अपनी कहें - जो कागज पर लिखा, वह दीमकों की भेंट चढ़ गया। उन्हे मेरी कविता पसन्द आयी या मेरी डायरी का प्रलाप - कौन बतायेगा?!
जवाब देंहटाएंये एक कवियों की सामान्य प्रवृति है......
जवाब देंहटाएंयदि कवि अपनी रचनायें हर वक्त सहेजता रहे तो वह एक कवि नही साहूकार हो जाये.......
कविताओं की ये नियति है.......
"अज्ञेय की मानें तो दु:ख मांजता है। जिन्हें माजता हो वो जानें..."
जवाब देंहटाएंहमें रागदरबारी की ये पंक्ितयां याद आ गईं , स्मृति से लिख रहे हैं ..."दुख सिर्फ मॉंजता ही नहीं खूब पटक पटककर फींचता है और अंत में इंसान का चेहरा घुघ्घू की तरह बनाकर छोड देता है ।"
इतनी जलेबी एक साथ छान दिए हैं कि सधना मुश्किल हो रहा है। लेकिन मिठास तो चाहे जितना उठा लें कम नहीं होने वाली।
जवाब देंहटाएंमुझे विश्वास है कि आपके विचार-गंगा की अविरल धारा चलती ही रहेगी। भगवान ने आपको ऐसा ही गढ़ा है। अबसे भी चेत लिए हैं तो हमलोग लगातार रसपान करते ही रहेंगे।
जो खो गया वह हो सकता है कुछ सयाना होकर दुबारा मिल जाय। बचपन का खॊया जवानी में मिल जाय तो क्या कहने?
सही कहा आपने। यह पीड़ा वाकई असहनीय है।
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बहुत घातक है प्रेमचन्द्र का मंत्र।
हिन्दी ब्लॉगर्स अवार्ड-नॉमिनेशन खुला है।
अक्षर तो बृह्म होते हैं, सो खोते भी नहीं. हमारे मन मस्तिष्क में उमड्ते घुमडते रहते हैं.
जवाब देंहटाएंअक्षर और जलेबी, कितनी व्याथा और कितनी मिठास.
जवाब देंहटाएंहमसे कुछ् खो जाये तो !!!!!!!
जवाब देंहटाएंपुरानी यादों को याद करेंगें तो बहुत दुःखी होगे पुरानो को छोड़िए नई रचिये खून के आसू ना रोये अभी तो जवा है नयी तान छेडिये
जवाब देंहटाएंकरोगे याद तो हर बात याद आयेगी किस किस किस्सो को हातिम ताइ की तरह कहेंगे